ये दाग दाग उजाला , ये शब-गजीदा* सहर
वो इंतजार था जिसका वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं
फलक** के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल
*कष्टभरी ** आसमान
फैज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे । पाकिस्तान में सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए वो हमेशा अपनी नज्मों से आवाज उठाते रहे। बोल की लब आजाद हैं तेरे....उनकी एक ऐसी नज्म है जो आज भी जुल्म से लड़ने के लिए आम जनमानस को प्रेरित करने की ताकत रखती है । इसीलिए पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ये उतनी ही लोकप्रिय है जितनी की पाक में । टीना सानी की आवाज में इस नज्म को सुनें, मेरा यकीन है कि इसमें कही गई बात आपके दिल तक पहुँचेगी
बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोल, जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां* जिस्म हे तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
* तना हुआ
देख कि आहनगर* की दुकां में
तुन्द** हैं शोले, सुर्ख है आहन^
खुलने लगे कुफलों के दहाने^^
फैला हर जंजीर का दामन
*लोहार, ** तेज, ^लोहा, ^^तालों के मुंह
बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों जबां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल कि जो कहना है कह ले
लियाकत अली खाँ की सरकार का तख्ता पलट करने की कम्युनिस्ट साजिश रचने के जुर्म में १९५१ में फैज पहली बार जेल गए । जेल की बंद चारदीवारी के पीछे से मन में आशा का दीपक उन्होंने जलाए रखा ये कहते हुए कि जुल्मो-सितम हमेशा नहीं रह सकता ।
चन्द रोज और मेरी जान ! फकत* चन्द ही रोज !
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास** है माजूर*** हैं हम
*सिर्फ **पुरखों की बपौती *** विवश
जिस्म पर कैद है, जज्बात पे जंजीरे हैं
फिक्र महबूस है* , गुफ्तार पे ताजीरें** हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
जिंदगी क्या है किसी मुफलिस की कबा*** है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
* विचारों पर कैद ** बोलने पर प्रतिबंध *** गरीब का कुर्ता
लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं
जेल से ही वो शासन के खिलाफ आवाज उठाते रहे । वो चाहते थे पाकिस्तान में एक ऐसी सरकार बने जो आम लोगों की आंकाक्षांओं का प्रतिनिधित्व करती हो । बगावत करने को उकसाती उनकी ये नज्म पाक में काफी मशहूर हुई । कहते हैं जब भी किसी मंच पर इकबाल बानो उनकी इस नज्म को गाते हुए जब ये कहतीं सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे, दर्शक दीर्घा से समवेत स्वर में आवाजें आतीं...."हम देखेंगे"
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हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां*
रुई की तरह उड़ जाएँगे
दम महकूमों** के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम*** के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम अहल-ए-सफा^, मरदूद-ए-हरम^^
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
.........और राज करेगी खुल्क-ए-खुदा^^^
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
* भारी पहाड़ **शोषितों *** सत्तारुढ़ ^पवित्र लोग ^^जिनकी चरमपंथियों ने निंदा की ^^^आम जनता
अपने समाज के दबे कुचले ,बेघर,बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीतात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता राजIनतिज्ञों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज्म उसी ओर इशारा करती है।
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको जौके गदाई*
जमाने की फटकार सरमाया** इनका
जहां भर की दुतकार इनकी कमाई
ना आराम शब को ना राहत सवेरे
गलाजत*** में घर , नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मजलूम मखलूक^ गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे जिल्लत^^^ दिला ले
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे
*भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति
फैज को विश्वास था कि गर आम जनता को अपनी ताकत का गुमान हो जाए तो वो बहुत कुछ कर सकती है । पर उनका ये स्वप्न, स्वप्न ही रह गया । कम्युनिस्ट विचारधारा को वो अपने ही मुल्क में प्रतिपादित नहीं कर पाए । अपने जीवन के अंतिम दशक में वो बहुत कुछ इस असफलता को स्वीकार कर चुके थे । १९७६ की उनकी ये रचना बहुत कुछ उसी का संकेत करती है।
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मशरूफ* रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
व्यस्त*
फैज ने अपनी शायरी में रूमानी कल्पनाओं का जाल बिछाया पर अपने इर्द गिर्द के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को भी उतना ही महत्त्व दिया । एक ओर बगावत का बिगुल बजाया तो दूसरी ओर प्रेयसी की याद के घेरे में उपमाओं का हसीन जाल भी बुना ।इसलिए समीक्षकों की राय में रूप और रस. प्रेम और राजनीति, कला और विचार का जैसा सराहनीय समन्वय आधुनिक उर्दू शायरी में फैज का है उसकी मिसाल खोज पाना संभव नहीं है ।
समाप्त ।
8 टिप्पणियाँ:
शुक्रिया । गीत जो सुना उसकी आख़िरी पंक्ति में 'कुछ'है,'जो' के बाद।सही क्या है ? मुझे अन्दाज़ था कि गीत में जोश होगा ।
वाह, मनीष भाई, बहुत खूब... मगर अब भी हमारा पसंदीदा जो आप जानना चाह रहे थे वो रहा...मुझसे पहले सी मुहब्ब्त मेरे महबूब न मांग...क्या बात है यार आपके लेखन और प्रस्तुतिकरण की!! बहुत बधाई. आगे नया इंतजार है.
मनीष ! तुम्हारा ब्लौग पढनें में बहुत आनन्द आता है और बहुत कुछ सीखनें को मिलता है ।
मेरे पास फ़ैज़ साहब की खुद की आवाज़ में कुछ 'रीकोर्डिग' हैं । अगर चाहो तो तुम्हें भेज सकता हूँ ।
अफलातून जी शायद आपने ध्यान नहीं दिया, वो पूरी नज्म पोस्ट पर टंकित है । क्लिप में जो आखिरी भाग छूटा है वो यूँ है
बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों जबां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल कि जो कहना है कह ले
समीर जी चलिए आपने अपनी पसंद तो बताई। :)
पसंदगी का शुक्रिया !
अनूप जी जानकर बेहद खुशी हुई कि मेरा प्रस्तुतिकरण आपको अच्छा लगा। फैज की आवाज की रिकार्डिंग मैंने सिर्फ वेब साइट पर सुनी है पर मेरे पास कोई audio clip नहीं है । इसलिए आप अवश्य भेंजे । बहुत बहुत शुक्रिया आपकी पेशकश का ।:)
प्रियंकर जी शुक्रिया सराहने का !
आख़िरी नज्म सुनी है....
आभारी हूँ आपका..फैज़ साहब से मिलवाने के लिए...उनको ढूंढने की अब मेरी तलाश शुरू होगी !
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