कुछ दिनों पहले पिंक देखी। एक जरूरी विषय पर ईमानदारी से बनाई गई बेहद कसी हुई फिल्म है पिंक। सबको देखनी चाहिए, कम से कम लड़कों को तो जरूर ही। लड़कियों के प्रति लड़कों की सोच को ये समाज किस तरह परिभाषित करने में मदद करता है या यूँ कहें कि भ्रमित करता है, उससे आप सब वाकिफ़ ही होंगे। पिंक ने इस कहानी के माध्यम से इसी सोच की बखिया उधेड़ने का काम किया है।
दशकों बीत गए और लड़कियों के प्रति हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है। समाज के निचले तबकों में मुखर है तो मध्यम वर्ग में अंदर ही दबी हुई है जो वक़्त आने पर अपने सही रंग दिखाने लगती है। फिर तो लगने लगता है कि इस सोच का पढ़ाई लिखाई से लेना देना है भी या नहीं?
आज वो दिन याद आ रहे हैं जब मैंने इंटर में एक कोचिंग में दाखिला लिया था। जैसा अमूमन होता है, अक्सर ब्रेक में लड़के पढ़ाई के आलावा लड़कियों की भी बाते किया करते थे। किसी भी लड़की का चरित्र चुटकियों में तय कर दिया जाता था और वो भी किस बिना पर? देखिये तो ज़रा ..
जानते हैं इ जो नई वाली आई है ना, एकदमे करप्ट है जी
क्यूँ क्या हुआ?
देखते नहीं है कइसे सबसे हँस हँस के बात करती है
अरे आप भी तो सबसे हँस मुस्कुराकर बात करते हैं ?
अरे छोड़िए महाराज है तो उ लइकिए नू..
मतलब ख़ुद करें तो सही और लड़की करे तो लाहौल विला कूवत। मुझे बड़ी कोफ्त होती थी इस दोहरी सोच पर तब भी और आज इतने सालों के बाद भी मुझे नहीं लगता कि कमोबेश स्थिति बदली है। किसी का सबके साथ हँसना मुस्कुराना, हाथ पकड़ लेना, साथ घूमना, खाना पीना सो कॉल्ड हिंट मान लिया जाताा है।
ख़ैर इन्हें तो छोड़िए, अकेली सुनसान सड़कों पर चलना भी कोई हिंट है क्या? आफिस से रात में देर से लौटना कोई हिंट है क्या? मेरी एक सहकर्मी ने बहुत पहले अपने से जुड़ी एक घटना बताई थी जिसमें सुबह की एक प्यारी मार्निंग वॉक, एक कुत्सित दिमाग के व्यक्ति की वहशियाना नज़रों और भद्दी फब्तियों के बीच अपनी हिम्मत बनाए रखते हुए अपना आत्मसम्मान बचा पाने की जद्दोजहद हो गई थी। बिना किसी गलती के ऐसी यंत्रणा क्यूँ झेलनी पड़ती हैं लड़कियों को? डर के साये में क्यूँ छीन लेना चाहते हैं हम उनका मुक्त व्यक्तित्व?
रही बात वैसे पुरुषों के अहम की जो ना सुनने का आदी ही नहीं है। दिल्ली में जिस तरह कुछ दिनों पहले शादी के लिए मना करने की वजह से सरे आम एक महिला की चाकू से गोद गोद कर नृशंस हत्या की गई उसे आप क्या कहेंगे? प्यार ! ऐसा ही प्यार करने वाले बड़ी खुशी से उन चेहरों पर तेजाब फेंक देखते हैं जिसे वो अपना बनाने चाहते थे। ये सब सुन और देख कर क्या आपको नहीं लगता है कि मनुष्य जानवरों से भी बदतर और कुटिल जीव है? क्या हमारे अंदर व्याप्त ये दरिंदगी कभी खत्म होगी? पिंक के गाने के वो बोल याद आ रहे हैं
कारी कारी रैना सारी, सौ अँधेरे क्यूँ लाई, क्यूँ लाई
रोशनी के पाँव में ये बेड़ियाँ सी क्यूँ लाई, क्यूँ लाई
उजियारे कैसे अंगारे जैसे, छाँव छैली धूप मैली, क्यूँ है री
बस मन में सवाल ही हैं जवाब कोई नहीं......
आज जब की लड़कियाँ पढ़ लिख कर हर क्षेत्र में अपनी काबिलयित का लोहा मनवा रही हैं तो फिर उनसे अपनी हीनता का बोध हटाएँ कैसे? बस जोर आजमाइश से आसान और क्या है। आबरू तो सिर्फ लड़कियों की ही जाती है ना इस दुनिया में। यही वो तरीका है जिसमें बिना मेहनत के किसी स्वाभिमानी स्त्री को अंदर तक तोड़ दिया जाए।
आज जब की लड़कियाँ पढ़ लिख कर हर क्षेत्र में अपनी काबिलयित का लोहा मनवा रही हैं तो फिर उनसे अपनी हीनता का बोध हटाएँ कैसे? बस जोर आजमाइश से आसान और क्या है। आबरू तो सिर्फ लड़कियों की ही जाती है ना इस दुनिया में। यही वो तरीका है जिसमें बिना मेहनत के किसी स्वाभिमानी स्त्री को अंदर तक तोड़ दिया जाए।
मेरा मानना है कि आप प्रेम उसी से करते हैं, कर सकते हैं जिनकी मन से इज़्ज़त करते हैं। अगर मान लें कि ये प्रेम एकतरफा है तो भी आप उस शख़्स की बेइज़्ज़ती होते कैसे देख सकते हैं। उससे झगड़ा कर सकते हैं, नाराज़ हो सकते हैं पर उसे शारीरिक क्षति कैसे पहुँचा सकते हैं?
आज फिल्मों में ही सही इन बातों को बेबाकी से उठाया तो जा रहा है। लोगों की मानसिकता को बदलने के लिए ये एक अच्छी पहल है और इसलिए मैंने शुरुआत में कहा कि ये फिल्म सबको देखनी चाहिए कम से कम लड़कों को तो जरूर ही। पर ये लड़ाई लंबी है और इसकी शुरुआत हर परिवार से की जानी चाहिए। अपने लड़कों को पालते वक़्त उनमें लड़कियों के प्रति एक स्वच्छ सोच को अंकुरित करना माता पिता का ही तो काम है। परिवार बदलेंगे तभी तो समाज बदलेगा, सोचने का नज़रिया बदलेगा।
अभी तो समाज का पढ़ा लिखा तबका इस पर बहस कर रहा है। पर बदलाव तो उस वर्ग तक पहुँचना चाहिए जो समाज के हाशिये पर है और जिसकी आवाज़ इस देश के हृदय तक जल्दी नहीं पहुँच पाती।
हताशा के इस माहौल में तनवीर गाजी की लिखी ये कविता एक नई उम्मीद जगाती है। मुझे यकीन है की अवसाद के क्षणों में अमिताभ की आवाज़ में आशा के ये स्वर लड़कियों के मन में आत्मविश्वास के साथ जोश की नई लहर जरूर पैदा करेंगे
तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किस लिये हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है
जो तुझ से लिपटी बेड़ियाँ, समझ न इन को वस्त्र तू
यॆ बेड़ियाँ पिघला के, बना ले इन को शस्त्र तू
चरित्र जब पवित्र है, तो क्यूँ है यॆ दशा तेरी
यॆ पापियों को हक़ नहीं, कि ले परीक्षा तेरी
जला के भस्म कर उसे, जो क्रूरता का जाल है
तू आरती की लौ नहीं, तू क्रोध की मशाल है
चूनर उड़ा के ध्वज बना, गगन भी कँपकपाएगा
अगर तेरी चूनर गिरी, तो एक भूकम्प आएगा ।
तू ख़ुद की खोज में निकल ...
27 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर विश्लेषण !
101% सच लिखा है ...
आशा जी व कपिल शुक्रिया कि मेरी लिखी बातें आपको जँची।
Manishji...aapki soch aapki likhayi ki tarah hi behad khoobsoorat hai...hum toh pehle hi aapke kaayal hai, iss review ke baad toh aur bhi!
मैंने फिल्म नहीं देखी, देखना चाहूँगा।चित्रण एवं विश्लेषण उत्कृष्ट है।विचारों से पूपूर्णतः सहमत हूँ।बहुत बहुत धन्यवाद मनीष।
bahut sahi keha manish ji...thank yu for sharing..maine bhi film abhi nahi dekhi hai..par jald hi dekhungi..vaise bhi sujit sarkar sir ka canvas bahut nayab hai
स्मिता आपकी जानिब से ये प्रशंसा कुछ खास मायने रखती हैं क्यूँकि पिछले एक दशक से आप इस ब्लॉग के साथ रही हैं। तहे दिल से शुक्रिया !
Yadunath jee हाँ जरूर देखिए..कुछ सोचने पर अवश्य मजबूर करेगी ये फिल्म !
हाँ पारुल विकी डोनर, पीकू और पिंक तीनों फिल्में अलग तरह की थीं और तीनों ही शानदार बनीं।
सत्य विश्लेषण ।।।।।। सही पकडे हो मनीष जी
इस मामले मे पूर्वोत्तर राज्यों का समाज शेष भारत की अपेक्षा बेहत्तर है। जहाँ उत्तर भारत के समाज मे यदि एक बेटी पैदा होती है तो उनके माता पिता उनके अच्छी परवरिश के बजाय उनके शादी और दहेज की चिन्ता करते है। जबकी मैने देखा है पूर्वोत्तर राज्यो मे बेटी की शादी की नही बल्कि उसे अच्छी शिक्षा और बेहत्तर साधन उपलब्ध कराने की सोचते है । मैने यहाँ के अधिकत्तर परिवारों मे देखा है यदि किसी के बेटा और बेटी दोनो सयाने हो गए हों और सक्षम हो तो काॅलेज आने जाने के लिए भले ही बेटा के लिए बाइक न ले लेकिन बेटी के लिए स्कूटी जरूर लेगे और बेटी को कम उम्र एवं उसकी सहमति के बैगर शादी के लिए दवाब नहीं डालते ।
यहां के समाज मे लड़कियो की व्यक्तिगत स्वंतत्रा मे कोई पाबंदी नही है ।
आपके विचार से अक्षरशः सहमत हूँ.. पिंक देखने का प्लान पिछले रविवार को ही था.. पर इस सप्ताहांत में तो जरूर देखूंगा...
यह फिल्म एक स्वस्थ समाज के गठन की शुरुआत नज़र आती है. फ़िल्म का मुद्दा हम औरतों के स्वाभिमान के प्रश्न को कुरेदता है. निर्देशक ने ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाकर हम सब पर अहसान किया है .
पर साथ ही साथ मनीष मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि फ़िल्म कसी हुई है. निर्देशक अमिताभ और ममता शंकर के चरित्र को उभार नहीं पाए. रेप जैसे बड़े मुद्दे को कोर्ट के सामने नहीं रखा गया.
bahut hi ache se aapne har pahlu ko bataya hai manish ji maine movie dekhi hai or sahi mein bahut hi achi bani hai jo aapko sochne pe majboor karti hai besak samaaj ke tarike badle hai par soch wanha tak nahi badal paayi hai
http://bulletinofblog.blogspot.in/2016/09/7.html
बहुत सटीक ,, तनवीर गाजी की लिखी कविता बहुत अच्छी।
मैं मूवीज़ कम देखती हूँ लेकिन इस रिव्यु के बाद लगता है ये देखनी पड़ेगी
Manish Kaushalआशा है अब तक देख ली होगी :)
Harshita हाँ अवश्य देखिए, थोड़ी गंभीर फिल्म है सबको कुछ सोचने पर विवश करती हुई !
दुर्भाग्य से हॉल में लड़के ना के बराबर होते हैं।
Kavita jeeसौभाग्य से रांची में तो मुझे ये स्थिति देखने को नहीं मिली
Kumar Gulshan शुक्रिया अपने विचार से अवगत कराने के लिए। जानकर खुशी हुई कि ये फिल्म आपको पसंद आई।
भास्कर, शुक्रिया ! :)
रश्मि प्रभा जी हार्दिक आभार इसे बुलेटिन में स्थान देने के लिए।
कविता जी कविता आपको अच्छी लगी जानकर खुशी हुई।
Bilkul sahi kha h.....me to un logo se vakif bhi hu jinka beta aisa kar kar chuka lekin wo apne bete ki galti ko samne dekhkr bhi nhi mante kabhi....ladke ke perents h to kya huaa...beta galat kaam kre to use apne dular se ghatiya bante raho..bina or girls par ilzaam lagao...y konsi parvarish h...
Ghinn hoti h aise logo se...
Or mujhe aaj tk y samjh nhi aata...ki CHARITRA LADKIYO KA HI Q HOTA H??? LADKO KA Q NHI HOTA??? MERA MAN NA H..DONO KA HOTA H..OR JHA..LADKE SAWTANTR HAS - BOL SAKTE H ....TO LADKIYA Q NHI??? HASNA...MILNA..BOLNA..GALAT NHI HOTA..FIR Q LOG UNHE GALAT NAZARIYE SE DEKHTE H???? SACH ME ..MANSIKTA ME BADLAAV CHAHIYE..OR NAZARIYE ME BHI.....
Rajini Sharma सही कह रही हैं आप कि बेटों की गलतियाँ छुपाने और उसका बचाव करने की मानसिकता हमारे समाज में प्रायः देखी गई है। बेटा या हो बेटी गलतियाँ छुपाने से कभी वो आगे चलकर एक अच्छे इंसान नहीं बन सकते। इस सच को माता पिता जितनी जल्दी स्वीकार लें उतना ही अच्छा।
ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मुझे पढ़ाने-लिखाने और स्वाभिमान से जीना सिखाने वाला परिवार मिला। लेकिन पहले बनारस और बाद में दिल्ली में कई बार कुछ उसी तरह की दहशत से गुज़रना पड़ा जैसा फिल्म में इन लड़कियों ने किया। मुझे गर्व है कि मैंने बेटे को ऐसे संस्कार दिये हैं कि वह सहपाठी-सहकर्मी लड़कियों के बारे में किसी तरह की ओछी बात बर्दाश्त नहीं करता। पहले हमें अपने घर में ही लड़कियों को दोयम दर्जे की नागरिक समझना बंद करना पड़ेगा।
Shubhra Sharma जी बिल्कुल ये शुरुआत घर परिवार से ही होनी चाहिए।
पिंक फिल्म मैंने पत्नी सहित देखी। पर मेरी पत्नी को फिल्म पसंद नहीं आई। वह इसी दुविधा में है कि विषय अच्छा है पर सब कुछ होते हुए भी
आधुनिकता के नाम पर लड़कियों को इतना उच्छल नहीं होना चाहिए। मैं सोचता हूं कि सदियों से स्थापित
सड़े गले मूल्यों को तोडना कितना मुश्किल है।
एक बात और। अपनी बात के प्रारम्भ में आपने लिखा है कि "क्या आपको नहीं लगता है कि मनुष्य जानवरों से भी बदतर और कुटिल जीव है? "
यहां मैं आप से सहमत नहीं हूं। क्या भयंकर से भयंकर जानवर भी क्या बलात्कार जैसे घृणित कार्य कर सकता है ?जानवर सदा प्रकृति
प्रदत्त नियमों का पालन करते है। मनुष्यों से तुलना करना जानवरों के साथ घोर अन्याय है
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