दीपावली एक ऐसा पर्व है जिसे अकेले मनाने का मन नहीं होता। दीपावली के पहले की सफाई से लेकर उस दिन एक साथ पूजा करना, बड़ों से आशीर्वाद लेना ,बच्चों की खुशियों में साझेदार बनना मुझे हमेशा से बेहद पसंद रहा है। खुशकिस्मत हूँ की मेरा कार्य मुझे ऐसे दीपावली मना पाने की सहूलियत देता है। पर सेना, पुलिस , अस्पताल और अन्य जरुरी सेवाओं में लगे लोगों को देखता हूँ तो मन में यही ख्याल आता है कि काश जंग ही नहीं होती, अपराध नहीं होते , लोग आपस में खून खराबा नहीं करते तो इन आकस्मिक और जरुरी सेवाओं की फेरहिस्त भी छोटी हो जाती। दरअसल एक साथ जुटने , खुशियों को बांटने के अलावा ये प्रकाशोत्सव हमें मौका देता है की हम अपनी उन आंतरिक त्रुटियों को दूर करें ताकि घृणा , वैमनस्य, हिंसा जैसी भावनाएँ हमारे पास भी न भटकें।
आख़िर दीपावली में हम अपने घर भर में उजाला क्यों करते हैं? इसीलिए ना कि बाहर फैली रौशनी की तरह हमारा अंतर्मन भी प्रकाशित हो। हम सब के अंदर का कलुष रूपी तमस दीये की लौ के साथ जलकर सदविचार में तब्दील हो सके। हिंदी के प्रखर कवि गोपाल दास नीरज की एक कविता याद आ रही है जिसमें उन्होंने इसी विचार को अपने ओजपूर्ण शब्दों से संवारा था ।
आख़िर दीपावली में हम अपने घर भर में उजाला क्यों करते हैं? इसीलिए ना कि बाहर फैली रौशनी की तरह हमारा अंतर्मन भी प्रकाशित हो। हम सब के अंदर का कलुष रूपी तमस दीये की लौ के साथ जलकर सदविचार में तब्दील हो सके। हिंदी के प्रखर कवि गोपाल दास नीरज की एक कविता याद आ रही है जिसमें उन्होंने इसी विचार को अपने ओजपूर्ण शब्दों से संवारा था ।
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
इस कविता के माध्यम से कवि ये कहना चाहते हैं कि दीपावली में दीपक जलाकर रोशनी करना तो उत्सव का एक रूप है जो कि रात तक सिमट जाता है। पर वास्तव हमें ये पर्व ये संदेश देता है कि असली दीवाली तब मनेगी जब इस संपूर्ण संसार के लोगों के हृदय अंदर से जगमग हो जाएँ। ये तभी संभव हो पाएगा हर मानव के अंदर सदाचार, ईमानदारी व कर्मठता का दीप जल उठेगा।
दीपावली का ये मंगल पर्व एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए खुशिया लाए और हम सब को एक बेहतर मानव बनने को प्रेरित कर सके इन्हीं आशाओं और शुभकामनाओं के साथ!
10 टिप्पणियाँ:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कार्तिक पूर्णिमा ~ देव दीपावली और गुरु पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
प्रस्तुत कविता को कभी स्कूल में खूब रट्टा लगा चिल्ला चिल्ला कर पढ़ने में बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हुआ करता था
बहुत सुन्दर सामयिक प्रस्तुति
आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं!
हर्षवर्धन हार्दिक आभार !
कविता जी अच्छा, आपने स्कूल में पढ़ी है! नवीं व दसवीं की हमारी पाठ्य पुस्तक में गोपाल दस नीरज नहीं थे।
7th cĺass mey y kVita khub yd karte thhey
बचपन से गा रहे इसे । अनगिनत बार स्टेज पर गया
R P Mishra जानकर अच्छा लगा कि आपको इस कविता से इतना प्रेम रहा।
Very nice 👍
बंधुओं मेरा जन्म 1963 का है और मैंने 19 सौ 81 में हाई स्कूल तथा 83 में इंटर किया है लेकिन मुझे जब से याद है की गोपालदास नीरज जी हमारे हिंदी सिलेबस में उस समय कोई कभी नहीं थे मुझे तो यह कविता अयोध्या सिंह उपाध्याय की लगती है जिन्हें हरिओम भी कहते थे
@Unknown ये कविता गोपाल दास नीरज की ही है।
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कुछ कविताएँ यहाँ देखें।
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