साल के पच्चीस बेहतरीन गीतों की फेरहिस्त में आज चर्चा उस गीत की जिसे जनता जनार्दन ने पिछले साल हाथों हाथ लिया था । गीत की धुन तो इतनी लोकप्रिय हुई कि नक्कालों ने इसका इस्तेमाल कर जो भी पैरोडी बनाई वो भी हिट हो गयी। जी हाँ, बात हो रही है रश्के क़मर की जिसे मूलरूप में कव्वाली के लिए नुसरत फतेह अली खाँ ने संगीतबद्ध किया और गाया था। इसे लिखा था फ़ना बुलंदशहरी ने जिनके पुरखे भले भारत से रहे हों पर उन्होंने अपना काव्य पाकिस्तान में रचा।
बहुत से लोग इस गीत के मुखड़े का अलग मतलब लगा लेते हैं क्यूँकि "क़मर" और "रश्क" जैसे शब्द उनकी शब्दावली के बाहर के हैं। उनकी सुविधा के लिए बता दूँ कि शायर ने मुखड़े में कहना चाहा है कि तुम्हारी खूबसरती तो ऐसी हैं कि चाँद तक को तुम्हें देख कर जलन होती है। ऐसे में तुमसे नज़रें क्या मिलीं दिल बाग बाग हो गया। तुम्हें देख के ऐसा लगा मानो आसमान में बिजली सी चमक गयी हो। अब तो जिगर जल सा उठा है पर इस अगन का मज़ा ही कुछ और है ।
मेरे रश्के क़मर तूने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
बर्क़ सी गिर गयी काम ही कर गयी आग ऐसी लगायी मज़ा आ गया
जाम में घोल कर हुस्न की मस्तियाँ चाँदनी मुस्कुराई मज़ा आ गया
चाँद के साए में ऐ मेरे साकिया तू ने ऐसी पिलाई मज़ा आ गया
नशा शीशे में अंगड़ाई लेने लगा बज़्म ए रिन्दाँ में सागर खनकने लगे
मैकदे पे बरसने लगी मस्तियाँ जब घटा गिर के छाई मज़ा आ गया
बेहिजाबाँ जो वो सामने आ गए
और जवानी जवानी से टकरा गयी
आँख उनकी लड़ी यूँ मेरी आँख से
देख कर ये लड़ाई मज़ा आ गया मेरे
मेरे रश्के क़मर तू ने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
आँख में थी हया हर मुलाक़ात पर
सुर्ख आरिज़ हुए वस्ल की बात पर
उसने शर्मा के मेरे सवालात पे
ऐसे गर्दन झुकाई मज़ा आ गया
मेरे रश्के क़मर .....मज़ा आ गया
बर्क़ सी गिर गयी ...मज़ा आ गया
शेख साहिब का ईमान बिक ही गया
देख कर हुस्न-ए-साक़ी पिघल ही गया
आज से पहले ये कितने मगरुर थे
लुट गयी पारसाई मज़ा आ गया
ऐ फ़ना शुक्र है आज बाद-ए-फ़ना
उसने रख ली मेरे प्यार की आबरू
अपने हाथों से उसने मेरी क़ब्र पर
चादर-ए-गुल चढ़ाई मज़ा आ गया
मेरे रश्के क़मर तू ने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
(शब्दार्थ : रश्क- ईर्ष्या, बर्क़ - बिजली, क़मर - चाँद, रिंद - शराब पीने वाले, बेहिज़ाब - बिना किसी पर्दे के, आरिज़ - गाल, मगरुर - अहंकार, वस्ल - मिलन, फ़ना -मृत्यु )
नुसरत साहब ने इस कव्वाली में अपनी हरक़तें डालकर इसके शब्दों को एक अलग ही मुकाम पे पहुँचा दिया था। इसलिए अगर आप नुसरत प्रेमी हैं तो मैं चाहूँगा कि इस कव्वाली पर आधारित गीत को सुनने के पहले मूल रचना को अवश्य सुनें। फ़ना साहब की शायरी में जो शोखी और रसीलापन है वो जरूर आपके मन में आनंद जगा जाएगा..
फिल्म बादशाहो के निर्माता भूषण कुमार ने नुसरत की ये गाई ग़ज़ल जब सुनी थी तभी से इसे गीत की शक्ल में किसी फिल्म में डालने का विचार उनके मन में पनपने लगा था। निर्देशक मिलन लूथरा ने जब उन्हें फिल्म में नायक नायिका के पहली बार आमने सामने होने की परिस्थिति बताई तो भूषण को लगा कि नुसरत साहब की उस कव्वाली को इस्तेमाल करने की ये सही जगह होगी। मिलन ख़ुद नुसरत प्रेमी रहे हैं। मजे की बात ये है कि उनकी पिछली फिल्म कच्चे धागे का संगीत निर्देशन भी नुसरत साहब ने ही किया था और उस फिल्म में भी अजय देवगन मौज़ूद थे। यही वज़ह रही कि भूषण जी का विचार तुरंत स्वीकृत हुआ।
गीत के बोलों को आज के दौर के हिसाब से परिवर्तित करने का दायित्व गीतकार मनोज मुन्तशिर को सौंपा गया। संगीत की बागडोर सँभाली इस साल सब से तेजी से उभरते संगीतकार तनिष्क बागची ने। अगर आपने नुसरत साहब की कव्वाली सुनी होगी तो पाएँगे कि मूल धुन से तनिष्क बागची ने ज़रा भी छेड़ छाड़ नहीं की है। कव्वाली में हारमोनियम के साथ तालियों के स्वाभाविक मेल को उन्होंने यहाँ भी बरक़रार रखा है। जोड़ा है मेंडोलिन को जो कि इंटरल्यूड्स में बजता सुनाई देता है। कव्वाली और गीत के बोलों के मिलान आप समझ जाएँगे कि मुखड़े और बर्क़ सी गिर गई वाले अंतरे को छोड़ बाकी के बोल मनोज मुन्तशिर के हैं।
ये अलग बात है कि मनोज अक़्सर कहते रहे हैं कि पुराने गीतों को नया करने का ये चलन उन्हें पसंद नहीं है क्यूँकि इसमें गीतकार और संगीतकार को श्रेय नहीं मिल पाता। बात सही भी है अगर इस गीत को कोई याद करेगा तो वो सबसे पहले नुसरत और फ़ना का ही नाम लेगा। तो आइए सुनते हैं ये गीत जिसे गाया है राहत फतेह अली खाँ साहब ने
ऐसे लहरा के तू रूबरू आ गयी
धड़कने बेतहाशा तड़पने लगीं
तीर ऐसा लगा दर्द ऐसा जगा
चोट दिल पे वो खायी मज़ा आ गया
मेरे रश्के क़मर तूने पहली नज़र
जब नज़र से मिलायी मज़ा आ गया
जोश ही जोश में मेरी आगोश में
आके तू जो समायी मज़ा आ गया
मेरे रश्के क़मर .... मज़ा आ गया
रेत ही रेत थी मेरे दिल में भरी
प्यास ही प्यास थी ज़िन्दगी ये मेरी
आज सेहराओं में इश्क़ के गाँव में
बारिशें घिर के आईँ मज़ा आ गया
मेरे रश्के क़मर तूने पहली नज़र ...
रांझा हो गए हम फ़ना हो गए ऐसे तू मुस्कुरायी मज़ा आ गया
मेरे रश्के क़मर तूने पहली नज़र जब नज़र से मिलायी मज़ा आ गया
बर्क़ सी गिर गयी काम ही कर गयी आग ऐसी लगायी मज़ा आ गया
चलते चलते ये भी बता दूँ कि आज इस गीत की लोकप्रियता का ये आलम है कि मुखड़े में हास्यास्पद तब्दीलियाँ करने के बावज़ूद मेरे रश्क़ ए क़मर तूने आलू मटर इतना अच्छा बनाया मजा आ गया जैसी पंक्तियाँ भी उतने ही चाव से सुनी जा रही हैं।
वार्षिक संगीतमाला 2017
1. कुछ तूने सी है मैंने की है रफ़ू ये डोरियाँ
2. वो जो था ख़्वाब सा, क्या कहें जाने दे
3. ले जाएँ जाने कहाँ हवाएँ हवाएँ
6. मन बेक़ैद हुआ
7. फिर वही.. फिर वही..सौंधी यादें पुरानी फिर वही
8. दिल दीयाँ गल्लाँ
9. खो दिया है मैंने खुद को जबसे हमको है पाया
10 कान्हा माने ना ..
13. ये इश्क़ है
17. सपने रे सपने रे
19. नज़्म नज़्म
20 . मीर ए कारवाँ
24. गलती से mistake
2. वो जो था ख़्वाब सा, क्या कहें जाने दे
3. ले जाएँ जाने कहाँ हवाएँ हवाएँ
7. फिर वही.. फिर वही..सौंधी यादें पुरानी फिर वही
8. दिल दीयाँ गल्लाँ
9. खो दिया है मैंने खुद को जबसे हमको है पाया
10 कान्हा माने ना ..
13 टिप्पणियाँ:
My favourite for the past one year. I need to play it at least once during my daily drive.
अच्छा ऐसा ! :).इसकी धुन का जादू तो पूरे देश पे छाया है। नुसरत साहब की मूल कव्वाली भी जानदार है। कभी फुर्सत से सुनिएगा।
राहत और नुसरत साहब वाले दोनों वर्जन मुझे बेहद पसन्द हैं।इसके मूल गीतकार का नाम आपसे ही पता चला। बड़ी बात यह है की मेरी इतनी पुरानी फरमाइश आपको याद रही। ये मेरी फरमाइश पूरी होने का दूसरा मौका है। आप अपने सभी मित्रों का कितना ख्याल रखते हैं, ये बात मुझे भी प्रेरित करती है। अभिभूत हूँ..बहुत-बहुत धन्यवाद सर जी।
मेरा लिखा पढ़ने वालों के विचार और फर्माइश तो हमेशा मेरे दिमाग में रहते हैं। हाँ लिखना तभी हो पाता है जब मेरी पसंद भी उस फर्माइश से मेल खा जाए। :)
गाना एवं धुन तो लोकप्रिय है ही।पुराने और नए वर्जन को विश्लेषण सहित,उर्दू के शब्दों के हिंदी अर्थ देते हुए तुमने कव्वाली की आत्मा तक सबको पहुंचने का अवसर दिया है।बहुत अच्छा लगा। ऐसी अच्छी जानकारी का आगे भी इन्तज़ार रहेगा।बहुत बहुत धन्यवाद मनीष ।
शु्किया आपका आलेख पसंद करने के लिए !
I loved the Nusarat and Fana version.
मूल कव्वाली की तो बात ही क्या जयश्री !
मनीष जी ये गाना सोहलवें पायदान पर देखकर बहुत निराशा हुई... में समझ रही थी की आप इसे पहले या दूसरे पायदान पर रखेंगे..
गीत के बोल, गायिकी.संगीत सब इतना अच्छा हे की हम अपने आप को इसे गुनगुनाने से रोक ही नहीं सकते... सबसे पहले ये गाना मैंने अरिजीत सिंह की आवाज़ में सुना था.. उन्होंने इसे बहुत ख़ूबसूरती से गाया हे.. बाद में पता चला की ये नुसरत साहब का गाया हुआ हे... और फिर बादशाहो में इसे सुनकर तो.. मज़ा आ गया.. :)
स्वाति आपको ये गीत बेहद पसंद है जानकर खुशी हुई। जहाँ तक इस गीत को ऊपर की पॉयदान पे ना रखने की बात है तो आप ही बताइए कि जिस गीत की मूल धुन (जिसकी वजह से ये गीत इतना लोकप्रिय हुआ है) नुसरत साहब की बनाई है उसके लिए तनिष्क बागची को बतौर संगीतकार कैसे उनकी बेहतरीन रचना माना जा सकता है? यही बात गीत के बोलों के लिए भी लागू हैं।
आप पहली कुछ पायदानों के बोलों पर गौर कीजिएगा तो निश्चय ही वो आपको ज्यादा गहरे नज़र आएँगे।
सही कहा आपने मनीष जी, हम श्रोता लोग इस तरह से नहीं सोच पाते जैसे आप सोच लेते हे... और यही आपको सबसे अलग बनती हे..:)
आपके चुनाव पर तो पहले भी कभी संदेह नहीं था... ये तो बस एक जिज्ञासा थी जो आपने शांत कर दी..
इस गीत की धुन तो अच्छी लगती है लेकिन बोल के स्तर पर मुझे यह गीत उतना अच्छा नहीं लगता जितना पब्लिक को लगा :)
हाँ कंचन बिल्कुल सहमत हूँ आपकी बात से। ऊपर कमेंट में यही बात कही भी है मैंने।
एक टिप्पणी भेजें