स्कूल के ज़माने से जब भी मुझसे पूछा जाता कि तुम्हारे सबसे प्रिय राजनेता कौन हैं तो हमेशा मेरा उत्तर अटल बिहारी बाजपेयी होता था। शायद उस वक़्त मेरी जितनी भी समझ थी वो मुझे यही कहती थी कि एक नेता को दूरदर्शी, मेहनती, कुशल वक्ता और लोगों से सहजता से घुलने वाला हँसमुख इंसान होना चाहिए। मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, आडवाणी, नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर जैसों की भीड़ में मुझे ये गुण सिर्फ अटल जी में ही नज़र आते थे।
मुझे लगता है कि अगर नब्बे के दशक की शुरुआत से बहुमत के साथ प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी मिली होती तो उनके नेतृत्व में देश एक सही दिशा और दशा में अग्रसर होता। ख़ैर वो हो न सका और अपनी पहली पारी में कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में काम करने के बाद भी वो अपनी दूसरी पारी में पराजित हो गए। फिर तो ढलते स्वास्थ ने उन्हें राजनीतिक परिदृश्य से बाहर ही कर दिया और पिछले महीने वो इस लोक से ही विदा ले गए।
अटल जी एक राजनीतिज्ञ तो थे ही, विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह ही उनके मन में एक कवि हृदय बसता था। प्रकृति से उनके प्रेम का आलम ये था कि प्रधानमंत्री के कार्य का दायित्व निर्वाह करते हुए भी वो साल में एक बार मनाली की यात्रा करना नहीं भूलते थे।
अटल जी एक राजनीतिज्ञ तो थे ही, विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह ही उनके मन में एक कवि हृदय बसता था। प्रकृति से उनके प्रेम का आलम ये था कि प्रधानमंत्री के कार्य का दायित्व निर्वाह करते हुए भी वो साल में एक बार मनाली की यात्रा करना नहीं भूलते थे।
1977 की बात है जब इमंरजेसी के बाद हुए चुनाव में मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। अटल जी उस ज़माने में देश के विदेश मंत्री थे। उन्हीं दिनों का एक रोचक प्रसंग है जो मैंने और शायद आपने भी कई बार पढ़ा हो। जब जब मैं ये किस्सा पढ़ता हूँ तो चेहरे पर मुस्कान के साथ बतौर इंसान अटल जी के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ जाती है इसलिए इस पत्राचार को आज अपने ब्लॉग पर सँजो लिया है।
अटल जी ने तब एक कविता लिखी थी और अपने मातहत के जरिये उन्होंने उसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपने के लिए उसके तात्कालिक संपादक मनोहर श्याम जोशी को भेजा। जब बहुत दिनों तक जोशी जी की ओर से कोई जवाब नहीं आया तो अटल जी से रहा नहीं गया और उन्होंने एक कुंडली के माध्यम से बड़े मोहक अंदाज़ में जोशी जी से अपनी शिकायत दर्ज करवाई।
"प्रिय संपादक जी, जयराम जी की…समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था। पता नहीं आपको मिला या नहीं...नीका लगे तो छाप लें नहीं तो रद्दी की टोकरी में फेंक दें। इस सम्बंध में एक कुंडली लिखी है..कैदी कवि लटके हुए, संपादक की मौज,कविता 'हिंदुस्तान' में, मन है कांजी हौज,मन है कांजी हौज, सब्र की सीमा टूटी,तीखी हुई छपास, करे क्या टूटी-फूटी,कह क़ैदी कविराय, कठिन कविता कर पाना,लेकिन उससे कठिन, कहीं कविता छपवाना!"
मनोहर श्याम जोशी भी एक जाने माने लेखक व पत्रकार थे। बाजपेयी जी ने कविता के माध्यम से शिकायत की थी तो वो भला क्यूँ पीछे रहते। उन्होंने भी जवाब में एक कविता लिख मारी जिसका मजमूँ कुछ यूँ था।
"आदरणीय अटलजी महाराज,आपकी शिकायती चिट्ठी मिली, इससे पहले कोई एक सज्जन टाइप की हुई एक कविता दस्ती दे गए थे कि अटलजी की है। न कोई खत, न कहीं दस्तखत...आपके पत्र से स्थिति स्पष्ट हुई और संबद्ध कविता पृष्ठ 15 पर प्रकाशित हुई। आपने एक कुंडली कही तो हमारा भी कवित्व जागा -कह जोशी कविराय नो जी अटल बिहारी,बिना पत्र के कविवर,कविता मिली तिहारी,कविता मिली तिहारी साइन किंतु न पाया,हमें लगा चमचा कोई,ख़ुद ही लिख लाया,कविता छपे आपकी यह तो बड़ा सरल है,टाले से कब टले, नाम जब स्वयं अटल है।"
अटल जी की कविताओं को सबसे पहले जगजीत सिंह ने अपने एलबम संवेदना में जगह दी थी। इस एलबम में अटल जी की कविताओं का प्राक्कथन अमिताभ बच्चन की आवाज़ में था। बाद में लता मंगेशकर जी ने भी अटल जी की कविताओं को अपना स्वर दिया। मुझे जगजीत जी से ज्यादा लता की आवाज़ में अटल जी की कविताओं को सुनना पसंद है। तो आइए आज आपको सुनाएँ लता जी की आवाज़ में उनकी कविता क्या खोया क्या पाया जग में..
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
जन्म-मरण का अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
संवाद की जो गरिमा अटल जी की खासियत थी वो आज के माहौल में छिन्न भिन्न हो चुकी है। अटल जी को सच्ची श्रद्धांजलि तो यही होगी कि नेता उनकी तरह व्यक्तिगत आक्षेप लगाए बिना वाकपटुता और हास्य के पुट के साथ बहस करना सीख सकें।
सदन और उसके बाहर दिए गए उनके भाषण, उनके व्यक्तित्व का चुटीलापन और उनकी ओजपूर्ण वाणी में पढ़ी उनकी कविताएँ व्यक्तिगत रूप से हमेशा मेरी स्मृतियों का हिस्सा रहेंगी..शायद आपकी भी रहें। चलते चलते उनके इस जज्बे को सलाम..
मैं जी भर कर जिया, मैं मन से मरूँ
लौटकर आऊँगा कूच से क्यूँ डरूँ
6 टिप्पणियाँ:
वाह!
धन्यवाद !
जब अटल जी सदन को सम्बोधित कर रहे होते थे, तब क्या पक्ष और क्या विपक्ष, सभी शान्तिपूर्वक सुनते थे। वैसी नपी-तुली साहित्यिक भाषा और ओज से भरा व्यक्तित्व आजकल के नेताओं में क्या ही मिलेगा।
अब तो संसद मछली बाज़ार बना रहता है।
कुण्डली के माध्यम से अपनी बात कहने वाली घटना रोचक लगी। लता जी की आवाज़ में अटल जी की कविता के तो ख़ैर क्या ही कहने..!
साझा करने के लिए धन्यवाद मनीष जी!
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
बिल्कुल सही कहा विवेक मिश्र आपने अटल जी के बारे में ! ये संस्मरण और गीत आपको रुचिकर लगा जानकर प्रसन्नता हुई।
हार्दिक आभार हर्षवर्धन !
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