शुक्रवार, नवंबर 16, 2018

साँस लेती हुई आँखों को ज़रा सोने दो ..जब पहली बार फिल्मों में मिला जगजीत को गुलज़ार का साथ

जगजीत सिंह के संगीत निर्देशन में कई गीत ऐसे बने जिसमें गायक के तौर पर जगजीत सिंह ने अपनी और चित्रा जी की आवाज़ का इस्तेमाल नहीं किया। सुरेश वाडकर, भूपेन हजारिका, विनोद सहगल, घनशाम वासवानी से लेकर शोभा गुर्टू और आशा भोसले जैसे पार्श्व गायक उनके गीतों की आवाज़ बने। इनमें कुछ गीत ऐसे हैं जो फिल्मों के ना चलने की वज़ह से अनमोल मोती की तरह सागर की गहराइयों  में डूबे रहे।



ऐसा ही एक गीत आपके लिए लाया हूँ फिल्म सितम का जो 1984 में रिलीज़ हुई थी। इस गीत को लिखने वाले कोई और नहीं बल्कि हम सब के प्रिय गीतकार गुलज़ार थे। जगजीत और गुलज़ार ने जब भी साथ काम किया नतीजा शानदार ही रहा है। आप उनके साझा एलबम "मरासिम" या "कोई बात चले" को सुनें या फिर मिर्जा गालिब धारावाहिक जिसे गुलज़ार ने निर्देशित किया था, उसमें जगजीत का काम देखें। ग़ज़ब की केमिस्ट्री थी इनके बीच। सच तो ये है कि  नब्बे के दशक में जगजीत फिल्म संगीत के पटल से गायब हुए पर   2002 में लीला में गुलज़ार के लिखे गीतों में अपने संगीत से फिर जान फूँकने में सफल हुए।

आपको जानकर ताज्जुब होगा कि जब मुंबई  में जगजीत फिल्मों में पार्श्व गायक बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो संगीत के मर्मज्ञ समझे जाने वाले ओम सेगान ने जगजीत की मुलाकात गुलज़ार से कराई थी और उनकी गुलज़ार से अपेक्षा थी कि शायद वे जगजीत को फिल्मों में काम दिलवा सकते हैं। तब गुलज़ार ख़ुद बतौर गीतकार अपनी जड़े ज़माने में लगे थे। वे जगजीत की आवाज़ से प्रभावित तो थे पर उनके मन में जरूर कहीं ना कहीं ये बात थी कि उनकी आवाज़ फिल्मों के लिए नहीं बनी और इसलिए उन्होंने जगजीत के लिए तब किसी से सिफारिश भी नहीं की़। बाद में इन दोनों महारथियों ने साथ काम किया और क्या खूब किया।


फिल्म सितम का ये गीत जितना जगजीत का है उतना ही आशा जी और गुलज़ार का भी। मैंने सितम नहीं देखी थी पर इस गीत पर लिखने के पहले उसे देखना जरूरी समझा। अपने समय से आगे की कहानी थी सितम की, फुटबाल के खिलाड़ियों से जुड़ी हुई। एक मैच के दौरान गोल किक बचाते हुए सिर पर चोट लगने से गोलकीपर की मौत हो जाती है और उसकी पत्नी गहन शोक में गोल किक लगाने वाले को इतना भला बुरा कहती है कि वो अपने आप को पूरी तरह अपराधी मान कर गहरे अवसाद में चला जाता है। स्थिति तब जटिल हो जाती है जब डाक्टर मृतक खिलाड़ी की पत्नी से ही अनुरोध करते हैं कि वो उसे समझाये कि गलती उसकी नहीं थी। उनका मानना  है कि  नायिका की कोशिश से ही वो ग्लानि मुक्त होकर सामान्य ज़िंदगी में लौट सकता है।

पति की मौत से आहत एक स्त्री के लिए उसकी मौत का कारण बने मरीज को मानसिक रूप से उबारने का कार्य सोचकर ही कितना कष्टकर लगता  है। नायिका फिर भी वो करती है जो डाक्टर कहते हैं क्यूँकि उसे भी अहसास है कि मरीज की इस हालत के लिए वो भी कुछ हद तक जिम्मेदार है। 

गुलज़ार ने मरीज को सुलाती नायिका के जीवन के नैराश्य को गीत के बोलों में व्यक्त करने की कोशिश की है।  गीत में आँखों के बुझ जाने से उनका तात्पर्य किसी के जीवन से अनायास निकल जाने से है। उसके बाद भी तो ज़िंदगी जीनी पड़ती ही है वो कहाँ बुझती है? उसका तो कोई ठिकाना भी नहीं कब किस करवट बैठे? कब कैसी कठिन परीक्षा ले ले? अब देखिए ना जिस शख़्स के कारण पति दूसरी दुनिया का वासी हो गया उसी की तीमारदारी का दायित्व वहन करना है नायिका को अपने ख़्वाबों की चिता पर।

इसीलिए गुलज़ार लिखते हैं..आँखे बुझ जाती हैं ये देखा है, ज़िंदगी रुकती नहीं बुझती नहीं..  ख्वाब चुभते हैं बहुत आँखों में,नींद जागो तो कभी चुभती नहीं।।।डर सा रहता है ज़िंदगी का सदा, क्या पता कब कहाँ से वार करे,आँसू ठहरे हैं आ के आँखों में नींद से कह दो इंतज़ार करे

मुखड़े और अंतरे  में गुलज़ार के गहरे बोलों के पीछे जगजीत जी का शांत संगीत बहता है और इंटरल्यूड्स में फिर उभर कर आता है। आशा जी की आवाज़ गीत के दर्द को आत्मसात किए सी चलती है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को जो कि फिल्म में स्मिता पाटिल और विक्रम पर फिल्माया गया है



सारा दिन जागे तो बेजान सी हो जाती हैं
साँस लेती हुई आँखों को ज़रा सोने दो 

साँस लेती हुई आँखें अक्सर
बोलती रहती है गूँगी बातें
सारा दिन चुनती हूँ सूखे पत्ते
रात भर काटी है सूखी रातें

आँखे बुझ जाती हैं ये देखा है
ज़िंदगी रुकती नहीं बुझती नहीं
ख्वाब चुभते हैं बहुत आँखों में
नींद जागो तो कभी चुभती नहीं

डर सा रहता है ज़िंदगी का सदा
क्या पता कब कहाँ से वार करे
आँसू ठहरे हैं आ के आँखों में
नींद से कह दो इंतज़ार करे

बतौर संगीतकार जगजीत सिंह का फिल्मी सफ़र

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15 टिप्पणियाँ:

Unknown on नवंबर 16, 2018 ने कहा…

आपकी पोस्ट और स्मिता पाटिल की मौजूदगी बता रही हे की ये फिल्म अच्छी होगी, पर कभी कभी कहानी और संगीत अच्छा होने के बावजूद ऐसी फिल्मे दर्शको के दिल तक नहीं पहुँचती..
आपने फिर एक बार एक बेहतरीन गाने से हमारा परिचय करवाया..... पता नहीं कैसे इतनी गहराई में छुपे हुए मोती भी आप ढूंढ निकालते हे..

Manish Kaushal on नवंबर 16, 2018 ने कहा…

इस फ़िल्म का नाम पहली बार सुना हूँ। कहानी बड़ी अलग सी लग रही है। फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक का नाम जानना चाहूँगा।

Manish Kumar on नवंबर 16, 2018 ने कहा…

फिल्म के पोस्टर में यह नाम थे। फिल्म का निर्माण किया था अभिनेता विक्रम ने जो आपको गीत में भी दिखाई दे रहे हैं और इस फिल्म के निर्देशक द्वय थे अरूणा एवं विकास देसाई।

Radhe Mundhra on नवंबर 16, 2018 ने कहा…

वाकई शानदार

Manish Kumar on नवंबर 16, 2018 ने कहा…

धन्यवाद !

Sumit on नवंबर 17, 2018 ने कहा…

बहुत खूबसूरत बोल! संगीत साधारण ही लगा. फ़िल्म की कहानी काफी अलग सी लग रही हैं. गाने से भी ज्यादा. शायद विक्रम के नसीर से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका करने की ख्वाइश इस फ़िल्म की कमजोरी रही होंगी.

Sanjay Buaria on नवंबर 17, 2018 ने कहा…

Thanks for such an extra ordinary post

B. Rama on नवंबर 17, 2018 ने कहा…

बहुत बढिय़ा

Shashank Sharma on नवंबर 20, 2018 ने कहा…

bahut shandar

Manish Kumar on नवंबर 20, 2018 ने कहा…

स्वाति आज कल फिल्मों को शूट करने वाले कैमरे इतने आधुनिक हो गए हैं कि इन पुरानी फिल्मों के तकनीकी पक्ष को देख के लगता है कि हम कितनी तरक्की कर गए हैं। नसीरुद्दिन शाह, विक्रम और स्मिता पाटिल की उपस्थिति, अलग हट के लिखा कथानक और ये गीत फिल्म के कुछ अच्छे बिंदु थे पर कुल मिलाकर इसे औसत दर्जे की फिल्म ही माना जाएगा। इस श्रंखला पर काम करते हुए मेरे लिए हुए भी ये गीत सागर में डूबे अनमोल मोती की तरह ही सामने आया। जगजीत के लिए गुलज़ार के गीत के लिए संगीत रचना एक चुनौती रही होगी। गीत आपको भी श्रवणीय लगा जानकर खुशी हुई

Manish Kumar on नवंबर 20, 2018 ने कहा…

सुमित जहाँ बोल इतने अर्थपूर्ण संगीत का काम उसके पीछे चलना ही होता है़। वैसे इंटरल्यूड्स और गीत की लय मुझे पसंद आई। हाँ फिल्म में नसीर का किरदार अपेक्षाकृत छोटा है।

Manish Kumar on नवंबर 20, 2018 ने कहा…

शशांक, संजय व रमा पोस्ट पसंद करने के लिए शुक्रिया!

हर्षवर्धन हार्दिक आभार

मन्टू कुमार on नवंबर 22, 2018 ने कहा…

ऐसे नगीने आप ही चुनकर ला सकते हैं। आभार

भूले-भटके आ जाता हूँ यहाँ, हरबार कुछ अलग पाता ही हूँ।
सर्दी के शुरू होते ही जब तेज़ सर्दी पड़ती है तब आपकी गीतों की रैंकिंग भी याद आती है। :)
रैंकिंग को लेकर क्या तैयारी चल रही है ?

Manish Kumar on नवंबर 23, 2018 ने कहा…

मंटू हाँ बहुत दिनों बाद उपस्थिति दी तुमने। लगता है पढ़ाई लिखाई लगता है जोरों पर है। इस साल के गाने सुने जा रहे हैं फिलहाल बिना रैंकिंग पर विचार किए।

मन्टू कुमार on नवंबर 23, 2018 ने कहा…

हाँ, किताबी ज्ञान के लिए,आने वाले यही दो साल है बस इसलिए :)

पर इतना टाइम निकालेंगे कि इस बार सुर से सुर मिले और इस सर्दी वाली ज़िंदगी को सफ़ल बना ले...हाहाहा

येशुदास जी को भूल गया था मैं, पिछले दिनों ही याद आएं है :)

 

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