जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
श्याम बेनेगल नब्बे साल की आयु में हम सबका साथ छोड़कर चल दिए। वैसे भी वो काफी दिनों से बीमार थे पर कुछ ही दिन पहले उनके 90 वें जन्मदिन की हंसती मुस्कुराती तस्वीरें देख कर लगा था कि उनकी ये जिजीविषा शायद उन्हें और लंबी पारी खेलने का मौका दे।पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। सत्तर के दशक में जब उनकी फिल्में चर्चित हो रही थीं तब हमारी उम्र उनकी आम जन से जुड़ी पटकथाओं को समझ पाने लायक नहीं थी।
बचपन के उन दिनों में माता पिता मुझे अपने साथ पटना के एलफिंस्टन सिनेमा हॉल में श्याम जी की फिल्म अंकुर में ले गए थे। फिल्म की कहानी मुझे कितनी समझ आई होगी पर बाल मन में ये बात गहरे पैठ गई थी एक सीधे सादे परिवार के साथ जमींदार पुत्र जरूर बेहद बुरा कर रहा है। उस परिवार का दुख मुझे इतना दुखी कर गया कि सिनेमा हाल में मैं लोगों के चुप कराने की कोशिशों के बावजूद पांच दस मिनट तक फफक फफक कर रोता रहा था।
जब अस्सी के दशक में घर में टीवी आया तो श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित यात्रा, भारत एक खोज जैसे कई धारावाहिक देखने का मौका मिला और उनकी प्रतिभा को जानने समझने का अवसर भी। यूं तो श्याम बेनेगल साहब ने कई फिल्में बनाई पर मुझे उनकी निर्देशित फिल्मों में जो सबसे प्यारी फिल्म लगती है वो थी जुनून। आज तक फिल्म में शशि कपूर का वो किरदार मुझे भूलता नहीं जो एक ओर तो सिपाही विद्रोह के दौरान अंग्रेजों से दुश्मनी मोल लेता है तो दूसरी ओर अपने द्वारा बंधक बनाई एक अंग्रेज लड़की को दिल दे बैठता है। शशि कपूर के चरित्र के इस विरोधाभास को कितनी खूबसूरती से पकड़ा था श्याम बेनेगल ने। कितने ही दृश्य थे जिनमें नफीसा अली और शशि के बीच सिर्फ आंखों के माध्यम से संवाद चलता रहता था..वो अभी भी मन में रचे बसे हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में शशि किस कातरता से कहते हैं कि बस उसकी एक झलक दिखला दो...वो भुलाए नहीं भूलता।
अस्सी के दशक में जब मुख्यधारा का सिनेमा सामाजिक सरोकारों से दूर घिसे पिटे फार्मूलों का गुलाम बनता जा रहा था तब श्याम बेनेगल और बाद में गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों ने कला फिल्मों द्वारा समानांतर सिनेमा को जो परचम फैलाया उसके लिए सिनेमा प्रेमी दर्शक उनके हमेशा ऋणी रहेंगे।
उनकी फिल्मों के कुछ गाने जो मुझे बेहद प्रिय हैं वो आजआपकी नज़र। पहला गीत है फिल्म सरदारी बेगम का जिसे गाया था आरती अभ्यंकर ने और गीत के बोल थे राह में बिछि हैं पलकें आओ
सूरज का सातवाँ घोड़ा में धर्मवीर भारती जी की कविता को गीत की शक्ल में पेश किया था श्याम बेनेगल जी ने। उस कविता और गीत के बारे में पहले भी यहाँ लिख चुका हूँ। गीत के बोल थे ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं..
और चलते चलते मेरी प्रिय फिल्म जुनून का ये गीत कैसे भूल सकता हूँ जिसके बोल थे घिर आई काली घटा मतवारी.. सावन की आई बहार रे
Junoon meri bhi pasandeeda rahi Hai! Serious subject ke tahat ek khoobsoorat si love story. I was haunted by it for a long time.. And Nafisa Ali was a dream to look at, ethereal and beautiful! Shraddhanjali Benegal Saab ko.
जी बिल्कुल, कितने ही दृश्य थे जिनमें नफीसा और शशि के बीच सिर्फ आंखों के माध्यम से संवाद चलता रहता था..वो अभी भी मन में रचे बसे हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में शशि किस कातरता से कहते हैं कि बस उसकी एक झलक दिखला दो...वो भुलाए नहीं भूलता।
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3 टिप्पणियाँ:
Junoon meri bhi pasandeeda rahi Hai! Serious subject ke tahat ek khoobsoorat si love story. I was haunted by it for a long time.. And Nafisa Ali was a dream to look at, ethereal and beautiful! Shraddhanjali Benegal Saab ko.
जी बिल्कुल, कितने ही दृश्य थे जिनमें नफीसा और शशि के बीच सिर्फ आंखों के माध्यम से संवाद चलता रहता था..वो अभी भी मन में रचे बसे हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में शशि किस कातरता से कहते हैं कि बस उसकी एक झलक दिखला दो...वो भुलाए नहीं भूलता।
सादर श्रद्धांजलि
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