सोमवार, अगस्त 11, 2008

'मोहब्बतों का शायर' क़तील शिफ़ाई भाग -३ : ना कोई खाब हमारे हैं ना ताबीरे हैं, हम तो पानी पे बनाई हुई तसवीरें हैं...

क़तील की शायरी को जितना पढ़ेंगे आप ये महसूस करेंगे कि प्रेम, वियोग, बेवफाई की भावना को जिस शिद्दत से उन्होंने अपनी लेखनी का विषय बनाया है, वैसा गिने चुने शायरों की शायरी में ही नज़र आता है। आज के इस भाग में आपको सुनवाएँगे क़तील की आवाज में उनकी एक खूबसूरत क़ता और ग़ज़ल, उनकी शक्ल-ओ-सूरत के बारे में प्रकाश पंडित की चुटकियाँ और आखिर में प्रेम के वियोग में डूबी उनकी एक ग़ज़ल जिसे अपनी आवाज़ में मैंने आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है।

क्या आप मानते हैं कि प्रेम में डूबकर कोई चमत्कार संभव है? क्या आपने ऍसा महसूस नहीं किया कि प्रेम आपकी सोच को उस मुहाने तक ले जाता है जहाँ दिमाग रूपी नदी में उठती लहरें शिथिल पड़ जाती हैं। शायद ऍसे ही किसी मूड में क़तील कह उठते हैं



बशर1 के रूप में इक दिलरुबा तिलिस्म बने
शफक़2 में धूप मिलाएँ तो उसका जिस्म बने
वो मोजज़ा3 की हद तक पहुँच गया है क़तील
रूप कोई भी लिखूँ उसी का इस्म4 बनें

1.मनुष्य, 2.प्रातः काल या संध्या के समय में आकाश में छाई लाली, 3. चमत्कार, 4.छवि, नाम

अपनी इस रिकार्डिंग में क़तील एक अलहदा अंदाज में जब अपना ये फिलासफिकल शेर पढ़ते हैं तो मन बाग-बाग हो जाता है

ना कोई खाब हमारे हैं ना ताबीरे हैं
हम तो पानी पे बनाई हुई तसवीरें हैं

और जब इस शेर का जिक्र आया है तो इस ग़ज़ल का मकता भी आपसे बाँटता चलूँ

हो ना हो ये कोई सच बोलने वाला है क़तील
जिसके हाथों में कलम पावों में जंजीरे हैं

तो चलिए अब ले चलते हैं आपको एक मुशायरे में जहाँ क़तील अपनी बुलंद आवाज़ ये ग़ज़ल पढ़ रहे हैं और अपने साथियों की वाहा वाही लूट रहे हैं।


ये मोज़जा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे
कि संग तुझ पे गिरे और जख़्म आए मुझे

मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
बरहना शहर में कोई नज़र ना आए मुझे

वो मेरा दोस्त है सारे ज़हाँ को है मालूम
दगा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूं नहीं करता
वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माए मुझे
मैं अपनी जात में नीलाम हो रहा हूँ क़तील
गम-ए-हयात1 से कह दो खरीद लाए मुझे
1. जीवन
इस ग़ज़ल में चंद शेर और हैं जो मुझे बेहद प्यारे हैं। अब यहाँ गौर फरमाइए कितने तरीके से बात रखी है अपनी शायर ने..

मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को
बदन मेरा ही सही, दोपहर ना भाये मुझे

और मेरे मित्र ध्यान रखें :)

वही तो सबसे ज्यादा है नुक़्ताचीं मेरा
जो मुस्कुरा के हमेशा गले लगाए मुझे

ये मुशायरा तो संभवतः नब्बे के दशक के उत्तरार्ध का है। क़तील के बारे में इतना पढ़ने के बाद म पाठकों में सहज उत्सुकता जाग उठी होगी कि 'मोहब्बतों का ये शायर ' अपनी जवानी में कैसा दिखता होगा ? मेरे पास युवा क़तील की कोई तसवीर तो नहीं पर प्रकाश पंडित का ये शब्द चित्र, जरूर उनकी शक्ल-ओ-सूरत का खाका आपके ज़ेहन में खींचने में सफल होगा, ऍसा मुझे यकीं है। प्रकाश पंडित साहब बड़े ही मज़ाहिया लहजे में युवा क़तील के बारे में लिखते हैं...

".....क़तील’ शिफ़ाई जाति का पठान है और एक समय तक गेंद-बल्ले, रैकट, लुंगियाँ और कुल्ले बेचता रहा है, चुँगीख़ाने में मुहर्रिरी और बस-कम्पनियों में बुकिंग-क्लर्की करता रहा है तो उसके शे’रों के लोच-लचक को देखकर आप अवश्य कुछ देर के लिए सोचने पर विवश हो जाएँगे। इस पर यदि कभी आपको उसे देखने का अवसर मिल जाए और आपको पहले से मालूम न हो कि वह ‘क़तील’ शिफ़ाई है, तो आज भी आपको वह शायर की अपेक्षा एक ऐसा क्लर्क नज़र आएगा जिसकी सौ सवा सौ की तनख्वाह के पीछे आधे दर्जन बच्चे जीने का सहारा ढूँढ़ रहे हों। उसका क़द मौज़ूँ है, नैन-नक़्श मौज़ूँ हैं। बाल काले और घुँघराले हैं। गोल चेहरे पर तीखी मूँछें और चमकीली आँखें हैं और वह हमेशा ‘टाई’ या ‘बो’ लगाने का आदी। फिर भी न जाने क्यों पहली नज़र में वह ऐसा ठेठ पंजाबी नज़र आता है जो अभी-अभी लस्सी के कुहनी-भर लम्बे दो गिलास पीकर डकार लेने के बारे में सोच रहा हो।
पहली नज़र में वह जो भी नज़र आता हो, दो-चार नज़रों या मुलाक़ातों के बाद बड़ी सुन्दर वास्तविकता खुलती है-कि वह डकार लेने के बारे में नहीं, अपनी किसी प्रेमिका के बारे में सोच रहा होता है-उस प्रेमिका के बारे में जो उसे विरह की आग में जलता छोड़ गई, या उस प्रेमिका के बारे में जिसे इन दिनों वह पूजा की सीमा तक प्रेम करता है। ......."

ऊपर की बातों को समझने के लिए मुझे कुछ और कहने की जरूरत नहीं बस इस ग़जल को एक बार पढ़ लें,

मेरी जिंदगी, तू फिराक़ है ,वो अज़ल से दिल में मकीं सही
वो निगाह-ए-शौक से दूर हैं ,रग-ए-जां1 से लाख क़रीं सही

1शरीर की मुख्य रक्तवाहिनी

हमें जान देनी है एक दिन, वो किसी तरह वो कहीं सही
हमें आप खींचिए वार पर, जो नहीं कोई तो हमीं सही


सर-ए-तूर सार-ए-हश्र हो, हमें इंतज़ार क़बूल है
वो कभी मिलें वो कहीं मिलें, वो कभी सही, वो कहीं सही


ना हो उन पे मेरा बस नहीं, कि ये आशिकी है हवस नहीं
मैं उन्हीं का था, मैं उन्हीं का हूँ, वो मेरे नहीं, तो नहीं सही


मुझे बैठने की जगह मिले, मेरी आरजू का भरम रहे
तेरी अंजुमन में अगर नहीं , तेरी अंजुमन के करीं सही

तेरा दर तो हमको ना मिल सका, तेरी रहगुजर की जमीं सही
हमें सज़दा करने से काम है जो वहाँ नहीं तो यहीं सही

उसे देखने की जो लौ लगी तो क़तील देख ही लेंगे हम
वो हज़ार आँख से दूर हो, वो हज़ार पर्दानशीं सही

मैंने क़तील साहब की आवाज़ में ये ग़ज़ल खोजने की कोशिश की पर नहीं मिली तो अपनी आवाज़ में इसे पढ़ने की कोशिश की है। इस ग़ज़ल को पढ़ते वक़्त मुझे एक अलग तरह का प्रवाह और जुनूं का एहसास हुआ इसलिए ये अंदाजा लगा सकता हूँ कि इसे लिखने वाला अपनी मोहब्बत में किस क़दर जुनूनी रहा होगा।

तो जनाब इस ग़ज़ल में आपको डूबता छोड़ इस भाग का यहीं समापन करता हूँ। इस श्रृंखला की अगली कड़ी में क़तील की ग़जलों के आलावा पहली बार सुनेंगे उनकी आवाज़ में उनका लिखा एक बहुचर्चित गीत....

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ
मोहब्बतों का शायर क़तील शिफ़ाई : भाग:१, भाग: २, भाग: ३, भाग: ४, भाग: ५


अगर आपकों कलम के इन सिपाहियों के बारे में पढ़ना पसंद है तो आपको इन प्रविष्टियों को पढ़ना भी रुचिकर लगेगा
  1. क़तील शिफ़ाई भाग:१, भाग: २, भाग: ३
  2. मज़ाज लखनवी भाग:१, भाग: २
  3. फैज़ अहमद फ़ैज भाग:१, भाग: २, भाग: ३
  4. परवीन शाकिर भाग:१, भाग: २
  5. सुदर्शन फ़ाकिर

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपने भी अंदाजे बयानी सीख ली है हजूर....एक बड़ा सा शुक्रिया......इस खूबसूरत पोस्ट के लिये..

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  2. प्रस्तुत करने का आभार. आनन्द आ गया.बहुत आभार.

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  3. बशर के रूप में इक दिलरुबा तिलिस्म बने
    शफक़ में धूप मिलाएँ तो उसका जिस्म बने
    वो मोजज़ा की हद तक पहुँच गया है क़तील
    रूप कोई भी लिखूँ उसी का इस्म बनें
    waah

    वो मेरा दोस्त है सारे ज़हाँ को है मालूम
    दगा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे

    jagjit singh ki awaz me suni gazal ka ye sher shuru se hi bahut achchha lagta hai mujhe

    सर-ए-तूर सार-ए-हश्र हो, हमें इंतज़ार क़बूल है
    वो कभी मिलें वो कहीं मिलें, वो कभी सही, वो कहीं सही

    ना हो उन पे मेरा बस नहीं, कि ये आशिकी है हवस नहीं
    मैं उन्हीं का था, मैं उन्हीं का हूँ, वो मेरे नहीं, तो नहीं सही

    kyu baat hai... bahut bahut bahut achche bhav

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  4. वो मेरा दोस्त है सारे ज़हाँ को है मालूम
    दगा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे

    वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूं नहीं करता
    वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माए मुझे

    वाह

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  5. ये मोज़जा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे
    कि संग तुझ पे गिरे और जख़्म आए मुझे

    यह गजल मेरी प्रिय गजलों में से एक है ..और आपके ब्याने अंदाज़ कबीले तारीफ बाँध लेता है यह अपने साथ ,और गजले सुनने का मजा दुगना हो जाता है

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  6. मनीश भाई:
    बहुत बहुत शुक्रिया , इस लेख के लिये । मेरे पास कतील साहब की खुद उनकी आवाज़ में और भी गज़लें है । खुशी होगी मुजे उन्हें बांट के ।

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  7. शुक्रिया आप सब का टिप्पणी के लिए !
    अनूप जी पाँचों कड़ियों में क़तील के जो रिकार्डिंग मेरे पास उपलब्ध थी वो आपने देखा होगा। इसके आलावा अगर आपके पास जो भी हो वो आगर आप मेरी मेल पर भेजेंगे तो मुझे खुशी होगी।

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