पहले जब भी कोई नयी पुस्तक पढ़ता था इस ब्लॉग पर उसकी विस्तृत चर्चा किया करता था। विगत कुछ सालों में ये काम बड़ा श्रमसाध्य लगने लगा था। नतीजा ये हुआ इधर जितनी भी किताबें पढ़ीं, (जिनमें कुछ मित्रों की भी किताबें थीं) उनका जिक्र ना कर सका। कल जब निठल्ले की डायरी को खत्म किया तो लगा कि अगर इसके बारे में भी नहीं लिखा तो बंधु बांधव कहीं मुझे ही निठल्ला ना घोषित कर दें इसीलिए इस आदत को बनाए रखने की फिर से कोशिश कर रहा हूँ।
व्यंग्य की ज्यादा किताबें तो नहीं पढीं पर जब भी इस विधा की बात होती है तो मुझे उर्दू की आखिरी किताब की याद आ जाती है। इब्ने इंशा की लिखी इस किताब को पढ़कर मुझे बेहद आनंद आया था। उसके पहले परसाई जी की ही सदाचार का तावीज़ खरीद कर रखी थी पर थोड़ा पढ़ कर वह रखी ही रह गई।
इसीलिए जब हरिशंकर परसाई जी की बेहद चर्चित पुस्तक निठल्ले की डायरी को पढ़ा तो बहुत कुछ इंशा के व्यंग्य बाणों का तीखा अंदाज़ याद आ गया। वैसे भी भारत और पाकिस्तान के राजनेताओं का मिज़ाज जन जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और दोनों देशों के आर्थिक और सामाजिक मसले मिलते जुलते ही हैं।
अब देखिए परसाई जी ने यह किताब 1968 में लिखी थी पर उस में उठाए गए मसले आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और शायद आगे भी रहें क्योंकि वक्त के साथ ना तो नेताओं और नौकरशाहों का चाल चरित्र बदला है ना देश की जनता का। किताब को पढ़ने से ये लगता है कि दशकों से नेताओं को ये पता है कि जनता को कैसे भरमाना है और जनता तो मूर्ख बनने को तैयार ही बैठी है। नेताओं, धर्मात्माओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, डॉक्टरों, शिक्षकों के साथ साथ परसाई आम जन के आचार व्यवहार को भी अपने व्यंग्य का निशाना बनाने से नहीं चूकते।
राजकमल से प्रकाशित 140 पन्ने की इस किताब में अलग-अलग विषयों पर लिखे 25 चुटीले और धारदार व्यंग्यों का समावेश है। पूरी किताब पढ़ने के लिए दो या तीन सिटिंग पर्याप्त है। इसके दो कारण हैं। पहला ये कि लेखक की भाषा ऐसी है जो आम व्यक्ति के दिमाग पर बोझ नहीं बनती और दूसरा कि उनके द्वारा चुने गए रुचिकर प्रसंग पाठक को अपने आसपास की जिंदगी में सहज ही मिल जाते हैं और इसी वजह से विषय वस्तु से तारतम्य बैठाना आसान हो जाता है।
मिसाल के तौर पर कुछ बानगी देखिए। भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध की स्थिति पर देखिए परसाई जी क्या तड़का लगा रहे हैं
डॉक्टर साहब बोले पहले रिसर्च का अर्थ समझ लो इसका अर्थ है फिर से खोजना यानी जो पहले ही खोजा जा चुका है उसे फिर से खोजना रिसर्च कहलाता है। जो हमारे ग्रंथों में है उसे तुम्हें फिर से खोजना है। भारत के विश्वविद्यालयों में जो प्रोफ़ेसर आज हमारे विरोधी हैं उनके ग्रंथों और निष्कर्षों को तुम्हें नहीं देखना है क्योंकि तब तुम्हारा काम रिसर्च ना होकर सर्च हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि विश्वविद्यालय ज्ञान का विशाल कुंड है। इसमें जितना ज्ञान भर सकता है उतना भरा हुआ है। लबालब भरा है यह कुंड। इसमें अगर बाहर से और ज्ञान लाकर भरा जाएगा तो यह कुंड फूट जाएगा। तुम जानते हो घासा बांध टूटने से दिल्ली के आसपास कितना विनाश हुआ था। हर अध्यापक और हर छात्र का यह कर्तव्य है कि इस कुंड में बाहर से ज्ञान जल न जाने दे वरना बांध टूटेगा और विनाश फैले का ऐसे हर छेद पर उंगली रखे रहो जहां से ज्ञान भीतर घुस रहा हो।
आजकल रोज़ सच्चा देश प्रेम क्या है, इस पर बहस चलती रहती है। परसाई जी की एक कथा में जिक्र है कि कैसे एक व्यक्ति के मन में देश सेवा करने की ललक जागी और उसने अपने शहर के दो व्यापारियों के खिलाफ सुबूत के आधार पर कालाबाजारी करने का आरोप लगाया। नतीजा क्या हुआ। देख लीजिए
मैंने कहा जनाब यह बात झूठ है 500 वाले ने तो स्टॉक यहां वहां कर दिया है पर 5000 वाले का गोदाम भरा है। आप अभी चलकर जब्त कर सकते हैं। साहब ने कहा - "जब कुछ है ही नहीं तो जब्त क्या किया जाएगा"? मुझे तो राजधानी से भी खबर मिली है कि उसके पास कुछ नहीं है। यहां खबर जब राजधानी से आती है तब वही सच होती है। हमारी सब खबरें उससे कट जाती हैं। राजधानी की एक आंख हमारी लाख आंखों से तेज होती है। जब वह खुलती है हमारी चौंधियां जाती हैं।😁😁अगले ही दिन मेरे पीछे सरकार की गुप्तचर विभाग का आदमी लग गया। मैं उसे पहचानता था। पूछा भाई मेरे पीछे क्यों वक्त बर्बाद कर रहे हो? उसने कहा आप पर नज़र रखने का हुक्म हुआ है। मैंने पूछा मगर मैंने ऐसा किया क्या ? उसने जवाब दिया सरकार को खबर मिली है कि आप राष्ट्र विरोधी काम करते हैं। मेरे मुंह से निकला राष्ट्र विरोधी! तो क्या वे लोग ही राष्ट्र हैं?
हम सबको अपनी प्राचीन संस्कृति पर गर्व है उसकी अपनी उपलब्धियों पर अभिमान है पर अगर हम उसी की दुहाई देकर नित्य हो रहे नए अनुसंधान पर आंखें मूंद लें तो क्या वह सही होगा? परसाई कुछ लोगों की ऐसी ही सोच पर व्यंग्य बाण चलाते हुए लिखते हैं
जो लोग टैंक भेदी तोपों की तारीफ करते हैं, वे भूल जाते हैं कि टैंक तो आज बने हैं, पर टैंक भेदी तोपें हमारे यहां त्रेता युग में बनती थीं। भाइयों, कल्पना कीजिए उस दृश्य की। राम सुग्रीव से कह रहे हैं कि मैं बालि को मारूंगा। सुग्रीव संदेह प्रकट करता है। कहता है बालि महाबलशाली है। मुझे विश्वास नहीं होता कि आप उसे मार सकेंगे। तब क्या होता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम धनुष उठाते हैं। बाण का संधान करते हैं और ताड़ के वृक्षों की एक कतार पर छोड़ देते हैं। बाण एक के बाद एक साथ ताड़ों को छेद कर निकल जाता है। सुग्रीव चकित है। वन के पशु-पक्षी खग-मृग और लता-वल्लरी चकित हैं। सज्जनों जो एक बाण से 7 ताड़ छेद डालते थे उनके पास मोटे से मोटे टैंक को छेड़ने की तोप क्या नहीं होगी? भूलिए मत हम विश्व के गुरु रहे और कोई हमें कुछ नहीं सिखा सकता।😀
जैसा कि व्यंग्य से जुड़ी किताबों में होता है परसाई जी के सारे आलेख एक जैसे मारक नहीं है। पर छः सात आलेखों को छोड़ दें तो बाकी में वे अपनी बात तरीके से कहने में सफल रहे हैं। कुल मिलाकर मैं तो यही कहूँगा कि ये किताब आप सबको पढ़नी चाहिए अगर ना पढ़ी हो। वैसे इस ब्लॉग पर मेरे द्वारा पढ़ी अन्य पुस्तकों का मेरी रेटिंग के साथ सिलेसिलेवार जिक्र यहाँ पर।
निठल्ले की डायरी : ***
Superb👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙂
हटाएंGreat Professor San
जवाब देंहटाएंThanks Ramjitu San 🙂
हटाएंअगर व्यंग की बात करें तो मुझे लगता है हरिशंकर परसाई जी से ज्यादा बेहतर व्यंग कोई नहीं लिख सकता। उनकी भाषा सरल और रोचक होती है यही उनकी खूबी है।
जवाब देंहटाएंSwati Gupta मैंने व्यंग्य विधा की ज्यादा पुस्तकें तो नहीं पढ़ी हैं पर ये तो सही है कि भारत के व्यंग्य लेखकों में निसंदेह परसाई जी का नाम ऊपर की पंक्ति में ही लिया जाता है।
हटाएंबहुत दिनों से इस किताब को पढ़ने की ख्वाहिश है। आपने फिर एक कसक जगा दी है। अभी 2 किताबें चल रही हैं। ख़त्म होते ही यही पढ़ी जाएगी। किताबों पर चर्चा करना बहुत ज़रूरी है। इससे बाकी लोगों को भी पढ़ने के अधूरे काम स्मरण ही जाते हैं। शुक्रिया
जवाब देंहटाएंइस किताब को तो हाल ही में खरीदा पर इसकी वज़ह से सालों से घर में रखी हुई सदाचार का तावीज़ भी उठा ली है और आज वो भी खत्म हो जाएगी 🙂।
हटाएंहमारे वाचनालय में परसाई जी की अनेक पुस्तकें मिल जायेगी । परसाई जी हमारे पड़ोस के जिले नर्मदापुरम के ही रहने वाले थे ।
जवाब देंहटाएंमोहन जी जानकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंThank you ❤️❤️
जवाब देंहटाएंGood