बुधवार, नवंबर 16, 2022

क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा Qissa Qissa Lucknowa

क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा राजकमल द्वारा प्रकाशित एक ऐसी किताब हैं जो छोटे छोटे चुटीले क़िस्सों के माध्यम से से लखनऊ की तहज़ीब और संस्कृति के दर्शन कराती है। अगर आपका संबंध किसी भी तरह से लखनऊ शहर से रहा है या आप उर्दू जुबां की मुलायमियत के शैदाई हैं तो एक बार ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए आपको। हिमांशु ने बड़ी मेहनत से लखनऊ के आवामी किस्से छांटें हैं इस किताब में। हिमांशु खुद भी एक बेहतरीन किस्सागो हैं और वो इन कथाओं को अपनी आवाज में जनता के सामने एक विशिष्ट अंदाज़ में अपने कार्यक्रमों में सुनाते भी रहे हैं। हालांकि मुझे अब तक उन्हें आमने-सामने सुनने का मौका नहीं मिल सका है। इस किताब की प्रस्तावना में हिमांशु लिखते हैं

ये क़िस्सागोई की किताब है। ये मेरे क़िस्से नहीं हैं, मेरे शहर के हैं। मैं फ़क़त क़िस्सागो हूँ। इन्हें सुनाने वाला। ज़बानी रिवायत में क़िस्सा सुनाने के अन्दाज़ को बड़ी अहमियत हासिल है। ये अन्दाज़ ही है जो पुराने क़िस्से को भी नई शान और दिलकशी अता करता है। क्योंकि ये अन्दाज़ हर सुनाने वाले का ‘अपना’ होता है। हो सकता है बहुत से लोगों ने ये क़िस्से पहले सुन रखे हों मगर मैं इन क़िस्सों को अपने अन्दाज़ में सुनाना चाहता था। अपने समय के लोगों को। ख़ासकर उन लोगों को, जिन्होंने ये क़िस्से पहले कभी नहीं सुने। ये उस लखनऊ के क़िस्से हैं जहाँ मैं पैदा हुआ, पला बढ़ा और रहता हूँ, और मैं इस लखनऊ को अपने अन्दाज़ में सबको दिखाना चाहता हूँ। क्योंकि ये मेरे लोगों के क़िस्से हैं। उन लोगों के, जिनके क़िस्से ‘लखनवी’ ब्रांड के क़िस्सों में अक्सर शामिल नहीं किए जाते। ये ‘लखनवी’ क़िस्से नहीं हैं, ये ‘लखनउवा’ क़िस्से हैं।




तकरीबन पौने दो सौ पन्नों की इस किताब के सारे किस्से एक जैसे नहीं हैं। कुछ तो बेहद दिलचस्प हैं, तो कुछ चलताऊ और कुछ थोड़े नीरस भी। इनमें वहां के लोगों की नफ़ासत, हाजिर जवाबी, फ़िक़राकशी, अन्दाज़ ए गुफ़्तगू और खुद्दारी की दास्तान बिखरी पड़ी हैं जो आपको रह रह कर गुदगुदाएंगी। पर इन सारे क़िस्सों में एक क़िस्सा मुझे अब हमेशा याद रहेगा। ये क़िस्सा कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से जुड़ा है। बात 1938 की है जब लखनऊ में ऑल इंडिया रेडियो का स्टेशन खुला था पर वहां के उर्दू माहौल की वजह से निराला रेडियो में अपना कविता पाठ करने से कतराते थे। उस समय के नामी साहित्यकार पढ़ीस के कहने पर वे रेडियो पर अपना काव्य पाठ करने को तैयार हुए आगे क्या हुआ यह लेखक की जुबान में पढ़िए

रेडियो में विशुद्ध उर्दू पृष्ठभूमि के लोगों की भरमार थी जिनमें से बहुत सारे लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना तो दूर रहा ठीक से हिन्दी बोलना भी नहीं जानते थे। तब रेडियो में शहज़ादे ‘रामचन्दर’ जलवा-अफ़रोज़ होते थे और राजा ‘दुशियंत’ ‘परकट’ होते थे। ‘परदीप’ से ‘परकाश’ मुंतशिर होता था।

निराला जी स्टेशन पर आए। उन्हें काव्य-पाठ करवाने की ज़िम्मेदारी अयाज़ साहब को मिली। निराला जी और अयाज़ साहब स्टूडियो में गए। बाहर ड्यूटी रूम में ड्यूटी ऑफिसर के अलावा स्टेशन डायरेक्टर मो. हसीब साहब ख़ुद बैठे थे। सब रेडियो पर निराला के ऐतिहासिक काव्यपाठ के साक्षी बनना चाहते थे। मगर निराला जी को स्टेशन तक लाने वाले पढ़ीस जी इस एहतमाम से दूर अपने काम में लगे हुए थे। आख़िर अयाज़ साहब की आवाज़ के साथ लाइव प्रसारण शुरू हुआ—अब आप हिन्दी में कविता-पाठ समाअत फ़रमाइए। कवी हैं—इसके बाद कुछ लडख़ड़ाते हुए बोले—“सूरियाकान्ता तिरपाठा निराली” क़ायदे से इसके तुरन्त बाद निराला जी का काव्यपाठ सुनाई देना था पर उसकी जगह सुनाई दी कुछ ‘हुच्च-हुच्च’ की आवाज़ें। और फिर सन्नाटा हो गया। किसी को कुछ समझ नहीं आया। हसीब साहब चिल्लाए—वाट इज़ दिस। ड्यूटी ऑफिसर हड़बड़ाहट में स्टूडियो की तरफ़ भागा। उसने शीशे से झाँककर जो स्टूडियो के अन्दर देखा तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने किसी तरह फिलर बजवाया और भाग के वापस पहुँचा हसीब साहब के पास। बोला—अयाज़ साहब! अयाज़ साहब! हसीब घबराकर स्टूडियो की तरफ़ भागे। झाँककर देखा तो भीमकाय निराला जी ने अयाज़ साहब की गर्दन अपने बाएँ हाथ के तिकोन में दबोच रखी थी। अयाज़ डर के मारे छटपटा भी नहीं पा रहे थे। निराला जी ग़ुस्से में तमतमा रहे थे, आँखें लाल-लाल थीं मगर जानते थे कि स्टूडियो में हैं इसलिए ख़ामोश थे। निराला जी के ग़ुस्से से सब वाक़िफ़ थे इसलिए किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि अयाज़ साहब को रेस्क्यू करवाए। आख़िर पढ़ीस को बुलवाया गया और उन्होंने अनुनय-विनय करके अयाज़ साहब को मुक्त करवाया। अब निराला जी का ग़ुस्सा पढ़ीस पर निकला। अवधी में बोले—तुमसे कहा रहय कि हमका रेडियो-फेडियो ना लयि चलउ। मुलु तुम न मान्यौ। ऊ गदहा हमका तिरपाठा निराली कहिस। पढ़ीस जी ने हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँगी। निराला जी आख़िर शान्त हुए। पढ़ीस से बोले—अब हमका हियाँ से लइ चलौ...और इसके बाद बिना कुछ कहे वहाँ से चले आए।
इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह नवाबी लखनऊ के ज़माने में आम लोगों के किस्सों को पाठक तक पहुंचाती है। किताब में प्रस्तुत किस्से इस बात की पुरज़ोर वकालत करते हैं कि लखनऊ की तहज़ीब के जो चर्चे किताबों में मिलते हैं उनका श्रेय सिर्फ लखनऊ के नवाबों को नहीं जाता बल्कि उसके सच्चे हक़दार वहां के हर वर्ग के लोग थे जिनके आचार व्यवहार ने लखनऊ को वह पहचान दिलाई। यही वजह है कि इस किताब में आप लखनऊ के रिक्शेवालों, नचनियों, गायकों, विक्रेताओं, खानसामों, फकीरों से लेकर नवाबों का जिक्र पाएंगे।
उस समय के माहौल को पढ़ने वाले के मन में बैठाने के लिए लेखक ने खालिस उर्दू का इस्तेमाल किया है जो वाज़िब भी है पर उर्दू के कठिन शब्दों का नीचे अर्थ न दिया जाना इस किताब की सबसे बड़ी कमजोरी है जो शायद आज के युवाओं को इसका पूरा लुत्फ़ उठाने में अवश्य बाधा उत्पन्न करेगी। आशा है कि किताब के अगले संस्करण इस बात पर ध्यान देंगे।


क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा ***

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