जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
जीवन की चुनौतियों से जूझते हुए बहुधा ऐसा होता है कि हम हिम्मत हार जाते हैं। अपने पर से भरोसा उठने लगता है। किसी काम को करने के पहले इतना अगर मगर सोच लेते हैं कि खुले मन से उस कार्य को अच्छे तरीके से कर भी नहीं पाते। नतीजन कई बार असफलता हाथ लगती है जो तनाव को जन्म देती है। ये दुष्चक्र कभी कभी हमें अवसाद की ओर ढकेल देता है।
स्वानंद, श्रेया और कनिष्क सेठ
गीतकार संगीतकार स्वानंद किरकिरे ने रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाली इसी भावना को पकड़ा और एक लोरियों सा मुलायम गीत रच दिया जो सच पूछिए तो एक तरह का आत्मालाप है जिसे शायद ही किसी ने दिल से महसूस नहीं किया होगा। 2024 में जितने भी स्वतंत्र गीत बने उसमें किसी गीत की भी शब्द रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं होगी जितनी इस गीत की है।
ये गीत इस बात की ताकीद करता है कि जब बुरे ख़्यालों से मन परेशान हो जाता है तो हम कल्पना के सागर में भटकते हुए ऋणात्मक सोच के दलदल में धंसते चले जाते हैं। ऐसे में एक ढाढस संजीवनी का काम करता है। पर ये ढाढस हमें अपने अंदर से ही लाना होगा। अपनी काबिलियत पर भरोसा करना होगा। उदासियों के जाल से मुक्त होने के लिए अपना दुलार खुद करना होगा।
स्वानंद को पता था कि उन्होंने एक व्यक्ति की मनोभावना को इस गीत में बड़ी बारीकी से पकड़ा है। अब उन्हें तलाश थी एक ऐसी आवाज़ की जो इस गीत को इसके उचित मुकाम तक ले जाए। इसके लिए उनके मन में एक ही आवाज़ थी और वो आवाज़ थी श्रेया घोषाल की। श्रेया ने जब इस गीत के लिए हां कि तो स्वानंद की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। श्रेया के आने से गीत निखरा भी उसी अंदाज़ में।
मन को शांत करती धुन, काव्यात्मक बोल और श्रेया का दिव्य स्वर एक ऐसा मिश्रण था जो किसी को भी मुग्ध कर दे।
ख़ुद श्रेया घोषाल का कहना था कि
ये गाना ऐसा था कि रिकॉर्डिंग के समय हम इसे गाए जा रहे थे। ये ऐसे बैठ गया था मेरे जेहन में जैसे कि मेरा ही कोई हिस्सा हो। इस गीत का टेम्पो बच्चे को सुनाई जाने वाली लोरियों जैसा है। शूट में आने के पहले कल ही मैंने अपने बच्चे को सुलाते वक़्त ये गाना सुनाया था।
कोक स्टूडियो भारत ने इस गीत में संगीत arrange करने की जिम्मेदारी सौंपी कनिष्क सेठ को जो लोकप्रिय गायिका कविता सेठ के पुत्र हैं। स्वानंद और श्रेया की सलामी जोड़ी ने शुरुआत इतनी अच्छी दे दी थी कि नाममात्र का संगीत भी इस गीत के लिए काफी था। कनिष्क ने इसके लिए तार और ताल वाद्यों के साथ अंत में हल्के हल्के कोरस का सहारा लिया जो गीत में अंतर्निहित सुकून को एक विस्तार देता है।
भीड़ है ख़यालोंकी, इक अकेला मन
नोचती खरोंचती, ये सोच ज़ख्म दे कोई मेरे मन को लगा दे मरहम सो जा रे
खींचता दिशा दिशा, तनाव बेरहम
रे मन तू गुमसुम गुपचुप सो जा रे रे मन तू गुमसुम गुपचुप सो जा रे
ख़यालों से ना डर, कल की छोड़ दे फिक्र ख़यालों से ना डर, कल की छोड़ दे फिक्र आज नींद के अंधेरों में खो जा रे रे मन तू गुमसुम गुपचुप सो जा रे रे मन तू गुमसुम गुपचुप सो जा रे सो जा रे
दिल में जो सहमा सहमा डर है या मलाल है दिल में जो सहमा सहमा डर है या मलाल है सच कहूँ जो भी है वो सिर्फ़ इक ख़याल है तेरे ही तसव्वुरों का खोखला कमाल है मुस्कुरा मुस्कुरा, क्यों दर्द की लड़ियाँ पिरोता रे खोल दे तू इस घड़ी सुकून का झरोखा रे
ख़यालों से ना डर...... सो जा रे
कि पलकों की दो खिड़कियाँ तू हौले बंद कर ले कि धड़कनों की थपकियों से तू ज़रा सँवर ले साँसों की सुन ले लोरी, पलने की जैसे डोरी तू ही साथी तेरा, न खुद से ही तू थोड़ा प्यार और दुलार कर जा रे सो जा रे...
तो आइए सुनें इस गीत को जो आपके अंदर एक विश्वास तो जगाएगा ही पर साथ ही साथ मन को सुकून भरी दुनिया में भी पहुंचा देगा।
वार्षिक संगीतमाला की अगली पेशकश है 2024 में काफी लोकप्रिय रही वेब सीरीज हीरामंडी से। यूं तो हीरामंडी में शामिल तमाम गीत सुनने के काबिल हैं पर इस बार की संगीतमाला में इस धारावाहिक के दो गीतों को सुनने का अवसर आप सबको मिलेगा। सकल बन फूल रही सरसों, आज़ादी और नजरिया की मारी भले ही इस श्रृंखला का हिस्सा न बन पाए हों पर आप उन्हें भी अवश्य सुनें।
ऐसा शायद ही होता है कि किसी वार्षिक संगीतमाला में दो गीत ऐसे हों जिन्हें एक ही परिवार के सदस्यों ने गाया हो। गायकों की इस भीड़ में अगर वो रिश्ता भाई बहन का हो तो और भी अचरज की बात हो जाती है। मैं बात कर रहा हूं गायक पृथ्वी गंधर्व और उनकी बहन कल्पना गंधर्व की। पृथ्वी गंधर्व का गाया हुआ निर्मोहिया इस गीतमाला की बीसवीं पायदान पर आप पहले ही सुन चुके हैं और आज सातवीं सीढ़ी पर उनकी बहन कल्पना हम सबसे सुना रही हैं नेटफ्लिक्स की सीरीज हीरामंडी का ये गीत।
जिस परिवार के उपनाम में गंधर्व का जिक्र हो तो लगने लगता है कि वो संगीत से जुड़ा होगा। कल्पना के नाना वादक थे और उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी के साथ कई फिल्मों में काम किया। दादा ने सारंगी को अपना वाद्य चुना वहीं पिता ने वायलिन पर महारत हासिल की।
पृथ्वी और कल्पना ने बचपन से शास्त्रीय संगीत के साथ ग़ज़ल और उप शास्त्रीय संगीत अपने नाना से सीखा। ये दोनों उज्जैन घराने की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। पृथ्वी को तो मैं बतौर ग़ज़ल गायक मैं पिछले कुछ सालों से सुन रहा हूं पर कल्पना की गायिकी से मैं हीरामंडी के माध्यम से ही परिचित हो सका। हालांकि इसके पहले भी उन्होंने तनु वेड्स मनु रिटर्न और सरबजीत के गाने गाए हैं।
कल्पना गंधर्व
हीरामंडी के लिए गाने का मौका उन्हें अचानक से ही मिला। भंसाली साहब अक्सर नई आवाज़ों को मौका देते रहे हैं। अक्सर उनकी महफिलों में नए कलाकारों को आमंत्रित किया जाता है। वे उनसे कुछ सुनाने की फरमाइश करते हैं और आवाज़ अच्छी लगी तो फिर वहीं उस गायक या गायिका को अपने किसी गीत के लिए चुन भी लेते हैं। कल्पना से भी उन्होंने एक ग़ज़ल गंवाई और ये गीत रिकॉर्ड कर लिया। हालांकि कौन से गीत पर कब संपादन की कैंची चल जाए ये डर कल्पना को भी सता रहा था। साथ ही उनके मन में ये संशय भी था कि क्या इसे नेटफ्लिक्स ठीक से प्रमोट करेगी क्योंकि ओटीटी वाले इस मामले में हमेशा कोताही बरतते पाए गए हैं।
इस गीत को लिखा है ए एम तुराज़ ने जो अक्सर संजय लीला भंसाली की फिल्मों में गीत लिखते पाए जाते हैं। तुझे याद कर लिया है आयत की तरह..., इक दिल है इक जान है..., अब तोहे जाने न दूंगी भंसाली साहब की फिल्मों के लिए लिखे उनके कुछ ऐसे गीत हैं जो मेरे बेहद पसंदीदा रहे हैं।
हीरामंडी का संगीत यूं तो खासा पसंद किया गया पर इक बार देख लीजिए.. के रिलीज़ होने के बाद आलम ये था कि लोगों ने इंस्टाग्राम पर इस गीत को लेकर बेतहाशा रील बनाईं। लड़कियों में तो ये गीत खासा लोकप्रिय हुआ। शायद ही कोई नवोदित गायिका हों जिन्होंने इस गीत की शुरुआती पंक्तियां नहीं गाई। संजय लीला भंसाली की धुन को कल्पना ने अपनी गायिकी से इस मुकाम पर पहुंचा दिया कि तुराज़ का ये गीत सबकी जुबान पर आ गया।
इक बार देख लीजिए
इक बार देख लीजिए
दीवाना बना दीजिए
जलने को हैं तैयार हम
परवाना बना दीजिए
इक बार देख लीजिए
इतनी पिएँ कि जा ना सकें
उठ कर कहीं भी हम
आँखों को अपनी आप एक
मय-ख़ाना बना दीजिए
इक बार देख लीजिए
कुछ भी दिखाई ना दे हमें
सिवा आप के कहीं पे
सारे जहां से आप हमको
बेगाना बना दीजिए
इक बार देख लीजिए....
इस शब्द प्रधान गीत में म्यूजिक अरेंजर राजा पंडित ने सितार और वायलिन जैसे तार वाद्यों के साथ साथ तबले और हारमोनियम का इस्तेमाल किया है। राजा ने इस गीत के पहले अंतरे के बाद वायलिन और दूसरे में सितार और फिर गीत के अंत में हारमोनियम पर बजाए एक टुकड़े से सजाया है।
स्वतंत्र संगीत की ये खासियत होती है कि वो निर्बाध बहता है। एक ख़्याल, जब शब्दों के आंचल से छुपता छुपाता बाहर आकर एक आकार लेता है तो उस पर पटकथा की बंदिश नहीं होती, उसके पीछे होती है तो सृजन करने वाले की सोच। इस सोच को एक प्यारे गीत की शक्ल लेने के लिए पार करनी होती है एक सुरीली धुन रूपी पगडंडी।
वार्षिक संगीतमाला की अगली सीढ़ी पर एक सहज पर प्यारा सा गीत मेरी जान.. एक ऐसा ही स्वतंत्र नग्मा है जो गीतकार संगीतकार गायक स्वानंद और उनके युवा पर बेहद सुरीली सहगायिका हंसिका पारीक, गिटारिस्ट श्रेय गुप्ता, भरत और तार वाद्यों पर अपनी महारत रखने वाले तापस दा के सम्मिलित प्रयासों से इस रूप में आया है।
किसी भी शख़्स के व्यक्तित्व में ढेर सारे रंग होते हैं। उन रंगों में कुछ तो अपने मन के अनुरूप होते हैं तो कुछ ऐसे जिनका होना हमें कचोटता है। पर एक बार जब वो व्यक्ति पसंद आने लगता है तो हम उसके हर पहलू को अपनाने को तैयार हो जाते हैं। यही तो है प्रेम की ताकत! ये गीत बस इसी बात को रेखांकित करता है।
इस गैर फिल्मी गीत को लिखा और इसकी धुन बनाई है स्वानंद किरकिरे ने और इस युगल गीत को उनके साथ आवाज़ दी है नवोदित गायिका हंसिका पारीक ने। नई आवाज़ों में हंसिका मुझे बेहद सुरीली लगती हैं। बतौर गायिका मैं उनके संगीत का पिछले दो तीन सालों से अनुसरण कर रहा हूं। अपनी मीठी आवाज़ के साथ साथ उन्हें शास्त्रीय संगीत की भी अच्छी पकड़ है। अजमेर से ताल्लुक रखने वाली 23 वर्षीय हंसिका संगीत विशारद हैं।
इंडियन आइडल जूनियर से टीवी पर हलचल मचाने के बाद उन्होंने स्वतंत्र संगीत की राह पकड़ी और फिर वो संगीतकार विशाल मिश्रा की नज़र में आईं। फिल्मों में विशाल ने ही उन्हें पहला मौका दिया। इस साल उन्होंने सय्यारा और आज़ाद फिल्म के हिट गीतों में अपना योगदान दिया है। इस संगीतमाला में उनका एकल गीत रतिया पहले ही बज चुका है।
स्वानंद की धुन सुनते ही मन इस गीत को गुनगुनाने का करने लगता है। शब्दों का उनका चयन भी इस गीत के प्रति श्रोताओं के लगाव को बढ़ाता है। ज़री वाली साड़ी की बात तो हम सभी करते हैं पर उस शब्द ज़री के जरिए किसी के स्वभाव का कितना सटीक खाका खींचा है स्वानंद ने.. वैसे नाज़ुक है ज़री सी, चुभती भी है अच्छी खासी। गीत के साथ बजते गिटार की कमान संभाली है श्रेय गुप्ता ने जो स्वानंद के कार्यक्रमों में अक्सर उनके साथ दिखाई पड़ते हैं।
पर गीत के अंतरों के बीच मेंडोलिन पर असली कमाल दिखला गए हैं तापस राय साहब जिनका बजाया संगीत का टुकड़ा मन को आनंदित कर देता है। स्वानंद के शब्दों में ये गीत अपनी कमियों और अच्छाइयों को स्वीकार करने वाला प्रेम गीत है। तो आइए सुनते हैं उनकी और हंसिका के स्वरों में ये युगल गीत
उसकी बातों में खनक है, उसकी आँखों में उदासी
उसके चलने में लचक है, पर वो सहमी है ज़रा सी उसके भीतर एक अगन है,पर वो शीतल है हवा सी वैसे नाज़ुक है ज़री सी, चुभती भी है अच्छी खासी
मेरी जान जान जान, मेरे दिल का ये मकान टूटा फूटा ही सही तू, बन जा इसका मेहमान मेरी जान जान जान, मेरे दिल का ये मकान
दर्द की एक टीस है तू, और है खुशियों की मुनादी ज़ख्म है तू गहरा दिल का, तू ही मरहम भी है साथी यादों वाली ख्वाबों वाली, हर गली क्यों तुझको भाती तू ख़यालों में तो रहता, पर समझ ना तुझको पाती मेरी जान जान जान, मेरे दिल का ये मकान टूटा फूटा ही सही तू, बन जा इसका मेहमान मेरी जान जान जान, मेरे दिल का ये मकान...
मेरी जान जान जान, मेरा इतना कहना मान दो अधूरी सांसें मिलकर, कर ले ज़िंदगी आसान कि तेरे बिन जिया नहीं जाए, कि चैना ना आए तेरे बिन
पिछले साल की हिट फिल्मों में स्त्री 2 का नाम खास तौर पर लिया जाता है। एक हॉरर कॉमेडी के हिसाब से मुझे ये फिल्म बस ठीक ठाक ही लगी थी पर इसके गीतों को जिस तरह चौक चौराहों पर बजाया गया उससे ये तो जरूर लगता है कि इस फिल्म की सफलता में इसके संगीत का बहुत बड़ा योगदान था।
इस फिल्म के वैसे तो दो गाने इस संगीतमाला में शामिल हैं पर दसवीं पायदान का ये गीत पिछले साल एक बार सुनते ही मेरी इस फेरहिस्त में शामिल हो गया था। एक समय बारहवीं सीढ़ी पर विराजमान इस गीत ने छलांग लगा कर आठवीं सीढ़ी पर कब्जा जमाया था पर जैसे जैसे 25 गीतों की पूरी सूची तैयार होती गई तो ये दो सीढ़ियां नीचे गिरते जा पहुंचा प्रथम दस के दसवें पड़ाव पर।
कुछ गीतों की मेलोडी ऐसी होती है जिन्हें आप नज़र अंदाज़ नहीं कर पाते। अब तुम्हारे ही रहेंगे हम ऐसा ही सुरीला गीत है जो एक बार सुनते ही आपका हो के रहेगा। अमिताभ भट्टाचार्य शाश्वत रहने वाले प्रेम को सहज शब्दों में इस तरह बांधते हैं कि वरुण जैन और शिल्पा राव को सुनते हुए श्रोता इस गीत को साथ साथ गुनगुनाना शुरू कर देते हैं। अंग्रेजी का एक मुहावरा है Easy on the ears वो इस गीत के लिए बिल्कुल दुरुस्त बैठता है ।
वरुण जैन और शिल्पा राव
बॉलीवुड में ऐसे गीत किसी पटकथा के बीच में अपनी जगह बना लेते हैं और यही वज़ह है कि संगीतकार धुन को जल्द ही शब्दों का जामा पहनाकर अपने खजाने में जमा कर लेते हैं। सच तो ये है कि सचिन जिगर ने जब ये गीत बनाया था तब उन्हें भी नहीं पता था कि ये गीत किस फिल्म का हिस्सा बनेगा? तकरीबन बनने के एक साल बाद जब ये गीत स्त्री 2 के लिए चुना गया तो इसके शब्दों और संगीत में थोड़े बहुत सुधार किए गए। गायक वरुण जैन जिनकी आरंभिक संगीत यात्रा की चर्चा मैंने यहां की थी, ने गीत का अपना हिस्सा अलग रिकॉर्ड किया था। यही हाल शिल्पा का भी था। फिल्म के रिलीज़ के कुछ दिनों पहले दोनों गायक पहली बार जीवन में एक दूसरे से मिले।
वरुण बताते हैं कि शिल्पा राव के साथ किसी गीत में उनका नाम आना और अमिताभ भट्टाचार्य के रचे बोलों को अपनी आवाज़ देना उनके लिए एक स्वप्न के समान था क्योंकि बचपन से वो इन कलाकारों की गायिकी और रचनाधर्मिता का आनंद लेते आए थे।
सचिन - जिगर
बॉलीवुड में जैसा आजकल का चलन है कि अंतरों के बीच एक कोरस के इस्तेमाल का। यही trend सचिन जिगर ने यहां भी इस्तेमाल किया है जो कि सुनने में अच्छा ही लगता है। सचिन जिगर की धुन ही इतने कमाल की है कि गीत में अंतरों के बीच या मुखड़े के पहले वाद्य यंत्रों का प्रयोग ना के बराबर है।
फिर से मिलने की जहाँ पे, दे गए थे तुम कसम
देख लो आ कर वहीँ पे, आज भी बैठे हुए है हम
तुम्हारे थे तुम्हारे हैं, तुम्हारे ही रहेंगे हम
तुम्हारे थे तुम्हारे हैं, तुम्हारे ही रहेंगे हम
मुद्दतें भी चंद लम्हों, जैसी लगती हैं सनम
बात ही ऐसी तुम्हारे, इश्क़ में कुछ है..मेरे हमदम
तुम्हारे थे तुम्हारे हैं....
वादा था कब का अब जा के आए, फिर भी गनीमत आए तो हैं
आइए आइए शौक़ से आइए, आइए आके इस बार ना जाइए
बिछड़ के भी हमसफ़र से, वफ़ा जो कर पाए है
इस आतिश के समन्दर से, वही तो गुज़र पाए है
नहीं मिली हीर तो क्या, रहे उसी के वो फिर भी
तभी रांझे वही सच, मायने में कहलाए है..कहलाए है
वही सच्ची मोहब्बत है, कभी होती नहीं जो कम
तुम्हारे थे तुम्हारे हैं..
तो आइए सुनते हैं ये गीत जिसे राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर पर फिल्माया गया है।
चांदपुर की चंदा अशिक्षा, गरीबी व लाचारी में पनपते एक निश्चल प्रेम की कहानी है जो साथ ही साथ ग्रामीण परिवेश में बदहाल शिक्षा प्रणाली, पुरुष प्रधान समाज में बच्चियों की चिंतनीय स्थिति, असीमित भ्रष्टाचार और समाज में होते नैतिक मूल्यों के पतन का खाका खींचती है। उपन्यास की कथा बलिया जिले के चांदपुर गांव के इर्द गिर्द घूमती है। यूं तो मेरा ददिहाल बलिया रहा है पर वहां जीवन का एक बेहद छोटा सा हिस्सा ही बीता है। ये जरूर है कि वहां की भाषा और बातचीत के लहजे से वाकिफ हूं और इतना विश्वास से कह सकता हूं कि लेखक अतुल कुमार राय ने उसे बखूबी पकड़ा है।
अतुल का ये पहला उपन्यास है जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा हिंदी भाषा की कृतियों के लिए 2023 युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। एक तबला वादक से फेसबुक पर उनके विभिन्न विषयों पर सतत लेखन का मैं साक्षी रहा हूं। आज वो मुंबई की फिल्मी दुनिया में बतौर पटकथा लेखक और गीतकार का किरदार अदा करने के लिए अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
इस उपन्यास में नायक और नायिका समेत तमाम किरदार हैं जो इस प्रेम कथा के इर्द गिर्द के समाज को प्रतिबिंबित करते हैं।
निश्चय ही गांव कस्बों से निकले युवाओं को ये प्रेम कथा कभी गुदगुदाएगी तो कभी अश्रु विगलित भी करेगी। उस उम्र संधि से आगे निकल गए लोगों के लिए पूरी किताब तो नहीं पर उसके कुछ अंश अवश्य प्रभावित करेंगे। यूं तो उन सारे प्रसंगों का यहां उल्लेख नहीं कर पाऊंगा, पर कुछ का जिक्र करना बनता है। जैसे कि लेखक द्वारा लिया गया चांदपुर गांव का ये व्यंग्यात्मक परिचय जो आज की हिंदी पट्टी के गांवों के तथाकथित विकास की कलई खोलता है।
"यहाँ से गिनकर दो मिनट चलने पर एक प्राइमरी और एक मिडिल स्कूल भी बना है। जिसकी दीवारों पर गिनती, पहाड़ा के अलावा ‘सब पढ़ें-सब बढ़ें’ का बोर्ड लिखा तो है, लेकिन कभी-कभी बच्चों से ज्यादा अध्यापक आ जाते हैं, तो कभी समन्वय और सामंजस्य जैसे शब्दों की बेइज्जती करते हुए एक ही मास्टर साहेब स्कूल के सभी बच्चों को पढ़ा देते हैं।
स्कूल के ठीक आगे पंचायत भवन है, जिसके दरवाजे में लटक रहे ताले की किस्मत और चाँदपुर की किस्मत में कभी खुलना नहीं लिखा है। मालूम नहीं कब ग्राम सभा की आखिरी बैठक हुई थी लेकिन पंचायत घर के बरामदे में साँड़, गाय, बैल खेत चरने के बाद सुस्ताते हुए मुड़ी हिला-हिलाकर गहन पंचायत करते रहते हैं और कुछ देर बाद पंचायत भवन में ही नहीं गाँव की किस्मत पर गोबर करके चले जाते हैं।
हाँ, गाँव के उत्तर एक निर्माणाधीन अस्पताल भी है। जो लगभग दो साल से बीमार पड़ा है। उसकी दीवारों का कुल जमा इतना प्रयोग है कि उस पर गाँव की महिलाओं द्वारा गोबर आसानी से पाथा जा सकता है।"
उपन्यास में मंटू द्वारा चंदा को लिखा गया प्रेम पत्र अब इंटरनेट पर वायरल हो गया है। प्रेम पत्र तो ख़ैर लाजवाब है ही। इस चिट्ठी के पढ़ कर हंसते हंसते पेट फूल जाएगा अगर आपका भोजपुरी का ठीक ठाक ज्ञान हो तो। लेखक का मुहावरे के रूप में यह कहना कि मोहब्बत में अखियां आन्हर और आदमी वानर हो जाता है दिल जीत ले जाता है।
"मेरी प्यारी चंदा तुमको याद है तुम पिछले साल पियरका सूट पहनकर शिव जी के मंदिर में दीया बारने आई थी। ए करेजा, जो दीया मंदिर में जलाई थी, वो तो उसी दिन बुता गया। लेकिन जो दीया मेरे दिल में जर गया है न, वो आज तक भुकभुका रहा है। आज हम रोज तुम्हारे प्रेम के मंदिर में दीया जराते हैं, रोज मूड़ी पटककर अगरबत्ती बारते हैं। डीह बाबा, काली माई, पिपरा पर के बरम बाबा, से लेकर बउरहवा बाबा मंदिर तक जहाँ भी जाते हैं, हर जगह दिल में तीर बनाकर लिख आते हैं- ‘चाँदपुर की चंदा’। लेकिन ए पिंकी, हमको इहे बात समझ में नहीं आता कि हमारे पूजा-पाठ में कौन अइसन कमी है जो दिल की बजती घंटी तुमको सुनाई नहीं दे रही है?"
"तुमको का पता कि तुम्हारे एक ‘हाँ’ के चक्कर में आज हम तीन साल से इंटर में फेल हो रहे हैं। साला जेतना मेहनत लभ लेटर लिखने में किए हैं, ओतना मेहनत पढ़ाई में कर लिए होते तो अब तक यूपी में लेखपाल होकर खेतों की चकबंदी कर रहे होते। लेकिन का करोगी! मोहब्बत में अँखिया आन्हर और आदमी बानर हो जाता है न। हमारा भी हाल बानर का हाल हो गया है।"
प्रेम के बारे में लेखक के उद्गार पढ़कर आपको लगेगा कि वो आपके मन की बात ही कह रहे हों मसलन
“आज पहली बार पता चला कि जीवन में प्रेम हो तो बाढ़ आँधी-तूफान में भी खुश रहा जा सकता है। और प्रेम न हो तो सावन की सुहानी बौछार भी जेठ की धूप के समान है।”
या फिर
"जहाँ शरीर का आकर्षण खत्म होता है वहाँ प्रेम का सौंदर्य शुरू होता है। फिर प्रेमी करीब रहे या दूर रहे, वो मिले या बिछड़ जाए। बिना इसकी परवाह किए वहाँ प्रेम किया जा रहा होता है।"
और हां अतुल, नायिका के माध्यम से आपने महादेवी वर्मा की बेहतरीन कविता जाग तुझको दूर जाना की याद दिलवा दी इसके लिए पुनः धन्यवाद। उपन्यास में इस कविता का उल्लेख बार बार होता है और वो नायिका के मन में विकट परिस्थितियों में भी आशा की एक किरण जगाती है जिसके सहारे वो जीवन में आगे बढ़ने का मार्ग अंततः ढूंढ ही लेती है। अच्छा साहित्य चाहे किस काल खंड में रचा गया हो उसे समाज या व्यक्ति विशेष को उद्वेलित करने की क्षमता होती है ये भली भांति चंदा के चरित्र स्पष्ट हो जाता है। तो इस चर्चा का समापन महादेवी जी की उन्हीं पंक्तियों के साथ
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले? पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले? विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन, क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले? तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना! जाग तुझको दूर जाना!
संगीत नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से मैथिली ठाकुर आजकल एक बेहद चर्चित नाम हो गया है। बिहार के चुनाव में उन्होंने इतनी कम उम्र में लड़ने का निश्चय किया और पिछले हफ्ते अपने चुनाव क्षेत्र से विजयी भी हुईं। बहरहाल पिछले तीन चार सालों से उन्होंने बड़ी लगन से अपने आप को मिथिला सहित तमाम अन्य बोलियों में लिखे गए लोक गीतों की अग्रणी गायिका के रूप में स्थापित किया है । राजनीति में उनके पदार्पण से संगीतप्रेमियों को पहली चिंता ये हुई की क्या वे अपनी गायिकी को मांजने के लिए पूरा वक़्त दे पाएंगी? ख़ैर इस प्रश्न का जवाब तो आने वाले समय देगा पर आज तो मैंने उनका ज़िक्र इसलिए किया क्यूंकि अजय देवगन और तब्बू द्वारा अभिनीत फिल्म औरों में कहाँ दम था के लिए गाया उनका गीत मेरी वार्षिक संगीतमाला के दस बेहतरीन गीतों में शामिल है।
बिहार के मधुबनी शहर से ताल्लुक रखने वाली मैथिली को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उनके पिता रमेश ठाकुर से मिली। उनके दोनों भाई भी संगीत से जुड़े हैं और उनके साथ ही एक तिकड़ी के रूप में फेसबुक और यू ट्यूब पर अपनी कला का जौहर दिखलाते रहे हैं। मैथिली की लोकप्रियता में सोशल मीडिया के इन मंचों का विशेष योगदान है। मैथिली ने अपने नाम को सार्थक करते हुए पहल मिथिला में गाए जाने वाले लोकगीतों से की पर लोगों की फरमाइश पर वो अन्य बोलियों के लोकगीत भी गाने लगीं जो उन्हें सम्पूर्ण भारत और विदेशों में भी एक समर्पित श्रोता वर्ग दिलवा गया।
वैसे तो मैथिली ने ये निर्णय लिया था की वे लोकगीतों को ही अपना पूरा समय देके भारत की इस सांस्कृतिक विरासत का प्रचार प्रसार करेंगी। फ़िल्मी गीतों को सामान्यतः वे अपनी आवाज़ नहीं देतीं। शायद इसकी एक और वज़ह संभवतः शुरुआती दिनों में रियलिटी शो में मिला रिजेक्शन भी रहा हो। पर जब ऑस्कर विजेता एम एम कीरवानी के संगीत निर्देशन में उन्हें मनोज मुन्तशिर का लिखा ये गीत गाने को मिला तो वो इतने अच्छे लिखे और संगीतबद्ध गीत को गाने से मना नहीं कर पाईं।
एम॰ एम॰ कीरावनी और मनोज मुंतशिर की जोड़ी जब जब साथ आयी है इन दोनों ने मिलकर कुछ अद्भुत रचा है। याद कीजिए वर्ष 2013 में आई फिल्म स्पेशल 26 का वो गीत कौन मेरा, मेरा क्या तू लागे क्यूँ तो बांधे मन से मन के धागे जो उस साल की संगीतमाला में शिखर के तीन गीतों में शामिल हुआ था या फिर दो साल बाद फिल्म बेबी में इस जोड़ी ने एक और बड़ा प्यारा गीत दिया जिसके बोल थे मैं तुझसे प्यार नहीं करती जिसमें मनोज ने लिखा
वो अलमारी कपड़ो वाली लावारिस हो जाती है ये पहनूँ या वो पहनूँ ये उलझन भी खो जाती है मुझे ये भी याद नही आता रंग कौन से मुझको प्यारे हैं मेरे शौक, पसंद मेरी बिन तेरे सब बंजारे हैं
इस गीत के लिए भी मनोज की शब्द रचना कमाल की है। वियोग के संताप को कितनी खूबी से इन शब्दों में पकड़ा है गीतकार ने तन में तेरी छुअन तलाशूं, मन में तेरी छाप पिया, भाप के जैसे पल उड़ जाएं, प्रीत को है ये श्राप पिया। कीरावनी साहब की धुन का उतर चढाव किसी भी गायिका के लिए कठिन साबित हो सकता था पर मैथिली ने इतनी कम उम्र में भी उसे ठीक ठाक ही निभाया है। वैसे मेरी इच्छा है की सुनिधि चौहान की आवाज़ में भी कभी इस गीत को सुनने का अवसर मिले।
मनोज, नीरज व एम एम कीरावनी
आदित्य देव ने हारमोनियम और सारंगी का मुखड़े के पहले और अंतरों के बीच शानदार इस्तेमाल किया है जो गीत में तैरती उदासी और बेचैनी की प्रतिध्वनि करता है। साथ में तबले और तार वाद्यों की संगत तो है ही। सारंगी पर दिलशाद खान और हारमोनियम पर खुद आदित्य देव ने बखूबी कमान संभाली है। इनके बजाए हिस्सों को बार बार सुनने का दिल करता है।
तो आइये सुनते हैं ये संवेदनशील नग्मा मैथिली ठाकुर की आवाज़ में
किसी रोज़, किसी रोज़, किसी रोज़, किसी रोज़ किसी रोज़ बरस जल थल कर दे, ना और सताओ साहिब जी मैं युगों युगों की तृष्णा हूं, तू मेरी घटा हो साहिब जी
किसी रोज़, किसी रोज़ बरस जल थल कर दे ना और सताओ साहिब जी...
पत्थर जग में कांच के लम्हे, कैसे सहेजूं समझ न आए तेरे मेरे बीच में जो है, ज्ञानी जग ये जान न पाए तन में तेरी छुअन तलाशूं, मन में तेरी छाप पिया भाप के जैसे पल उड़ जाएं, प्रीत को है ये श्राप पिया कैसे रोकूं जल अंजुरी में, भेद बताओ साहिब जी...
किसी रोज़, किसी रोज़ बरस जल थल कर दे ना और सताओ...साहिब जी...
मंदिर पूजे, दरगाहों में जाके चढाई भेंट पिया जी
माथे से ये बिरह की रेखा कोई ना पाया भेद पिया जी
तू ही तो पहली प्रीत है मेरी तू ही तो अंतिम आस मेरी
कोई बहाना ढूँढ के आ जा टूट ना जाए साँस मेरी
दिल का कोई दोष नहीं है, दिल ना दुखाओ साहिब जी
किसी रोज़, किसी रोज़ बरस जल थल कर दे ना और सताओ...साहिब जी..
ये क्रिकेट विश्व कप भारतीय महिला क्रिकेट टीम के लिए perfect नहीं था। बड़े उतार चढ़ाव का सामना किया इस टीम ने। शुरुआती मैच में कमजोर विपक्ष के सामने आपके स्टार खिलाड़ी नहीं चले पर मध्यक्रम ने आपको बचा लिया। फिर आई बारी प्रतियोगिता की तीन बड़ी टीमों ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका की और हमारी टीम ने हर मैच में काफी समय तक मजबूत स्थिति में रहने के बाद भी लगातार तीनों मैच गंवा दिया।
भारतीय महिला टीम के साथ जीती हुई परिस्थितियों मैं मैच गंवाने का सिलसिला नया नहीं है। यूं तो इस टीम ने इससे पहले 2005 और फिर 2017 में फाइनल में प्रवेश किया पर जिस तरह ये टीम 2017 में इंग्लैंड के खिलाफ मैच हारी उसने मेरा इस टीम पर विश्वास डगमगा दिया था। भारत को तब जीत के लिए सात ओवरों में मात्र 38 रन बनाने थे और उसके सात विकेट गिरने बाकी थे, पर इस टीम ने अपने सातों विकेट मात्र 28 रन और बनाकर लुटा दिए और भारत केवल 9 रनों से वो जीता हुआ मैच हार गया।
इस प्रतियोगिता में भी इस टीम में वही खामियां नज़र आ रही थीं जो सालों से इस टीम को हुनरमंद टीम से चैंपियन टीम बनने से रोक रही थीं। खराब क्षेत्ररक्षण, विकटों के बीच रंग भागने के लिए धीमी दौड़, बीच और आखिर के ओवरों में लचर गेंदबाजी, तीस ओवर से ज्यादा बैटिंग करने पर फिटनेस से जूझते बल्लेबाज।
फिर भी हमारी टीम ने विश्व कप जीत लिया क्योंकि जब जब हम करो या मरो वाली स्थिति में पहुंचे किसी न किसी ने अपना शानदार खेल दिखा कर मामला संभाल लिया। श्रीलंका के खिलाफ अमनजोत कौर, न्यूजीलैंड के खिलाफ स्मृति मंधाना और प्रतिका रावल की सलामी जोड़ी, सेमीफाइनल में जेमिमा, हरमनप्रीत के साथ ऋचा घोष और दीप्ति शर्मा और फिर फाइनल में में शेफाली वर्मा और दीप्ति शर्मा का किरदार यादगार रहा। अभी साल भर के अंदर टीम में शामिल हुई श्री चरनी ने भी अपनी धारदार स्पिन गेंदबाजी से कई जमती हुई साझेदारियां तोड़ीं।
फाइनल में भी अहम मौकों पर दोनों टीमों ने कैच छोड़े पर ज़मीनी क्षेत्ररक्षण में सभी ने जी जान लगा दी। पूरी टीम गेंद की दिशा में अपने शरीर को झोंकती नज़र आई। भारतीय बैटिंग तो कल मैंने पूरी देखी पर उसके बाद जब जब टीवी खोलता कुछ न कुछ ऐसा होता कि टीवी बंद करना पड़ता। और मजे की बात ये कि बंद करने के बाद ही कोई नया विकेट गिर जाता और फिर से आशा बंध जाती। राधा यादव द्वारा लगातार दो छक्के पिटवाने के बाद तो लगा कि अब तो प्रार्थना के अलावा कोई चारा नहीं है। पर जैसे ही अमनजोत ने दक्षिण अफ्रीकी कप्तान के छूटे हुए कैच को अपने तीसरे प्रयास में पकड़ा तो जान में जान आई कि हां अब बिना किसी तनाव के टीवी खोल के देखा जा सकता है।
जितना आनंद आखिरी विकेट को देखते हुए आया उससे कहीं अधिक जीत के बाद वर्तमान और भूतपूर्व खिलाड़ियों के भावनात्मक उद्गार को देख कर। सेमीफाइनल में जेमिमा का सबके सामने अपने anxiety attacks के बारे में खुल कर बोलना, हरमन का कोच की डांट के बारे में उनकी नकल उतारते हुए बताना, फाइनल में जीत के बाद हरमन का कोच अमोल मजूमदार का पैर छूना, प्रतिका रावल का व्हील चेयर पर बैठकर जीत के जश्न में शामिल होना, झूलन का हरमन और स्मृति के साथ गले लगा कर रोना इस विश्व कप के कुछ ऐसे पल थे जो मुझे हमेशा याद रहेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि हमारी महिला क्रिकेट टीम एक ऐसे परिवार की तरह है जिसका हर सदस्य एक दूसरे का ख्याल रखता है और एक दूसरे की उपलब्धि को जश्न की तरह मनाता है। इस टीम ने विश्व कप का सपना देखा, अपनी क्षमताओं पर यकीन किया और जब जरूरत पड़ी तो अपना उत्कृष्ट खेल दिखा कर विश्व कप जीतने के सपने को हक़ीक़त में बदल दिया।
निश्चय ही ये जीत सारे पूर्ववर्ती और आज के खिलाड़ियों के लिए एक ऐसा लम्हा है जिसे वो जीवन में शायद ही भूल पाएं। महिला क्रिकेट को निश्चय ही ये परिणाम नई ऊंचाइयों पर ले जाएगा क्योंकि अभी भी हमारी टीम में सुधार की असीम संभावनाएं है। ऐसे भी अगर जीत का स्वाद एक बार लग जाए तो वो जल्दी नहीं छूटता।
वार्षिक संगीतमाला की अगली पायदान पर बैठा है वो गीत जिसकी धुन, संगीत, बोल और गायिकी इन सबको मिलकर बनाया प्रियांश श्रीवास्तव और गर्वित सोनी की एक युवा जोड़ी ने। इस ग़मगीन करते गीत का नाम है काग़ज़। यूँ तो ये गीत एक दरकते रिश्ते की सामान्य सी अभिव्यक्ति भर है पर इतनी कम उम्र में भी कुछ ऐसा लिख गए हैं प्रियांश जो कि हम सब के दिलों छुएगा जरूर।
वैसे भी कई बातें जो हम अपने प्रिय को कह नहीं पाते वो काग़ज़ के पन्नों में ही दफ्न हो जाया करती हैं। गीत के मुखड़े में प्रियांश लिखते हैं।
बिख़रे से पन्नों की ये आरज़ू है अभी
लफ़्ज़ों में मिल जाओ तुम हमको यूँ कहीं
कर ना सके हम बयाँ, दिल में जो था राज़ छुपा
मन के ख़यालों को भी, बस ये काग़ज़ ही जानता
प्रियांश श्रीवास्तव और गर्वित सोनी
पर गीत की जो सबसे प्यारी पंक्तियाँ मुझे लगीं वो थीं
मख़मली-सी बातें भी कभी तो, लिख के ख़ुश हुए थे हम यहाँ
आँसुओं की बूँदें जो पड़ी तो, ख़ुरदुरा ये काग़ज़ हुआ
कितना प्यारा लिखा प्रियांश ने। इसे पढ़कर किशोरावस्था के वो दिन याद गए जब उदासी और अकेलेपन का भाव मन में रह रह कर उभरता था। जहां प्यार था तो तल्खियां भी थीं, और उन शिकायतों से रिश्ते कभी दरके, कभी खिंचे तो कभी उनमें सिलवटें भी पड़ीं।
गीत के सहज पर असरदार बोलों को एक ऐसी धुन और गायिकी का साथ मिला है जो बार बार गीत को सुनने को बाध्य करता है। संगीत नाम मात्र का है। शब्दों के पीछे बजता पियानो और उनके बीच की शून्यता को भरता गिटार। गीत को गर्वित और प्रशांत ने मिलकर गाया है। सच पूछिए तो दोनों की आवाज़ की बनावट इतनी मिलती है कि कई जगह ये पता लगाना मुश्किल होता है कि कब प्रियांश रुका और कब गर्वित ने गाना शुरू किया।
मजे की बात ये है कि शास्त्रीय संगीत का विधिवत प्रशिक्षण लेने वाले ये दोनों कलाकार पहले से एक दूसरे को जानते तक नहीं थे। गर्वित उदयपुर के निवासी हैं जबकि प्रियांश दिल्ली के। गर्वित का काम मेकेनिकल इंजीनियरिंग की जर्मनी में पढ़ाई कर रहे प्रियांश ने सोशल मीडिया पर देखा और वहीं उनके साथ काम करने की इच्छा ज़ाहिर कर दी। इनका पहला गाना बिना मिले ही रिकार्ड हुआ। जब लोगों ने उसे पसंद किया तो फिर ये जोड़ी मायानगरी में एक ठिकाने पर साथ साथ काम करने आ गई।
इस गीत के बारे में प्रियांश का कहना है
ये गीत एक ऐसे भाव से मन में बनना शुरू हुआ जिसे मैं बोल कर व्यक्त नहीं कर सकता था। काग़ज़ एक माध्यम है अबोले को अभिव्यक्त करने का। दुख और खुशियों के लम्हों को काग़ज़ी स्लेट पर उकेरने का।
मैंने जब ये विचार गर्वित के सामने रखा तो उसने इसे उस व्यक्ति की कहानी बना दी जो लिखे हुए शब्दों के दायरे में रहते हुए ही अपने प्रेम को संप्रेषित कर पाता हो। जो इनकी छांव में ही सुकून पाता हो। ये गीत उन सारे लोगों के लिए है जो प्रेम को एक पाती में, अधूरी कविताओं में या अधलिखे विचारों में ही समेट पाए।
आज जब किशोरों और युवाओं में हर छोटी छोटी बातों को रील्स के माध्यम से व्यक्त करने की होड़ मची हो तो ऐसे गीत मन में ये विश्वास दिलाते हैं कि संवेदनाओं को सहेजने और उस पर चिंतन मनन करने का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है।
तो आइए इस गीत का आनंद लें इसके पूरे बोलों के साथ
बिख़रे से पन्नों की ये आरज़ू है अभी लफ़्ज़ों में मिल जाओ तुम हमको यूँ कहीं कर ना सकें हम बयाँ, दिल में जो था राज़ छुपा मन के ख़यालों को भी, बस ये काग़़ज़ ही जानता
ना कहोगे तुम, ना कभी कहेंगे हम, काग़़ज़ी-सा हमारा इश्क़ है ना रहोगे तुम, तो फिर क्या करेंगे हम?
मौसमी-सा हमारा इश्क़ है
मख़मली-सी बातें भी कभी तो लिख के ख़ुश हुए थे हम यहाँ आँसुओं की बूँदें जो पड़ी तो ख़ुरदुरा ये काग़़ज़ हुआ
प्यार कम हो ना हो, बढ़ती जाए क्यूँ ये दूरियाँ? कोशिशें मेरी क्यूँ, अब लगे मजबूरियाँ? कर ना सकें हम बयाँ, दिल में जो था राज़ छुपा मन के ख़यालों को भी, बस ये काग़़ज़ ही जानता
आजकल तो जबसे स्वतंत्र संगीत का चलन शुरू हुआ है रोज़ रोज़ नए गीत बन रहे हैं पर उनमें से ज्यादातर आपके दिलों में सेंध नहीं लगा पाते क्योंकि कहीं धुन तो कहीं शब्दों के लिहाज़ से मामला अधपका सा ही रह जाता है।
पर गीतों की इस भीड़ में भी कई बार ऐसे सुरीले नग्मे सुनने को मिल जाते हैं जो एक बार में ही दिल की कोठरी में ऐसे आसन जमा लेते हैं कि फिर वहां से निकलने के लिए जल्दी तैयार ही नहीं होते। स्वानंद किरकिरे के गाए और संगीतबद्ध किए इस गीत को प्रोग्राम किया है उज्ज्वल कश्यप ने। शोर-ग़ुल एक ऐसा गीत है जिसे एक बार सुनने के बाद बार बार सुनने का दिल करता है और इसीलिए ये गीत विराजमान है संगीतमाला की 12 वीं सीढ़ी पर।
ख़ुद इस गीत के पीछे की सोच और उसके इस रूप में आने के बारे में स्वानंद कहते हैं
"मेरा पहला गाना था बावरा मन..यही होता था कि हम बावरा मन गाते थे और लोग हाथ पकड़ के निकल जाते थे। शोर गुल भी वैसा ही गाना है। मैं चाहता हूं कि इसे सुनने के बाद कुछ लोग हाथ पकड़ कर निकलें। एक प्यार वाली फीलिंग है इसमें।
फिल्म उद्योग में गाने लिखने की दौड़ धूप में हम हिट होगा फ्लॉप होगा के चक्कर में ही पड़े रहते हैं। इसके बीच में आप खुद कोई गाना बना रहे होते हो जिसके लिए किसी ने आपको कुछ बताया नहीं। जिसका कोई brief नहीं है। इस तरह के गीत अपने आप ऑर्गेनिक रूप से बाहर आते हैं। जब गीत लिखा तो फिर मैंने इसे उज्ज्वल को सुनाया कि क्या ये गाना लोगों को प्रभावित कर पाएगा। "
ज़ाहिर है उज्ज्वल को गीत का मुखड़ा और अंतरे सुनने के बाद इतने पसंद आए कि उन्होंने तुरंत इस पर काम शुरू कर दिया। कितने प्यारे अंतरे लिखे हैं स्वानंद भाई ने इस गीत के लिए और उतना ही सुकून देने वाला उनका संगीत है जो गीत में इस कदर घुल मिल जाता है कि बोलों के साथ बजते तार वाद्यों रबाब और गिटार की टुनटुनाहट भी याद रह जाती है।
आखिर एकांत की तलाश हम क्यों करते हैं? ख़ुद से बातें करने के लिए या फिर किसी प्रिय के साथ को संपूर्णता से महसूस करने के लिए। स्वानंद भी अपने लिखे इस गीत में आपको शोर-ग़ुल से परे प्रकृति की गोद में पलते प्रेम से आपको जोड़ना चाहते हैं। उनका मानना है कि प्रकृति के साथ जब आपका मन एकाकार होने लगता है तो उसके स्वर आपको अपने से लगने लगते हैं। नदी की कलकल भी आपको ऐसी जान पड़ेगी जैसे कोई आपके कानों में आकर फुसफुसाया हो 😊। बहती हवा की सनसनाहट कोई ऐसा राग छेड़ेगी मानो कोई गुनगुना रहा हो और इसीलिए स्वानंद लिखते हैं
मन ही मन में बुदबुदाती एक नदी सी बहा करेगी
अनजानी धुन गुनगुनाती आती जाती हवा रहेगी
दूसरे अंतरे में भी उनका गेसुओं से ढककर रात करने और एक दूसरे के हाथों में उंगलियां फंसाने का भाव भी बड़ा प्यारा लगता है।
इस गीत के बोल एक नायिका के लिए लिखे गए हैं और इसीलिए स्वानंद ने शुरुआत में ऐसा सोचा था कि इसे किसी गायिका से गवाएंगे पर फिर उन्हें ये महसूस हुआ कि उनकी आवाज़ इस गीत को उनके शब्दों में और इंटरेस्टिंग बना देगी।
स्वानंद की आवाज़ तो मुझे बेहद पसंद है पर मुझे लगता है कि इस गीत के दूसरे अंतरे की जो प्यारी सी सोच है उसे एक नारी स्वर का साथ मिला होता तो इस गीत को एक दूसरे नज़रिए से देखने में मदद मिलती। मैंने नेट पर इस गीत को किसी गायिका की आवाज़ में ढूंढने की कोशिश की और मुझे विधि त्यागी का गाया हुआ गीत का ये प्यारा टुकड़ा मिला। हालाँकि उन्होंने अंतरों के बोलों को ऊपर नीचे बदल दिया है फिर भी उनकी आवाज़ में ये गीत सुनना अच्छा लगा ।
शोर - गुल नहीं होगा नहीं होगा नहीं होगा मेरी जान
मैं हूंगी तू होगा और होगा खामोश आसमान मैं हूंगी तू होगा और होगा खामोश आसमान
शोर - गुल नहीं होगा नहीं होगा नहीं होगा मेरी जान
मन ही मन में बुदबुदाती एक नदी सी बहा करेगी अनजानी धुन गुनगुनाती आती जाती हवा रहेगी तेरी धड़कन क्या कहती है सुनूंगी तेरे सीने पे रख के कान मैं हूंगी तू होगा.....शोर - गुल नहीं होगा
तेरी उंगलियों में गूंथ लूंगी उंगलियां मेरी
तुझे गेसुओं में ढक कर के मैं कर लूंगी रात गहरी फिर सर को झुका के हौले से, मैं चूम लूंगी चांद मैं हूंगी तू होगा.....शोर - गुल नहीं होगा
वार्षिक संगीतमाला की गाड़ी धीरे-धीरे चलती हुई अपने आधे सफर तक पहुंच चुकी है। यहां से आगे की पायदान पर जो गीत हैं उन्हें चुनने और सुनने का सफ़र मेरे लिए ज्यादा सुरीला और यादगार रहा।
इस कड़ी में आज एक ग़ज़ल पेश है जिसे लिखा साहिबा शहरयार ने, धुन बनाई सार्थक कल्याणी और सिद्धार्थ ने और इसे गाया सार्थक ने। ग़ज़लें मेरी कमजोरी रही हैं और आज के गायक अगर इस विधा में कुछ नया करते हैं तो मन बेहद खुश होता है।
दो चीजें मुझे खास तौर पर पसंद आई इस ग़ज़ल में पहली तो सार्थक कल्याणी की गायिकी जिसमें उन्होंने ग़ज़ल के मिज़ाज को बखूबी पकड़ा है और दूसरी उनकी कम्पोजिशन। साहिबा तो ख़ैर एक स्थापित शायरा हैं ही और ये तो हम सब जानते हैं कि ग़ज़ल असरदार तभी हो सकती है जब उसमें इस्तेमाल हुए मिसरों में कुछ वज़न हो।
सार्थक ने एक दशक से ज्यादा अवधि तक भारतीय शास्त्रीय संगीत में महारत हासिल करने में अपना समय दिया है। एक रियलिटी शो के दौरान वे ए आर रहमान के संपर्क में आए और पिछले पांच सालों से वे उनके सहायक का काम कर रहे हैं। पिछले साल उन्होंने चमकीला और मैदान जैसी फिल्मों में रहमान के साथ काम किया। रहमान की देखरख में उन्होंने वेस्टर्न हार्मनी पर भी अपनी पकड़ बनाई। शास्त्रीय संगीत का उनका हुनर उनकी गायिकी में स्पष्ट झलकता है।
साहिबा शहरयार जिन्होंने ये ग़ज़ल लिखी है श्रीनगर से ताल्लुक रखती हैं। हालांकि उनके नाम से ये न समझ लीजिएगा कि वो प्रसिद्ध शायर शहरयार से संबंधित हैं।
यूं तो मैं उनकी लिखी ग़ज़लों से ज्यादा नहीं गुजरा पर उनके लिखे कुछ पसंदीदा शेर मेरी डायरी के हिस्से रहे हैं जैसे कि
पहले होता था बहुत अब कभी होता ही नहीं
दिल मेरा कांच था टूटा तो यह रोता ही नहीं
और बारिश के बारे में उनके लिखे ये अशआर तो आजकल चल रहे मौसम का मानो हाल बयां करते हैं
एक दिया जलता है कितनी भी चले तेज़ हवा
टूट जाते हैं कई एक शजर बारिश में
आंखें बोझल हैं तबीयत भी कुछ अफ़्सुर्दा
कैसी अलसाई सी लगती है सहर बारिश में
साहिबा ने इस ग़ज़ल के लिए कुछ उम्दा शेर कहे हैं जो किसी आशिक की मनोदशा को कुछ यूं व्यक्त करते हैं
बंद आँखें करूँ और ख़्वाब तुम्हारे देखूँ
तपती गर्मी में भी वादी के नज़ारे देखूँ
सच ही तो है अगर आप प्रेम में हों तो महबूब का ख़्याल तपती गर्मी में शीतलता का अहसास दिलाता है। कभी कभी ये यादें और उनके साथ दिल में उपजी विकलता हमारी आंखों को नम भी कर जाती हैं और इसीलिए साहिबा आगे लिखती हैं
ओस से भीगी हुई सुबह को छू लूँ जब मैं अपनी पलकों पे मैं अश्कों के सितारे देखूँ
मुझ को छू जाती है आ कर जो कभी सुबह तिरी हर तरफ़ फूलों के दिलचस्प नज़ारे देखूँ
साहिबा शहरयार
कश्मीर से ताल्लुक रखने वाली साहिबा की ग़ज़लों में वादी और फूलों का जिक्र ज़ाहिर तौर पर बार बार होता है। अब इस ग़ज़ल के इन्हीं मिसरों को जो बंद आंखों में शामिल नहीं किए गए ।
मैं कहीं भी रहूँ जन्नत तो मिरी वादी है चाँद तारों के पड़े उस पे मैं साए देखूँ
अब तो हर गाम पे सहरा-ओ-बयाबाँ में भी अपनी वादी के ही सदक़े में नज़ारे देखूँ
अब इससे पहले कि आप इस ग़ज़ल को सुने तो बात इसके उस पहलू की जो मुझे बिल्कुल नागवार गुजरा। ये ग़ज़ल निश्चय ही मेरी प्रथम दस की सूची में होती अगर इसका संगीत संयोजन ठीक से किया गया होता। मतले और उसके बाद के शेर के उपरांत बीच में कुछ पंक्तियां बोलने और उसके बाद जैसे पश्चिमी वाद्य यंत्रों का प्रयोग इन युवाओं ने किया उसकी कोई जरूरत नहीं थी। सच कहिए तो उसने बन रहे मूड को बिगाड़ दिया। गजलें एक अपनी कविता से एक ठहराव एक उदासी एक सघन शांति का भाव उकेरती हैं उसमें इस तरह का संगीत वैसा ही लगता है जैसे खाने में कंकड़। आशा है इसे बनाने वाले युवा चेहरे आगे इसका ध्यान रखेंगे।
हालांकि तब भी मुझे इस ग़ज़ल को गुनगुनाना बेहद पसंद है तो चलिए सुनिए और आप भी मेरी तरह शुरू हो जाइए 🙂
वार्षिक संगीतमाला 2024 के 25 बेहतरीन गीतों की फेरहिस्त में आज बारी है उस गीत की जिसे संगीतबद्ध किया एक बार फिर से संगीतकार जोड़ी सचिन जिगर ने, लिखा भी पिछले गीत की तरह अमिताभ भट्टाचार्य ने पर आवाज़ (वो जो इस गीतमाला में पहली बार सुनाई देगी) है विशाल मिश्रा की। यह गीत है फिल्म स्त्री 2 का और यहां बात हो रही है खूबसूरती की।
हिंदी फिल्म जगत में नायिका की खूबसूरती पर तमाम गीत लिखे गए हैं। हर गीत में स्त्री की सुंदरता के बारे में नए नए विचार..नई-नई काव्यमय कल्पनाएं।
1968 में इन्दीवर ने फिल्म सरस्वतीचंद के गीतों के लिए बेहद प्यारे शब्द रचे थे। शुद्ध हिंदी में वर्णित उनका सौदर्य बोध सुनते ही बनता था। क्या मुखड़ा था ...चंदन सा बदन, चंचल चितवन धीरे से तेरा ये मुस्काना...मुझे दोष ना देना जगवालों, हो जाऊँ अगर मैं दीवाना.
इस गीत के अंतरे भी सौंदर्य प्रतिमानों से भरे पड़े थे । मसलन पहला अंतरा कुछ यूं था। ये काम कमान भंवे तेरी, पलकों के किनारे कजरारे...माथे पर सिंदूरी सूरज, होंठों पे दहकते अंगारे....साया भी जो तेरा पड़ जाए....आबाद हो दिल का वीराना। लगभग सत्तर सालों बाद भी ये गीत कानों में वैसी ही मिसरी घोल देता है।
नब्बे के दशक की शुरुआत में 1942 A Love Story फिल्म में जावेद अख्तर साहब का वह गीत आपको जरूर याद होगा जिसमें उन्होंने एक लड़की की खूबसूरती को इतने सारे बिंबों में बांधा था कि कहना ही क्या। वह गीत था एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। उस गीत मैं एक कन्या की तुलना एक खिलते गुलाब, शायर के ख़्वाब, उजली किरण, वन में हिरण, चांदनी रात, सुबह का रूप, सर्दी की धूप जैसे 21 रूपकों से की गई थी। गाना सुनते हुए उस वक्त दिल करता था कि रूपकों का ये सिलसिला चलता रहे।
वैसे खूबसूरत शब्द को लेकर नीलेश मिश्रा ने फिर 2005 में फिल्म रोग के लिए लिखा कि खूबसूरत है वो इतना सहा नहीं जाता..कैसे हम ख़ुद को रोक लें रहा नहीं जाता....चांद में दाग हैं ये जानते हैं हम लेकिन....रात भर देखे बिना उसको रहा नहीं जाता
एम एम कीरावनी के संगीत और उदित नारायण की अदायगी ने तब इस गीत को खासी लोकप्रियता दिलवाई थी। पिछले साल अमिताभ भट्टाचार्य ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए चौदहवीं पायदान के इस गीत के लिए क्या खूब लिखा कि
धूप भी तेरे रूप के सोने पे, कुर्बान हुई है तेरी रंगत पे खुद, होली की रुत हैरान हुई है तुझको चलते देखा, तब हिरणों ने सीखा चलना तुझे ही सुनके कोयल को, सुर की पहचान हुई है तुझसे दिल लगाए जो, उर्दू ना भी आए तो शख़्स वो शायरी करने लगता है कि कोई इतना खूबसूरत....कैसे हो सकता है?
अब कोयल और हिरण तो बेजुबान ठहरे वर्ना अमिताभ पर मानहानि का मुकदमा जरूर दायर करते। वैसे मजाक एक तरफ अमिताभ के लिखे बोलों में एक नयापन तो है ही जो सुनने में अच्छा लगता है।
सचिन जिगर यहां संगीत संयोजन में एक पाश्चात्य वातावरण रचते हैं जिसमें थिरकने की गुंजाइश रह सके हालांकि फिल्म की कहानी से इसका कोई लेना देना नहीं है। दरअसल ये गीत फिल्म के मूल कथानक के समाप्त होने के बाद आता है जहां वरुण धवन अतिथि कलाकार के रूप में पहली बार अपनी शक्ल दिखाते हैं। आजकल फिल्मी गीतों के बीच कोरस का प्रचलन बढ़ गया है। सचिन जिगर भी इसी शैली का यहां सफल अनुसरण करते दिखते हैं।
रही गायिकी की बात तो विशाल मिश्रा का गाने का अपना एक अलग ही अंदाज है। वह हर गाना बड़ा डूब कर गाते हैं। युवाओं का उनका ये तरीका भाता भी है। कबीर सिंह, एनिमल और हाल फिलहाल में सय्यारा में उनके गाए गीत काफी लोकप्रिय हुए हैं। ये अंदाज़ रूमानी गीतों पर फबता भी है पर बार बार वही तरीका अपनाने से एक एकरूपता भी आती है जिससे विशाल को सावधान रहना होगा।
तो आइए सुनते है ये गीत जिसे फिल्माया गया है राज कुमार राव, वरुण धवन और श्रद्धा कपूर पर
खूबसूरती पर तेरी, खुद को मैंने कुर्बान किया मुस्कुरा के देखा तूने, दीवाने पर एहसान किया खूबसूरती पर तेरी, खुद को मैंने कुर्बान किया मुस्कुरा के देखा तूने, दीवाने पर एहसान किया कि कोई इतना खूबसूरत, कोई इतना खूबसूरत कोई इतना खूबसूरत कैसे हो सकता है?
जो देखे एक बार को, पलट के बार-बार वो खुदा जाने, क्यों तुझे देखने लगता है सच बोलूं ईमान से, ख़बर है आसमान से हैरत में चांद भी तुझको तकता है कि कोई इतना खूबसूरत....कैसे हो सकता है?
चलते चलते तो मैं बस आदिल फ़ारूक़ी साहब का ये शेर अर्ज करना चाहूंगा कि
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