जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
श्याम बेनेगल नब्बे साल की आयु में हम सबका साथ छोड़कर चल दिए। वैसे भी वो काफी दिनों से बीमार थे पर कुछ ही दिन पहले उनके 90 वें जन्मदिन की हंसती मुस्कुराती तस्वीरें देख कर लगा था कि उनकी ये जिजीविषा शायद उन्हें और लंबी पारी खेलने का मौका दे।पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। सत्तर के दशक में जब उनकी फिल्में चर्चित हो रही थीं तब हमारी उम्र उनकी आम जन से जुड़ी पटकथाओं को समझ पाने लायक नहीं थी।
बचपन के उन दिनों में माता पिता मुझे अपने साथ पटना के एलफिंस्टन सिनेमा हॉल में श्याम जी की फिल्म अंकुर में ले गए थे। फिल्म की कहानी मुझे कितनी समझ आई होगी पर बाल मन में ये बात गहरे पैठ गई थी एक सीधे सादे परिवार के साथ जमींदार पुत्र जरूर बेहद बुरा कर रहा है। उस परिवार का दुख मुझे इतना दुखी कर गया कि सिनेमा हाल में मैं लोगों के चुप कराने की कोशिशों के बावजूद पांच दस मिनट तक फफक फफक कर रोता रहा था।
जब अस्सी के दशक में घर में टीवी आया तो श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित यात्रा, भारत एक खोज जैसे कई धारावाहिक देखने का मौका मिला और उनकी प्रतिभा को जानने समझने का अवसर भी। यूं तो श्याम बेनेगल साहब ने कई फिल्में बनाई पर मुझे उनकी निर्देशित फिल्मों में जो सबसे प्यारी फिल्म लगती है वो थी जुनून। आज तक फिल्म में शशि कपूर का वो किरदार मुझे भूलता नहीं जो एक ओर तो सिपाही विद्रोह के दौरान अंग्रेजों से दुश्मनी मोल लेता है तो दूसरी ओर अपने द्वारा बंधक बनाई एक अंग्रेज लड़की को दिल दे बैठता है। शशि कपूर के चरित्र के इस विरोधाभास को कितनी खूबसूरती से पकड़ा था श्याम बेनेगल ने। कितने ही दृश्य थे जिनमें नफीसा अली और शशि के बीच सिर्फ आंखों के माध्यम से संवाद चलता रहता था..वो अभी भी मन में रचे बसे हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में शशि किस कातरता से कहते हैं कि बस उसकी एक झलक दिखला दो...वो भुलाए नहीं भूलता।
अस्सी के दशक में जब मुख्यधारा का सिनेमा सामाजिक सरोकारों से दूर घिसे पिटे फार्मूलों का गुलाम बनता जा रहा था तब श्याम बेनेगल और बाद में गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों ने कला फिल्मों द्वारा समानांतर सिनेमा को जो परचम फैलाया उसके लिए सिनेमा प्रेमी दर्शक उनके हमेशा ऋणी रहेंगे।
उनकी फिल्मों के कुछ गाने जो मुझे बेहद प्रिय हैं वो आजआपकी नज़र। पहला गीत है फिल्म सरदारी बेगम का जिसे गाया था आरती अभ्यंकर ने और गीत के बोल थे राह में बिछि हैं पलकें आओ
सूरज का सातवाँ घोड़ा में धर्मवीर भारती जी की कविता को गीत की शक्ल में पेश किया था श्याम बेनेगल जी ने। उस कविता और गीत के बारे में पहले भी यहाँ लिख चुका हूँ। गीत के बोल थे ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं..
और चलते चलते मेरी प्रिय फिल्म जुनून का ये गीत कैसे भूल सकता हूँ जिसके बोल थे घिर आई काली घटा मतवारी.. सावन की आई बहार रे
वार्षिक संगीतमाला की ये समापन कड़ी है 2023 के संगीत सितारों के नाम। पिछले साल रिलीज़ हुई फिल्मों के बेहतरीन गीतों से तो मैंने आपका परिचय पिछले कुछ महीनों में तो कराया ही पर गीत लिखने से लेकर संगीत रचने तक और गाने से लेकर बजाने तक हर विधा में किस किस ने उल्लेखनीय काम किया यही चिन्हित करने का प्रयास है मेरी ये पोस्ट। तो आइए मिलते हैं एक शाम मेरे नाम के इन संगीत सितारों से।
साल के बेहतरीन एलबम
रॉकी और रानी की लव स्टोरी : प्रीतम
जुबली वेब सीरीज : अमित त्रिवेदी
PS -2 : ए आर रहमान
Animal : कई संगीतकार
साल का सर्वश्रेष्ठ एलबम : जुबली वेब सीरीज : अमित त्रिवेदी
साल के कुछ खूबसूरत बोलों से सजे सँवरे गीत
गुलज़ार : रुआं रुआं खिलने लगी है ज़मीं
कौसर मुनीर : वो तेरे मेरे इश्क़ का ...
मनोज यादव : पल ये सुलझे
डा. सागर : हेराइल बा
इरशाद कामिल : बरखा ..
स्वानंद किरकिरे : बोलो ना , नौका डूबी
साल के सर्वश्रेष्ठ बोल : वो तेरे मेरे इश्क़ का ...कौसर मुनीर
साल की बेहतरीन गायिका : वो तेरे मेरे इश्क़ का ...सुनिधि चौहान
साल के बेहतरीन गायक
अरिजीत सिंह : आधा तेरा इश्क़ आधा मेरा, ,
अरिजीत सिंह : मैं परवाना तेरा नाम बताना
विशाल मिश्रा : पहले भी मैं तुमसे मिला हूँ
अरिजीत सिंह : मैं परवाना तेरा नाम बताना
अरिजीत सिंह : : तुम क्या मिले
अरिजीत सिंह : वे कमलेया
साल के बेहतरीन गायक : अरिजीत सिंह
संगीत के कुछ बेहतरीन टुकड़े
प्रील्यूड तुम क्या मिले प्रीतम
प्रील्यूड इंटरल्यूड नहीं जी नहीं अमित त्रिवेदी
प्रथम इंटरल्यूड इसराज पल ये सुलझे सुहित अभ्यंकर
इंटरल्यूड बरखा गिटार आदित्य शंकर बाँसुरी निर्मल्य डे, अरिजीत सिंह
प्रील्यूड अनूप शातम पियानो मैं हँसता रहा
प्रील्यूड इंटल्यूश वॉयलिन रूआँ रूआँ ए आर रहमान
गीतों में प्रयुक्त कुछ प्यारे बोल
जो बनाने चले तो बिगड़ क्यूँ गया...आँख खोली ही थी आँसू गड़ क्यूँ गया ? मनोज यादव
मैं थी पन्ना तुम कहानी, एक माँगी ज़िंदगानी एक छींटा लिपटा ऐसे, शब्द भींगे नम है किस्से मनोज यादव
वो आसमां छलांग के जो, छत पे यूँ गले से लगे, वो रात कोई और ही थी…वो चाँद कोई और ही था...इक निगाह पे जल गए…इक निगाह पे बुझ गए ..वो आग कोई और ही थी…चराग कोई और ही था कौसर मुनीर
बे-इरादा रास्तों की बन गए हो मंज़िलें मुश्किलें हल हैं तुम्हीं से या तुम्हीं हो मुश्किलें? अमिताभ भट्टाचार्य
आजा रे, आ, बरखा रे, मीठे तू कर दिन खारे, झोंका हवा का पुकारे, ग़म को बहा ले जा रे इरशाद कामिल
मैं समंदर, परिंदा है ये इश्क रे..मन मातम और जिंदा है ये इश्क़ रे सिद्धार्थ गरिमा
आधा तेरा इश्क़, आधा मेरा .. ऐसे हो पूरा चंद्रमा..हो तारा तेरा इक तारा मेरा, बाकी अँधेरा आसमां सिद्धार्थ गरिमा
भीड़ में ऐसे छिंटा गईनी ऐसे ..बोरा से सरसों छिंटाइल बा..चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर जहाँ माटी में सोना हेराइल बा डा. सागर
तू रात में ही उलझा था मैं बन गई सहर तू साँसें माँगता था और मैं पी गयी ज़हर स्वानंद किरकिरे
मंद मंद, नीम बंद, नैनों से कहीं ओ, आके बांके तूने कहीं झाँका तो नहीं गुलज़ार
पिछले महीने परिस्थतियाँ ऐसी रही कि वार्षिक संगीतमाला की आख़िरी पेशकश को आप तक पहुँचाने का समय टलता रहा।चलिए थोड़ी देर से ही सही पर अब वक़्त आ गया इस संगीतमाला का सरताजी बिगुल बजाने का और इस साल ये सेहरा बँधा है जुबली के गीत वो तेरे मेरे इश्क़ का इक, शायराना दौर सा था....पर। क्या शब्द , क्या धुन और क्या ही गायिकी इन तीनों मामलों में ये गीत अपने करीबी गीतों से कोसों आगे रहा और इसलिए इस वर्ष २०२३ का सर्वश्रेष्ठ गीत चुनने में मुझे कोई दुविधा नहीं हुई। यूँ तो इस सफलता के पीछे संगीतकार अमित त्रिवेदी, गीतकार कौसर मुनीर और गायिका सुनिधि चौहान बराबर की हक़दार हैं पर मैं कौसर मुनीर का विशेष रूप से नाम लेना चाहूँगा जिनके लिखे बोलों ने तमाम संगीतप्रेमियों के सीधे दिल पर असर किया।
आप सबके मन में एक प्रश्न उठता होगा कि क्या जीवन में प्रेम का स्वरूप हर समय एक जैसा हो सकता है? मुझे तो कम से कम ऐसा नहीं लगता। जिस सच्चे प्यार कि हम बात करते हैं मन की वो पवित्र अवस्था हमेशा तो नहीं रह पाती, पर उस अवस्था में हम अपने प्रेमी के लिए निस्वार्थ भावना से अपनी ज़िंदगी तक दाँव पर लगा देते हैं। कुछ ही दिनों पहले महान विचारक ओशो का सच्चे प्यार पर कही गयी ये उक्ति सुनी थी
प्रेम कोई स्थायी, शाश्वत चीज़ नहीं है। याद रखें, कवि जो कहते हैं वह सच नहीं है। उनकी कसौटी मत लो, कि सच्चा प्रेम शाश्वत है, और झूठा प्रेम क्षणिक है - नहीं! मामला ठीक इसके विपरीत है. सच्चा प्यार बहुत क्षणिक होता है - लेकिन क्या क्षण!... ऐसा कि कोई इसके लिए पूरी अनंतता खो सकता है, इसके लिए पूरी अनंतता जोखिम में डाल सकता है। कौन चाहता है कि वह क्षण स्थायी रहे? और स्थायित्व को इतना महत्व क्यों दिया जाना चाहिए?... क्योंकि जीवन परिवर्तन है, प्रवाह है; केवल मृत्यु ही स्थायी है.
संगीतकार अमित त्रिवेदी, गीतकार कौसर मुनीर के साथ
भले ही प्रेम में पड़े होने के वे अद्भुत क्षण बीत जाते हैं पर हम जब भी उन लम्हों को याद करते हैं मन निर्मल हो जाता है और अतीत की यादों से प्रेम की इसी निर्मलता को कौसर मुनीर ने इस गीत में ढूँढने की कोशिश की है वो भी पूरी आत्मीयता एवम् काव्यात्मकता के साथ। फिर वो रात में अपने चाँद से आलिंगन की बात हो या फिर किसी की एक नज़र उठने या गिरने से दिल में आते भूचाल की कसक कौसर मुनीर प्रेम करने वाले हर इंसान को अपने उस वक़्त की याद दिला देती हैं जब इन कोमल भावनाओं के चक्रवात से वो गुजरा था। गीत में उन प्यारे लम्हों के गुजर जाने को लेकर कोई कड़वाहट नहीं है। बस उन हसीन पलों को फिर से मन में उतार लेने की ख़्वाहिश भर है।
संगीतकार अमित त्रिवेदी ने भी सारंगी, सितार, हारमोनियम के साथ तबले की संगत कर इस गीत का शानदार माहौल रचा है। इस गीत में सितार वादन किया है भागीरथ भट्ट ने, सारंगी सँभाली है दिलशाद खान ने हारमोनियम पर उँगलियाँ थिरकी हैं अख़लक वारसी की और तबले पर संगत है सत्यजीतकी।
गीत स्वरमंडल की झंकार से बीच सुनिधि के आलाप से आरंभ होता है। आरंभिक शेर के पार्श्व में स्वरमंडल, सितार और सारंगी की मधुर तान चलती रहती है.। गीत का मुखड़ा आते ही मुजरे के माहौल को तबले और हारमोनियम की संगत जीवंत कर देती है। पहले अंतरे के बाद सितार का बजता टुकड़ा सुन कर मन से वाह वाह निकलती है। गीत में नायिका के हाव भाव उमराव जान के फिल्मांकन की याद दिला देते हैं।सुनिधि की आवाज़ बीते कल की यादों के साथ यूँ डूबती उतराती हैं कि आँखें नम हुए बिना नहीं रह पातीं।
सुनिधि चौहान
बतौर गायिका सुनिधि चौहान के लिए पिछला साल शानदार रहा। अपने तीन दशक से भी लंबे कैरियर में बीते कुछ सालों से उन्हैं अपने हुनर के लायक काम नहीं मिल रहा था पर जुबली में बाबूजी भोले भाले, नहीं जी नहीं और वो तेरे मेरे इश्क़ का... जैसे अलग अलग प्रकृति के गीतों को जिस खूबसूरती से उन्होंने अपनी आवाज़ में ढाला उसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी।
क्या इश्क़ की दलील दूँ, क्या वक़्त से करूँ गिला
कि वो भी कोई और ही थी, कि वो भी कोई और ही था
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक, शायराना दौर सा था....
वो मैं भी कोई और ही थी वो तू भी कोई और ही था
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक, शायराना दौर सा था
वो आसमां छलांग के जो, छत पे यूँ गले से लगे
वो आसमां छलांग के जो, छत पे यूँ गले से लगे
वो रात कोई और ही थी…वो चाँद कोई और ही था
इक निगाह पे जल गए…इक निगाह पे बुझ गए
इक निगाह पे जल गए…इक निगाह पे बुझ गए
वो आग कोई और ही थी…चराग कोई और ही था
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक शायराना दौर सा था..
जिस पे बिछ गई थी मैं…जिस पे लुट गया था तू
बहार कोई और ही थी…वो बाग कोई और ही था
जिसपे मैं बिगड़ सी गई…जिससे तू मुकर सा गया
जिसपे मैं बिगड़ सी गई…जिससे तू मुकर सा गया
वो बात कोई और ही थी…वो साथ कोई और ही था।
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक शायराना दौर सा था..
वैसे मुझे जुबली देखते वक़्त ये जरूर लगा कि जितनी सशक्त भावनाएँ इस गीत में निहित थीं उस हिसाब से निर्देशक विक्रमादित्य उसे अपनी कहानी में इस्तेमाल नहीं कर पाए।
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
तो ये थे मेरी पसंद के साल के पच्चीस बेहतरीन गीत। पहले नंबर के गीत का तो आज मैंने ऍलान कर दिया। बाकी गीतों की अपनी रैंकिंग मैं अपनी अगली पोस्ट में बताऊँगा। आप जरूर बताएँ कि इन गीतों में या इनके आलावा भी इस साल के पसंदीदा गीतों की सूची अगर आपको बनानी होती तो आप किन गीतों को रखते?
वार्षिक संगीतमाला में 2023 के पच्चीस बेहतरीन गीतों की शृंखला अब अपने अंतिम चरण में आ पहुंची है। आज जिस गीत के बारे में मैं आपसे चर्चा करने जा रहा हूं उसकी रूपरेखा एक विशुद्ध मुंबईया फिल्मी गीत सरीखी है। यहां हसीन वादियां हैं, खूबसूरत परिधानों में परी सी दिखती नायिका है और साथ में एक छैल छबीला नायक जो हवा के झोंकों के बीच बहती सुरीली धुन और मन को छूते शब्दों में अपने प्रेम का इज़हार कर रहे हैं। हालांकि वास्तव में नायक वहां है नहीं पर नायिका उसकी उपस्थिति महसूस कर रही है। यथार्थ से परे होकर भी भारतीय दर्शक गीतों में इस larger than life image को दिल से पसंद करते हैं क्यूंकि ऐसे गीतों की परंपरा हिन्दी सिनेमा में शुरू से रही है या यूं कह लें कि ये बॉलीवुड की विशिष्टता है जिसे हम सबने अपनी थाती बनाकर अपने दिल में बसा लिया है।
ये गीत है फिल्म रॉकी और रानी की प्रेम कहानी से। पिछले साल के अंत में आई ये फिल्म हिट तो हुई ही थी, इसके गाने भी खूब पसंद किए गए थे। वे कमलेया और वाट झुमका से तो आप परिचित होंगे ही। आज के गीत, तुम क्या मिले जो इस फिल्म का मेरा सबसे पसंदीदा गीत है, को मैंने पिछले साल खूब सुना था और अब तक सुन रहा हूं। मुझे यकीन है कि अगर आपने ये गीत अब तक नहीं सुना तो इसे सुन कर आप अवश्य इसकी मधुरता के कायल हो जाएंगे।
अक्सर गीतों के मुखड़ों के पहले कई संगीतकार पियानो का बेहद प्यार इस्तेमाल करते हैं। तुम क्या मिले की शुरुआत भी इसी वाद्य यंत्र से होती है। जब जब इस गीत को सुनना शुरु करता हूँ पियानो की ये धुन मुझे अलग ही दुनिया में ले जाती है। वो जो प्रेम की मीठी सी कसक होती है न वही कुछ है हिमांशु पारिख के बजाए मन को तरंगित करते इस टुकड़े में । मन इस स्वरलहरी में हिलोरे ले ही रहा होता है कि अमिताभ भट्टाचार्य के शब्द समय के उस छोर पे मुझे ले जाते हैं जब ऐसी ही भावनाएँ दिल में घर बनाया करती थीं।
भला किसको अपनी ज़िंदगी में किसी ऐसे शख़्स से मिलने का इंतज़ार नहीं होता जो उसकी बेरंगी शामों को रंगीन बना दे। फीके लम्हों में नमकीनियाँ भर दे। और जब दिल की ये मुराद पूरी हो जाती है तो यही चाहत बेचैनी और मुसीबत का सबब भी बन जाती है और इसीलिए अमिताभ ने गीत के मुखड़े में लिखते हैं
बेरंगे थे दिन, बेरंगी शामें
आई हैं तुम से रंगीनियाँ
फीके थे लम्हे जीने में सारे
आई हैं तुम से नमकीनियाँ
बे-इरादा रास्तों की बन गए हो मंज़िलें
मुश्किलें हल हैं तुम्हीं से या तुम्हीं हो मुश्किलें?
पियानो की मिठास अब भी इन शब्दों के पीछे बरक़रार रहती है। अरिजीत के मोहक स्वर में तुम क्या मिले की पंच लाइन आते आते ढोलक, तबले के साथ साथ तार वाद्य और ट्रम्पेट अपनी संगत से गीत का मूड खुशनुमा कर देते हैं और फिर फ़िज़ा में तैर जाती है श्रेया की दिलकश आवाज़। अंतरों के बीच श्रेया का आलाप रस की फुहार जैसा प्रतीत होता है। प्रीतम मेलोडी के बादशाह है। श्रोताओं के कानों में कब कैसा रस घोलना है वो बखूबी जानते हैं। अरिजीत, श्रेया और अमिताभ उनके संगीत संयोजन को गायिकी और बोल से ऐसे उभारते हैं कि मन रूमानी हो ही जाता है। गीत का अंत तरार वाद्यों के साथ बजते ट्रम्पेट के उत्कर्ष से होता है।
तुम क्या मिले, तुम क्या मिले हम ना रहे हम, तुम क्या मिले जैसे मेरे दिल में खिले फागुन के मौसम, तुम क्या मिले तुम क्या मिले, तुम क्या मिले तुम क्या मिले, तुम क्या मिले
कोरे काग़ज़ों की ही तरह हैं इश्क़ बिना जवानियाँ दर्ज हुई हैं शायरी में, जिनकी हैं प्रेम कहानियाँ हम ज़माने की निगाहों में कभी गुमनाम थे अपने चर्चे कर रही हैं अब शहर की महफ़िलें
तुम क्या मिले,....
हम थे रोज़मर्रा के, एक तरह के कितने सवालों में उलझे उनके जवाबों के जैसे मिले झरने ठंडे पानी के हों रवानी में, ऊँचे पहाड़ों से बह के ठहरे तालाबों से जैसे मिले
तुम क्या मिले....
गीत के बारे में इतना कुछ कहने के बाद इसके फिल्मांकन की बात ना करूँ तो कुछ चीजें अधूरी रह जाएँगी। करण जौहर ने जब इस गीत का फिल्मांकन किया तो उनके मन में यश चोपड़ा की फिल्मों के गीत उमड़ घुमड़ रहे थे।
इस गीत में गुलमर्ग, पहलगाम और श्रीनगर के शूट किए दृश्य इतने शानदार हैं कि उन्हें देख मन बर्फ की वादियों में तुरंत लोट पोट करने का करता है। अमिताभ एक जगह लिखते हैं झरने ठंडे पानी के हों रवानी में, ऊँचे पहाड़ों से बह के ..ठहरे तालाबों से जैसे मिले...तुम क्या मिले.... और कैमरा पहाड़ से गिरती बलखाती नदी का एरियल शॉट ले रहा होता है।
प्राकृतिक खूबसूरती के साथ साथ आलिया बर्फ की सफेद चादर के परिदृश्य में अपनी रंग बिरंगी शिफॉन की साड़ियों से दर्शकों का मन मोह जाती हैं। इस गीत के बाद उन साड़ियों का ऐसा क्रेज हुआ कि वे कुल्फी साड़ियों के नाम से बाजार में बिकने भी लगीं। आलिया के व्यावसायिक कौशल की तारीफ़ करनी होगी कि प्रेगनेंसी के चार महीने बाद ही पूरी तरह फिट हो कर इस गीत के लिए कश्मीर के ठंडे मौसम में अपने आप को तैयार किया।
आइए देखें ये पूरा गीत जो है रॉकी और रानी की प्रेम कहानी का।
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
जुबली के गीत संगीत के बारे में इस गीतमाला में पहले भी चर्चा हो चुकी है और आगे और भी होगी क्यूँकि 2023 के पच्चीस बेहतरीन गीतों की इस शृंखला में बचे तीन गीतों में दो इसी वेब सीरीज के हैं। जहाँ उड़े उड़नखटोले ने आपको चालीस के दशक की याद दिला दी थी वहीं बाबूजी भोले भाले देखकर गीता दत्त और आशा जी के पचास के दशक गाए क्लब नंबर्स का चेहरा आँखों के सामने घूम गया था।
"नहीं जी नहीं" इसी कड़ी में साठ के दशक के संगीत की यादें ताज़ा कर देता है जब फिल्म संगीत में संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन की तूती बोलती थी। शंकर जयकिशन के संगीत की पहचान थी उनका आर्केस्ट्रा। उनके संगीत रिकार्डिंग के समय वादकों का एक बड़ा समूह साथ होता था। अमित त्रिवेदी ने अरेंजर परीक्षित शर्मा की मदद से बला की खूबसूरती से इस गीत में वही माहौल फिर रच दिया है। इस गीत में वॉयलिन की झंकार भी है तो साथ में मेंडोलिन की टुनटुनाहट भी। कहीं ड्रम्स के साथ मेंडोलिन की संगत है तो कहीं वॉयलिन के साथ बाँसुरी की जुगलबंदी। एकार्डियन जैसे वाद्य भी अपनी छोटी सी झलक दिखला कर उस दौर को जीवंत करते हैं।
वाद्य यंत्रों के छोटे छोटे टुकड़ों को अमित ने जिस तरह शब्दों के बीच पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम होगी।
इस मधुर संगीत रचना के बीच चलती है नायक नायिका की आपसी रूमानी नोंक झोंक, जिसे बेहद प्यारे बोलों से सजाया है गीतकार कौसर मुनीर ने। हिंदी फिल्मों में आपसी बातचीत या सवाल जवाब के ज़रिए गीत रचने की पुरानी परंपरा रही है। कौसर ने श्रोताओं को इसी कड़ी में एक नई सौगात दी है। अभी ये लिखते वक्त मुझे ख्याल आ रहा है "हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा लें का" जिसमें ये शैली अपनाई गयी थी। मिसाल के तौर पर कौसर का लिखा इस गीत का मुखड़ा देखिए
कि देखो ना, बादल तेरे आँचल से बँध के आवारा ना हो जाए, जी नहीं, जी, नहीं, कि बादल की आदत में तेरी शरारत नहीं
कि देखो ना, चंदा तेरी बिंदिया से मिल के कुँवारा ना रह जाए, जी नहीं, जी, नहीं, कि चंदा की फ़ितरत में तेरी हिमाक़त नहीं
कि हमको भी भर लो नैनों में अपने, हो सुरमे की जैसे लड़ी कि हमको भी भर लो नैनों में अपने, हो सुरमे की जैसे लड़ी नज़र-भर के पहले तुझे देख तो लें कि जल्दी है तुझको बड़ी
कि देखो ना, तारे बेचारे हमारे मिलन को तरसते हैं, जी नहीं, जी, नहीं, कि तारों की आँखों में तेरी सिफ़ारिश नहीं
कि अच्छा, चलो जी तुझे आज़माएँ, कहीं ना हो कोई कमी कि अच्छा, चलो जी तुझे आज़माएँ, कहीं ना हो कोई कमी कि जी-भर के अपनी कर लो तसल्ली, हूँ मैं भी, है तू भी यहीं
तो बैठो सिरहाने कि दरिया किनारे हमारी ही मौजें हैं, जी नहीं, जी, नहीं, कि दरिया की मौजों में तेरी नज़ाकत नहीं कि देखो ना, बादल .....नहीं, जी, नहीं
वैसे क्या आपको पता है कि जुबली का संगीत गोवा में बना था। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि 2022 में आई कला और जुबली की संगीत रचना एक साथ हुई थी। अमित त्रिवेदी इन फिल्मों के गीतकारों स्वानंद, अन्विता और कौसर को ले कर गोवा गए। उस दौर के गीतों के मूल तत्व को पकड़ने के लिए अमित त्रिवेदी ने कई दिनों तक लगातार चालीस, पचास और साठ के दशक के गाने सुने। उस दौर के अरेंजर से संपर्क साधा और फिर एक के बाद एक गानों की रिकार्डिंग करते गए। कमाल ये कि जुबली के गीतों में एक साथ आपको उस दौर के कई गीतों की झलक मिलेगी पर हर गीत बिना किसी गीत की कॉपी लगे अपनी अलग ही पहचान लिए नज़र आएगा।
वॉयलिन और ताल वाद्यों की मधुर संगत से इस गीत का आगाज़ होता है। पापोन की सुकून देती आवाज़ के साथ सुनिधि की गायिकी का नटखटपन खूब फबता है। पापोन जहाँ हेमंत दा की आवाज़ का प्रतिबिंब बन कर उभरते हैं वहीं सुनिधि की आवाज़ की चंचलता आशा जी और गीता दत्त की याद दिला देती है। वॉयलिन और ड्रम्स से जुड़े इंटरल्यूड में वॉयलिन पर सधे हाथ चंदन सिंह और उनके सहयोगियों के हैं। अगले इंटरल्यूड में वॉयलिन के साथ बाँसुरी आ जाती है। गीत के बोलों के साथ बजती मेंडोलिन के वादक हैं लक्ष्मीकांत शर्मा। तो आइए सुनिए इस गीत को और पहचानिए कि कौन सा वाद्य यंत्र कब बज रहा है?
इस गीत में आपको जोड़ी दिखेगी वामिका गब्बी और सिद्धार्थ गुप्ता की जिन्होंने पर्दे पर अपना अभिनय बखूबी किया है।
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
जावेद अख़्तर साहब की इस बात से हमेशा से इत्तेफाक़ रखता हूँ कि किसी भी गीत की धुन उसका बाहरी रूप होता है जो हमें पहले अपनी ओर आकर्षित करता है। पर गीत के बोल गीत की आत्मा होते हैं। मेरी समझ से अगर गीत की धुन अच्छी नहीं होगी तो उसकी तरफ आप उन्मुख ही नहीं होंगे पर अगर आप उससे आकर्षित हो गए हैं तो ये साथ तभी हमेशा हमेशा के लिए बना रहेगा अगर गीत के बोल आपके दिल को छू लें। अब जब 2023 के बेहतरीन गीतों को इस शृंखला में बस चार गीत ही बचे हैं तो मैं ये कह सकता हूँ कि इन गीतों की धुन तो आकर्षक है ही पर इनके बोल भी पिछले साल से अभी तक मेरे दिल में घर बना चुके हैं।
वार्षिक संगीतमाला में शामिल होने वाले इस गीत को आपमें से ज्यादातर लोगों ने नहीं सुना होगा। ये गीत है फिल्म तरला का जो कि मशहूर पाककला विशेषज्ञ तरला दलाल के जीवन से प्रेरित है।
संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसमें कोई ना कोई प्रतिभा ना हो। हाँ ये अलग बात है कि हममें से बहुत कम उस प्रतिभा को लगातार माँजते हुए समाज के सामने ले जाने का साहस कर पाते हों। घर व बच्चों की जिम्मेदारी में फँसी बहुत सारी गृहणियों के लिए तो ये आज भी मुश्किल है कि वे घर के बाहर अपनी पहचान बना पाएँ। तरला दलाल ने ये किया और क्या खूब किया लेकिन अपना मुकाम बनाने के इस संघर्ष में वो कितनी बार अपनी प्रतिभा और परिवार को एक साथ ना ले चल पाने की ग्लानि से त्रस्त रहीं।
छोटे बच्चों की देखभाल, पति और सगे संबंधियों की अपेक्षाएँ और अपना एक अलग मुकाम बनाने की ललक इन सबके बीच क्या करें क्या छोड़ें की उधेड़बुन के बीच फँसी तरला के मनोभावों को गीतकार मनोज यादव ने बेहतरीन अंदाज़ में उभारा है। मिसाल के लिए गीत का ये मुखड़ा देखिए
पल ये सुलझे सुलझे उलझे हैं क्यूँ ?
ऐसे रूठे रूठे सिरे हैं क्यूँ ?
जो बनाने चले तो बिगड़ क्यूँ गया ?
आँख खोली ही थी आँसू गड़ क्यूँ गया ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?
मनोज ने स्कूल में कविता लिखना ही गुलज़ार से प्रभावित हो कर किया था और इसीलिए तो वो ऐसी पंक्तियाँ लिख पाए हैं कि नींद को देखकर ख़्वाब डर क्यूँ गया ?.... रात होने को थी चाँद झर क्यूँ गया ? ..पल जो आया नहीं वो गुजर क्यूँ गया ?... फेर करके नज़र घर किधर को गया ?
सुहित अभ्यंकर
मैं थी पन्ना तुम कहानी, एक माँगी ज़िंदगानी
एक छींटा लिपटा ऐसे, शब्द भींगे नम है किस्से नींद को देखकर ख़्वाब डर क्यूँ गया ? रात होने को थी चाँद झर क्यूँ गया ? हम तो हम थे क्यूँ हैं मैं और तुम ? रुहदारी दर्मियाँ क्यूँ है गुम ? है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ? हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?
इस गीत के संगीतकार हैं सुहित अभ्यंकर। पुणे से ताल्लुक रखने वाले 33 वर्षीय सुहित मराठी फिल्मों में नवोदित संगीतकार और गायक के रूप में जाने जाते हैं। इस गीत के धीर गंभीर मूड को बारीकी से पकड़ने के लिए उन्होंने गिटार के साथ इसराज का प्रयोग किया है। क्या खूब बजाया है इसराज अरशद खान ने। अरशद बंगाल से आए इस वाद्य यंत्र के अग्रणी वादकों में अपना स्थान रखते हैं। दिलरुबा के नाम से भी जाना जाने वाला ये वाद्य यंत्र ऊपर से सितार और नीचे से सारंगी जैसा दिखता है। इस गीत के दो वर्जन हैं जिसमें एक तो रेखा भारद्वाज ने गाया है और दूसरा सुहित ने।
रेखा जी की गायिकी के तो हम सभी कायल हैं। उनकी आवाज़ में एक ठसक के साथ ठहराव भी है जिसकी इस गीत को जरूरत थी।
सुहित की आवाज़ में इस गीत का एक और अंतरा जिसका प्रयोग फिल्म में तो नहीं हुआ पर वो इस एल्बम का हिस्सा है।
सारी समझें नासमझ थीं, गलतियों ने गलती कर दी
फिक्रें मेरी बेवज़ह थीं, मैं ही मैं था तुम कहाँ थी ?
पल जो आया नहीं वो गुजर क्यूँ गया ?
फेर करके नज़र घर किधर को गया ?
जख्म ढूँढे मरहम मिले ना क्यूँ ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
वार्षिक संगीतमाला में अब सिर्फ पाँच गीतों से आपका परिचय कराना रह गया है और उनमें से आज का गीत है फिल्म रॉकी और रानी की प्रेम कहानी से। गीत का मुखड़ा शुरु होता है वे कमलेया.. से। हिंदी फिल्म के गानों ने पिछले एक दो दशकों में आम जन को हिंदी से ज्यादा पंजाबी शब्दों से खासा रूबरू कराया है भले ही पंजाबी चरित्र फिल्म में हों या ना हों। वैसे यहाँ वो मसला नहीं है और बात रॉकी रंधावा के पागल दिल की हो रही है। दरअसल कमलेया शब्द कमली से निकला है जिसका शाब्दिक अर्थ है पागल या जुनूनी।
पिछले साल आई फिल्मों में रॉकी और रानी की प्रेम कहानी की सफलता का बहुत बड़ा श्रेय इसके संगीत को जाता है। फिल्म का संगीत रचने के पहले निर्माता करण जौहर ने दो हिदायतें दी थीं प्रीतम को। पहली ये कि गाने लंबे यानी कम से कम दो अंतरों के होने चाहिए और दूसरी कि गीतों में नब्बे के दशक की छाप होनी चाहिए। हालांकि फिल्म के संपादन में अक्सर गाने की लंबाई पर कैंची चलती है। इस फिल्म में भी यही हुआ पर उसके पहले पूरा एलबम इतना कामयाब हो चुका था कि मेरे जैसे दर्शक तो फिल्म के गाने सुनते सुनते इसे देखने पहुँच गए। अंतरों के बीच कोरस का इस्तेमाल तो पहले भी होता था और प्रीतम ने उसी खांचे को यहाँ भी फिट करने की कोशिश की है।
जहाँ फिल्म की कथा में भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा हो तो कोई गीत तभी दिल को छूता है जब उसके शब्द के साथ आप अपने को जोड़ पाएँ। प्रेम या विरह गीतों के साथ ये सहूलियत है कि आप उन्हें फिल्म से इतर भी सुनें तो वो उतना ही असर छोड़ते हैं क्यूँकि ये ऐसे जज़्बात है जिन्हें शायद ही किसी ने महसूस नहीं किया होगा। अमिताभ प्रेमी के बेचैन दिल की दास्तान की कितनी प्यारी शुरुवात करते हुए लिखते हैं ....दो नैनों के पेचीदा सौ गलियारे इन में खो कर तू मिलता है कहाँ?......तुझको अम्बर से पिंजरे ज्यादा प्यारे उड़ जा कहने से सुनता भी तू है कहाँ ? अमिताभ की लेखनी का कमाल दूसरे अंतरे में भी बना रहता है। प्रेम में डूबे दिल के लिए कितना सही लिखा उन्होंने..... जिनपे चल के मंजिल मिलनी आसान हो, वैसे रस्ते तू चुनता है कहाँ.?... कसती है दुनिया कस ले फ़िक़रे, ताने उँगली पे आखिर गिनता भी तू है कहाँ ?
प्रीतम की मेलोडी पर बेहतरीन पकड़ है। उनकी फिल्मों में बोल लिखने का काम ज्यादातर या तो अमिताभ के पास होता है या फिर इरशाद कामिल के पास। दोनों ही कमाल के गीतकार हैं। रही बात अरिजीत की तो वो हमेशा संगीतकार की अपेक्षा से बढ़कर कर काम करते हैं। प्रीतम, अमिताभ और अरिजीत के मन के तार कहीं और भी जा के मिलते हैं। अरिजीत और अमिताभ ने अपने कैरियर के आरंभिक दौर में प्रीतम के सहायक का काम किया था। संघर्ष के उन दिनों में इस बंगाली जोड़ी को निर्माता निर्देशकों तक पहुँचाने में प्रीतम की अहम भूमिका थी। इतना समय साथ बिताने की वज़ह से उनके बीच की आपसी समझ पुख्ता हुई है। यही वज़ह है कि ये तिकड़ी जहाँ भी एक साथ होती है कुछ अच्छा बन के ही निकलता है।
वे कमलेया वे कमलेया, वे कमलेया मेरे नादान दिल दो नैनों के पेचीदा सौ गलियारे इन में खो कर तू मिलता है कहाँ तुझको अम्बर से पिंजरे ज्यादा प्यारे उड़ जा कहने से सुनता भी तू है कहाँ गल सुन ले आ गल सुन ले आ वे कमलेया मेरे नादान दिल
जा करना है तो प्यार कर ज़िद पूरी फिर इक बार कर कमलेया वे कमलेया मनमर्ज़ी कर के देख ले बदले में सब कुछ हार कर कमलेया वे कमलेया
तुझपे खुद से ज्यादा यार की चलती है इश्क़ है ये तेरा या तेरी गलती है गर सवाब है तो क्यों सज़ा मिलती है
जिनपे चल के मंजिल मिलनी आसान हो वैसे रस्ते तू चुनता है कहाँ.
कसती है दुनिया कस ले फिकरे ताने
उँगली पे आखिर गिनता भी तू है कहाँ मर्ज़ी तेरी जी भर ले आ वे कमलेया मेरे नादान दिल...
अरिजीत के साथ गीत का एक छोटा सा हिस्सा श्रेया ने भी गाया है। एक साल बीत गया पर अभी भी ये गीत लोगों की जुबां पे है। तो आइए सुनें इस गीत को एक बार फिर
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
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