आँसुओं की लीला भी बड़ी विचित्र है । ये कब, क्यों और कैसे निकल जाएँ इस बारे में पहले से कोई भविष्यवाणी करना अत्यन्त दुष्कर है । जब भी दिल की भावनायैं, चाहे वो अपार हर्ष की हों या गहरे विषाद की, जब्त करने में हम अपने आपको असहाय पाते हैं, अश्रु की बूँदें निकल ही पड़ती हैं । इस कविता में अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने आँसुओं की कहानी को उनको जन्म देने वाली भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया है ।
आँसू उस शख्स के लिये निकलते हें जिससे हमें स्नेह हो । अपने करीबी के कष्ट से हमारी आखों का द्रवित होना उसके प्रति हमारा प्यार जतलाने का एक तरीका होता है । बकौल कतील शिफाई
कोई आसूँ तेरे दामन पे गिराकरबूँद को मोती बनाना चाहता हूँ
और यहाँ कवि मन को छू लेने वाली पंक्तियों में कहते हैं
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?
पर हर वक्त इन मोतियों को यूं ही बहाते रहना भी तो ठीक नहीं...कभी कभी आँसुओं को हमें दिल में सहेज के रखना पड़ता है...कभी अपने मान सम्मान के लिए तो...कभी उन गमों को दिल ही में दफन करने के लिये जिसकी काली छाया हम अपने करीबियों पर नहीं पड़ने देना चाहते ।
इसीलिये तो कविता के अंत में कवि आँसुओ को उलाहना देते हुए कहते हैं
हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया
यों किसी का है नहीं खोते भरम आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?तो पेश है एक बेहद मर्मस्पर्शी रचना जिसके शब्द शायद आपको भी अश्रु विगलित कर दें
आँख का आँसू ढ़लकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया ?
ओस की बूँदे कमल से है कहीं
या उगलती बूँद है दो मछलियाँ
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी
खेलती हैं खंजनों की लडकियाँ ।
या जिगर पर जो फफोला था पड़ा
फूट कर के वह अचानक बह गया
हाय था अरमान, जो इतना बड़ा
आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया ।
पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ
यों किसी का है निराला पन भया
दर्द से मेरे कलेजे का लहू
देखता हूँ आज पानी बन गया ।
प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी
वह नहीं इस को सका कोई पिला
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी
वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला ।
ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो
वह समझते हैं सफर करना इसे
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?
आँख के आँसू समझ लो बात यह
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े ।
हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया
यों किसी का है नहीं खोते भरम
आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
9 टिप्पणियाँ:
मनीष भाई
बङा अच्छा लगता है आपका चयन।
एक बचपन मे कविता पढी थीः
मां मुझको एक लाठी दे दे
मै गांधी बन जाऊं।।।।।।।।
आपको कुछ ख्याल आता है क्या इसका।
अगर मालूम हो तो पोस्ट करें,आभारी रहूंगा।
समीर लाल
समीर जी आपने जो कविता उद्धृत की है वो पढ़ी तो है पर अभी याद नहीं ! जब नजर से गुजरेगी आपको जरूर बताऊँगा
hi manish,,I can remember this poem....
maa khaadi ki chadar de de mai Gandhi ban jaaunga,
sab mitro ke beech baith kar raghupati raghav gaaunga..
maa--
chut achut nahi manuga sabko apana hi jaanunga,
ek muze tu lakdi laa de tek use badh jaaunga..
maa------
ghadi kamar me latkaunga sair sabere kar aaunga,
muze rui ki poni la de takli khub chalaunga..
maa—
gaon me hi raha karunga,bhale kaam mai kiya karunga,
------ ** I can’t remember this line**
maa-----
रचना जी कविता स्मरण से लिखने का हार्दिक धन्यवाद! अब आपकी बदौलत समीर जी तक ये कविता पहुँचाने का जिम्मा मेरा !:)
manish ji namaste,
smeer ji tak kavita pahunch chuki hogi shayad. waise maine bhi unke blog se mail address par mail kiya tha....
mai "vah kadamb ka ped----"(subhadra kumari chauhan)kavita doondh rahi thi.kya wo kanhi internet par hai? agar aap jaante ho to kripaya bataen
manish ji mai aapke janjeer me ek nayee kadee ke roop me jud raha hoo yaani ki naya pathak hoo.
maine bachapan me subhadra ji ki ek kavita padhee thee" maa wo kahakar bula rahee thi,mittee khakar aayee thi!
kuchha muha me kuchha liye hatha me mujhe khilane aayee thi!!"
ho sake to, please post kariyega.
विनोद 'राहुल जी' स्वागत है आपका इस चिट्ठे पर । आपने बड़ी प्यारी कविता का उल्लेख किया है । मेरी नजरों से गुजरेगी तो जरूर प्रस्तुत करूँगा ।
rachna ji for "kadamb ka ped",try this www.hindigagan.com/jadoo/kavitayen/yehkadamb.htm
rachana can i please get the writer of maa khadi ki chadar
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