फुटबॉल का महासंग्राम समापन की ओर अग्रसर है । अखबार के पहले पन्ने चीख-चीख कर इस बात की घोषणा कर रहे हैं। रात की नींद हराम हो रही हो तो हुआ करे पर सुबह कार्यालय में लोगों की पहली बहस फुटबॉल की ही होनी है। एक आम भारतीय की तरह इस खेल पर मेरा प्यार हर चार साल के बाद इस महापर्व के दौरान ही उमड़ता है। यूरो के टी.वी. प्रसारण के बाद ये अंतराल घट कर दो साल का हो गया है। ऍसा सिर्फ मेरे साथ है ऐसी बात नहीं । मुझ जैसे बरसाती मेढ़क भारत के हर गली-मोहल्लों में भरे पड़े हैं जो चार साल में आने वाली इस मौसमी बयार के समय ही टरटराते हैं।
छाया ने प्रश्न किया था कि फुटबॉल में इतने पीछे हम क्यूँ है। अब इतनी दिलचस्पी दिखाने वाले भारतीय जनमानस से ये पूछा जाए कि भइया आप में से कितने हैं जिन्होंने स्कूल या कॉलेज के जमाने में हफ्ते भर २ घंटे भी फुटबॉल खेली हो। यकीन के साथ कह सकता हूँ कि ये संख्या २० फीसदी से भी कम आएगी। दरअसल इतनी दौड़ भाग करना हमारी प्रकृति में ही नहीं ।
अपनी बात करूँ तो फुटबॉल हम पर पहली बार तब थोपा गया जब हमने छठी कक्षा में प्रवेश किया था। स्कूल का नियम था कि पी.टी. क्लॉस के बाद सबको फुटबॉल ही खेलनी है। अब अपनी दुबली पतली काया ले कर हम कहाँ अपने अपेक्षाकृत बलिष्ठ साथियों से धींगामुश्ती करते फिरते। हाँ गोल करने की वो उत्कट अभिलाषा मन में जरूर विद्यमान रहती थी। चूंकि कक्षा के सारे विद्यार्थियों को खेलना अनिवार्य था इसलिये एक टीम में १५ से २० खिलाड़ी हो जाया करते थे। इसी सुविधा का फायदा उठा कर हम अक्सर विरोधी पक्ष की 'D' के पास खड़े दिखाई देते थे। जब गेंद गोलपोस्ट के पास आती तभी पता लगता कि मनीष किस टीम में है :)। पर क्या कहें गेंद कब्जे में होने के बावजूद मैं गोलकीपर को चकमा नहीं दे पाता था। साल बीतते गए , कक्षाएँ पार होती गईं पर एक अदद गोल करने का सपना अधूरा ही रहा । पर भगवान के घर देर है अँधेर नहीं । तीन सालों का स्वप्न, भगवन ने नवीं कक्षा में जाकर पूर्ण किया।
उस दिन दो पीरियड खाली मिल गये थे। मुख्य मैदान में जगह नहीं थी। बगल का छोटा मैदान खाली था। हमेशा की तरह इस बार मैं 'D' तो नहीं पर मध्य रेखा के आगे खड़ा था। तीन साल के अनुभवों से लोग ये तो जान ही चुके थे कि ये बंदा कहीं भी खड़ा हो ले, गोल तो करने से रहा। इसी वजह से हमारे आगे पीछे कोई टोह लेने वाला नहीं था। किसी ने हमारे गोल की तरफ से किक ली और अनजाने में गेंद हमारे पास आ गिरी। अब सामने विपक्षी रक्षक के रूप में सिर्फ एक ही खिलाड़ी था जिसकी डील डौल मेरी तरह की थी। ऊपरवाले की दया से उसे छकाने में कामयाब रहा और गोलकीपर के पास जा पहुँचा। किक तो धीमी लगी पर उसका कोण सही बना । और लो जी अंततः गोल कर ही दिया मैंने। उस गोल की खुशी मुझे आज तक है क्योंकि वो इस महान खिलाड़ी का इकलौता गोल था :p।
खैर, बात भारत के फुटबॉल प्रेम की हो रही थी। वक्त बदल रहा है। आजकल के युवा शरीर बनाने और भाग दौड़ करने पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। फिर भी जो वास्तव में इस खेल से जुड़े हैं वो दम-खम में यूरोपीय, लैटिन अमरीकी और अफ्रीकी खिलाड़ियों से काफी पीछे हैं। १० वर्षों में अगर भारतीय टीम एशिया में भी अपनी साख बना ले तो ये एक महान उपलब्धि होगी।
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5 टिप्पणियाँ:
मनीष भाई,
खुदा झूठ न बुलवाये, मैने भी कुछ गिने चुने अवसरों पर ही फुटबाल खेला होगा।
वर्ल्ड कप देख देख कर फिर जोश चढा और पिछली ही चार जुलाई को (अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर) दस दस मिनट के दो अंतराल खेले, सच में आज तक लंगडा कर चल रहा हूँ यार।
इस महासँग्राम को दूरदर्शन पर देख लेने से छोटे बच्चों के हाथ में फुटबाल दिखायी देती है।
छाया हा ,हा ,हा,हा हम सब ऐसे ही हैं।
प्रेमलता जी सही कहा आपने! पर एक बार World Cup खत्म होने के बाद भी हम उनका उत्साह बनाए रखें तो बात है!
:D bahut sahi post hai Manish!!! Jab bhi mein football dekhti hoon mujhe apne din yaad aate hein jo barish mein kichad se bhare maidan mein khelte the...! It has become now more or less a seasonal thing..!
Jab cricket shur ho to log bat aur gend lekar nikalte hein aur jaise hee soccer aaye to bas..:)
Pate ki baat kahi hai tumne yahan :D
Cheers
कीचड़ में खेलती थी । यानि बचपन से ही शैतानी में कोई कमी नहीं :)
वैसे तुमने अब तक कितने गोल किये हैं ? :p
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