नीचे की प्रविष्टि मुंबई बम विस्फोट के बाद जुलाई २००६ में लिखी थी। पिछले दो सालों में ये सिलसिला दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद, जयपुर, बंगलोर और अब अहमदाबाद तक बदस्तूर ज़ारी है। दुश्मन और शातिर और चालाक होता जा रहा है और हम वहीं के वहीं हैं। कुछ भी नहीं बदला और लगता है कि हम चुपचाप से इसे अपनी तकदीर मानकर अपने शहर की बारी का इंतज़ार करते हुए फिर अपने काम धंधों पर निकल पड़ेंगे। जिनके पास कुछ कर सकने के अधिकार या दायित्व है वो लिप सर्विस के आलावा और कुछ नहीं कर रहे। करते होते तो अब तक इन पिछले धमाकों से जुड़े अपराधियों को अब तक कटघरे तक ला चुके होते।
बार बार बात ग्राउंड इनटेलिजेंस और सही मात्रा में पुलिसिंग ना होने की होती है तो पुलिस बल में रिक्तियों को हर राज्य भरने में आतुरता क्यूँ नहीं दिखाता? क्या इसके लिए राज्य व केंद्र सरकारें दोषी नहीं हैं ? आतंकवाद के बीजों को हमारे दुश्मन देश में बोने को तैयार हो जाते हैं और आप यह कह कर बच निकलते हैं कि इनके पीछे सामाजिक आर्थिक समस्याएँ भी हैं। पर क्या देश की आम जनता ने इस समस्याओं का निवारण करने से हमारे नेताओं को रोका है। नहीं रोका फिर भी ख़ामियाजा इसी आम जनता को सहना पड़ता है।
पर सवाल वही है जो दो साल पहले था। आखिर कब तक ऐसी त्रासदियाँ हमारी जनता सहती रहेगी ? कैसे मूक दूर्शक बने रह सकते हैं हम सब आखिर कब तक?
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ईश्वर अल्लाह तेरे ज़हाँ में
नफरत क्यूँ है ? जंग है क्यूँ ?
तेरा दिल तो इतना बड़ा है
इंसां का दिल तंग हैं क्यूँ ?
कदम कदम पर, सरहद क्यूँ है ?
सारी जमीं जो तेरी है
सूरज के फेरे करती
फिर क्यूँ इतनी अंधेरी है ?
इस दुनिया के दामन पर
इंसां के लहू का रंग है क्यूँ ?
तेरा दिल तो इतना बड़ा है
इंसां का दिल तंग हैं क्यूँ ?
गूंज रही हैं कितनी चीखें
प्यार की बातें कौन सुने ?
टूट रहे हैँ कितने सपने
इनके टुकड़े कौन चुने ?
दिल की दरवाजों पर ताले
तालों पर ये जंग है क्यूँ ?
ईश्वर अल्लाह तेरे जहाँ में
नफरत क्यूँ है? जंग है क्यूँ ?
तेरा दिल तो इतना बड़ा है
इंसां का दिल तंग हैं क्यूँ ?
जावेद अख्तर
हमारे समाज की इस सच्चाई को उजागर करते इस गीत को आप यहाँ सुन सकते हैं
हम सब बहुत खिन्न हैं, उदास हैं इन सवालों को दिल में दबाये हुए । पर जानते हैं इन सब बातों का कोई सीधा साधा हल नहीं है। घृणा और सीमा रहित समाज की परिकल्पना अभी भी कोसों दूर लगती है। अपनी जिंदगी में ऍसा होते हुये देख पाए तो खुशकिस्मती होगी!
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
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आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
6 माह पहले
17 टिप्पणियाँ:
आइये मरने वालों की आत्मा की शांति के लिये कामना करें और मारने वालों को खुदा के पास भेजने का इंतजाम और दुआ।
हैं अगर कहीं खुदा,
उसके इतने मजहब क्यूं हैं?
आइये चुने सभ्य दुनिया और मजहबी दुनिया में से एक को.
kisi ne kaha hai
"saari umra gujar jaati hai aadami ki, ek ghar banane me,
aur wo ek pal bhi nahi sochate bastiya jalane me"..
aur nasik ke ek bujurg shayar likhte hai....
"kachcha hai mere ghar aur padosi ka makan bhi,,pakki ye magar beech ki deewar bahut hai"
imaan bhi bikta yanha har chiz ki tarah
aur uske bhi yanha khareed dar bahut hai"......
sorry to wirte hindi, using eng fonts,,on ur hindi blog..
हाँ, ईश्वर अल्लाह! वहीं ईश्वर अल्लाह जिसे दुनिया शुरु से इतनी भक्ती से पूजती आयी हैं। वहीं ईश्वर अल्लाह, जो आतंकवादियों को भाग जाने दे देता हैं, मसूम लोगों ही जान ले लेकर तमाशा देखने।
इस हादसे के बाद भगवान पर विश्वास हट गया, मनीष जी। कोई भगवान नहीं हैं। हैं इंसान और इंसान का नफ़रत भरा दिल।
छाया यही दुआ हम सब की है। पर मारने बालों से ज्यादा खतरनाक मरवाने वाले हैं । उन्हें भेजने का इंतजाम पहले करना होगा।
संजय सभ्य समाज को तो हम चुनना चाहते है पर कुछ लोग हैं जिनकी रोटी कुछ और करवाने से ही सिंकती है।
रचना बहुत सटीक पंक्तियाँ उद्धृत की हैं आपने।
भाषा से ज्यादा आपके विचार मायने रखते हैं। वैसे देवनागरी में लिखना कठिन नहीं है । ये पृष्ठ देखें
http://www.akshargram.com/sarvagya/index.php/Main_page
सिन्धु ऐसी घटनाओं से ऊपरवाले पर विश्वास सच में उठ सा जाता है ।
This is a real tragedy that our world is facing. As we progress - we are become more intolerant of others feeling. Be it religion, cast, country, sex, color or any other thing.
We need to realize that the biggest religion is humanity. And we all need to live together!
kanhi na kakhin hamare yanha base log bhi in kamon me hissa lete hain aur iski wajah hai ki unhe yahan kam nahi hai roti nahin hai aur door daraj se sarhadon ke par se aate hain noton ke bundle jo unse ye sab karwate hain. hum har bar marane walon ke atma ki shanti ki bat karke so jate hain.
.
क्या कहें ?
केवल कहने सुनने की औपचारिकता निभाने मात्र व
सिसकारियाँ लेते रहने से देखिये आगे आगे होता है, क्या ?
चिथड़े से उड़ते हैं हवाओं में,
जिस्म टुकड़ों में रुंधे पड़े हैं,
लाशों की बू आ रही है,
फिज़ा के चेहरे पर मुर्दनी तारी है,
फलक पर कहीं कोई तारा नहीं,
अंधेरी चादर छिदी पड़ी है,
और टपक रही है लहू की बूंदे,
धरती का दामन सुर्ख हुआ जाता है ,
फिर आदम ने खुल्द में,
किसी जुर्म को अंजाम दिया है,
अब के बार,
खून खुदा का बहा है, शायद -
सातवें अर्श पर ।
us din se hi soch rahi hu.n ki kab aap apne kisi apne ko vida kare..ya khud hansate hue ghar se nikale aur aise kisi hadse ke shikaar ho jaye kuchh pata nahi...!
kuchh kahane ko rah bhi to nahi jaata, agar is se farq padna hota to aisa hota hi kyo.n
बस खामोश है दोस्त .कहने को कुछ भी नही.....
हमारे नेतृत्व निपुंसक हो चुका है। हम अनाथो की तरह से जी रहे हैं कोई नहीं है जो देश को दिशा दे सके। पिछले पचास सालों में हम कायरता का आवरण ओढ चुके हैं ।सब कुछ चल रहा है के अंदाज में नेता देश को खाने में व्यस्त हैं। इसका कोई हल निकट भविष्य में मुझे नजर नहीं आता है।
क्या किया जाये!
बस, एक घुटन लिए मृतप्रायः जीते कले जा रहे हैं, न जाने किस ओर.
मनीष जी, इस बार मेरे पास मेरी खुद की पन्क्तियाँ हैं..घर के एक सदस्य की असामयिक मौत के कहर से हर रोज लडना पडता है....
" सपने टूट जाते हैं, आशाएँ पिघल जाती हैं,
एक असामयिक मौत कई जिन्दगियाँ निगल जाती है...
एक ही पल मे सब कुछ बदल जाता है,
फिर पहले जैसा कुछ भी नही रह जाता है...."
** क्या आपने सुना ईश्मीत सिंह की आवाज भी हमेशा के लिये बंद हो गयी है ?
सही कहा आपने, इंसान का दिल न जाने क्यूं इतना तंग होता जा रहा है।
बहरहाल, जावेद साहब की इतना प्यारागीत सुनाने के लिए शुक्रिया।
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