शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

भले दिनों की बात है, भली सी एक शक्ल थी... प्रेम के बदलते स्वरूप को उभारती फ़राज़ की एक नज़्म

अहमद फ़राज़ साहब पाकिस्तान के मशहूर शायर थे। भारत में भी हमेशा से ही उन्हें बड़े चाव से पढ़ा जाता रहा है और जाता रहेगा। भला इनकी लिखी गजल रंजिश ही सही.. किस गजल प्रेमी ने नहीं सुनी होगी। आज उनकी ही एक नज्म पेशे खिदमत है जो कुछ साल पहले सरहद पार के एक मित्र के सौजन्य से पढ़ने को मिली थी।

प्रेम का शाश्वत स्वरूप हमेशा से बहस का विषय रहा है। पर फिर भी इस पर विश्वास करने वाले तो यही कहते रहेंगे कि सच्चा प्रेम अजर अमर होता है।मिसाल के तौर पर प्रसिद्ध अमरीकी कवयित्री एमिली डिकिन्सन (Emily Dickinson) इस सूक्ति पर गौर करें..


पर इतना सहज भी नहीं है समझना प्रेम के इस डायनमिक्स को। आज के इस युग में जब रिश्ते पल में बनते और बिगड़ते हैं तो उससे क्या ये नतीज़ा निकाल लेना चाहिए कि इन रिश्तों में प्रेम हरगिज़ नहीं है। या इसकी वज़ह है कि प्रेम का बीज प्रस्फुटित होने के बाद भी आज की भागमभाग, ऊपर की सीढ़ियाँ तक जल्दी पहुँचने की बेसब्री और इन सब के पीछे हम सब में बढ़ता अहम, इसे फलते फूलते पौधे के रूप में तब्दील होने से पहले ही रोक देता है।

दरअसल बड़ा मुश्किल है ये फैसला कर पाना कि प्रेम को निजी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक बेड़ी की तरह समझा जाए या नहीं? पर एक बात तो पक्की है ये हम सबको पता होता है कि इन बेड़ियों को तोड़ देने के बाद हम जितना पाते गए हैं अंदर ही अंदर दिल में एक खोखलापन भी भरता गया है।

अहमद फ़राज़ ने अपनी इस नज़्म में इस सवाल का उत्तर तो नहीं दिया पर ये जरूर है कि ज़िंदगी के किसी मुकाम तक एक शख़्स से मिलने और बिछुड़ने की इस सीधी‍- सच्ची दास्तान को किस्सागोई के अंदाज़ में वो इस तरह कह गए हैं कि नज़्म पढ़ते पढ़ते दिल में उतरती सी चली जाती है।


भले दिनों की बात है,
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी

ना ये कि वो चले तो
कहकशां सी रहगुजर लगे
मगर वो साथ हो तो फिर
भला भला सफर लगे

कहकशां - आकाश-गंगा

कोई भी रुत हो उसकी छाब
फज़ां का रंगो रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी
वो सर्दियों की धूप थी

छाब-छवि

ना ऍसी खुश लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
न इतनी बेतक़ल्लुफ़ी
कि आईना हया करे

ना मुद्दतों जुदा रहे
ना साथ सुबह-ओ-शाम हो
ना रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
ना ये कि इज़्न-आम हो

ना आशिकी जुनून की
कि जिंदगी अज़ाब हो
न इस कदर कठोरपन
कि दोस्ती खराब हो
अजाब - कष्टप्रद

सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जां फिज़ा तो क्या
फिराक़-ए-जां गुसल की भी

मुआमलात - मामला, विसाल - मिलन, फिराक़ - वियोग

सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गयी
मैं इश्क को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गयी

मैं इश्क का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
बदतरज़ हवस कहे
असीर - बन्दी, कफस - पिंजड़ा

शज़र, हजर नहीं के हम
हमेशा पा-बे-गुल रहें
ना डोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तकिल रहें

शजर - टहनी, पेड़, हजर - पत्थर, पा - पैर
गुल - फूल, मुस्तकिल -मजबूती से डाला हुआ


मैं कोई पेटिंग नहीं
कि एक फ्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ

तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं इस मिज़ाज़ की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं

ना उस को मुझ पे मान था
ना मुझ को उस पे जाम ही
जो अहद ही कोई ना हो
तो क्या ग़म-ए-शिक़स्तगी
अहद - प्रतिज्ञा, शिक़स्त- हार

सो अपना अपना रास्ता
हँसी खुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं मगर कभी-कभी...


ये कभी-कभी वाली बात इस बात को पुरजोर अंदाज में रखती है कि यादें दब सकती हैं, स्याह पड़ सकती हैं पर मरती नहीं ।
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19 टिप्पणियाँ:

प्रेमलता पांडे on जुलाई 30, 2006 ने कहा…

हलकी-फुल्की नहीं बात तो इसमें भी गहरी छिपी है।

rachana on जुलाई 31, 2006 ने कहा…

"ना आशिकी जुनून की
कि जिंदगी अजाब हो
न इस कदर कठोरपन
कि दोस्ती खराब हो"
ye panktiyaN bahut achchi hai..ek saral bhav ki gazal jo sahaj se khoobsurat bhav liye hai...ise baNtane ke liye shukriya..

Pratyaksha on जुलाई 31, 2006 ने कहा…

बहुत अच्छी लगी

ई-छाया on अगस्त 01, 2006 ने कहा…

वाह वाह।

Manish Kumar on अगस्त 03, 2006 ने कहा…

प्रेमलता जी गहरी बात से मतलब मेरा भाव से ज्यादा भाषा से था । दो शख्सों के बीच सहजता से कही गयी सीधी- सच्ची नज्म जो इस खूबी से कही गयी है कि बिना दिमाग पर जोर लगाए दिल में सीधे उतर जाये। नज्म आपको भी अच्छी लगी ये जानकर खुशी हुई ।

Manish Kumar on अगस्त 03, 2006 ने कहा…

रचना जी बिलकुल ! ऐसे ही विचार मेरे भी हैं इस नज्म के लिये ।


प्रत्यक्षा और छाया पसंदगी का शुक्रिया !

Manish Kumar on अगस्त 07, 2006 ने कहा…

पसंद करने का शुक्रिया गौरव !

बेनामी ने कहा…

i want to read AHMADFARAJ ki gajalen more.
rita thakur

Manish Kumar on मार्च 10, 2007 ने कहा…

रीता ठाकुर जी ब्लॉग पर आने का शुक्रिया !
अहमद फराज की गजलें और नज्में आप यहाँ पढ़ सकती हैं ।

http://www.urdupoetry.com/faraz.html

वाणी गीत on सितंबर 19, 2009 ने कहा…

बहुत अच्छी नज़्म ..बीच में उर्दू शब्दों के अर्थ देकर बहुत अच्छा किया ..कई बार कुछ शब्द समझ में नहीं आने पर ग़ज़ल का पूरा लुत्फ़ जाता रहता है ..
आभार ..!!

Arvind Mishra on सितंबर 19, 2009 ने कहा…

अंतस को छू गयी यह नज्म ,बेकस हुआ दिल !

रचना. on सितंबर 19, 2009 ने कहा…

बहुत सहज सरल और उम्दा!! शुक्रिया इसे यहां लिखने के लिये..

Himanshu Pandey on सितंबर 19, 2009 ने कहा…

बेहद खूबसूरत नज़्म । इसी अंदाज में लिखी एक नज़्म जगजीत सिंह की आवाज में सुनी थी - "बहुत दिनों की बात है.."

ठीक पास शब्दार्थ देकर आसान बना दिया है नज़्म को समझना । आभार ।

डॉ .अनुराग on सितंबर 19, 2009 ने कहा…

क्या बात है ...इन दिनों फैज की एक नज़्म ही सुन रहे है ......दिन बना दिया भाई .....

Atul Chaturvedi ने कहा…

"shaandar ! अच्छी नज्म है"

Manish Kumar on सितंबर 19, 2009 ने कहा…

हिमांशु जी हाँ वो भी एक दिलकश नज़्म थी। इस चिट्ठे पर पिछले साल आप सब से यहाँ बाँट चुका हूँ

अनूप शुक्ल on सितंबर 20, 2009 ने कहा…

बहुत सुन्दर!

Puja Upadhyay on अक्तूबर 16, 2009 ने कहा…

अब उस की याद रात दिन
नहीं मगर कभी-कभी
बड़ी सादगी से कही खूबसूरत बात. ये आखिरी लाइंस बहुत अच्छी लगी, बिलकुल जिंदगी के करीब.

बेनामी ने कहा…

जगजीत सिंह साहब ने बाकमाल गाया है।
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