मंगलवार, अगस्त 29, 2006

कहाँ गए संगीत के सुर ! मर गई क्या मेलोडी ?

जी नहीं ये प्रश्न मैं नहीं बल्कि हमारे अग्रज श्री जी.के.अवधिया जी पूछ रहे हैं हम सबसे परिचर्चा पर !

अवधिया जी मेरे मन में ये कहते हुये जरा भी संदेह नहीं कि भारत जैसे देश में संगीत की लय ना कभी मरी थी ना कभी मरेगी। समय के साथ साथ हमारे फिल्म संगीत में बदलाव जरूर आया है। ५० के दशक के बाद से इसमें कई अच्छे-बुरे उतार-चढ़ाव आये हैं । पर आपका ये कहना कि आज का संगीतकार 'मेलॉडियस' संरचना शायद करना ही नहीं चाहता सत्य से कोसों दूर है। इससे पहले कि मैं आज के संगीतकारों के बारे में आपकी राय पर कुछ प्रतिक्रिया दूँ फिल्म संगीत के अतीत पर नजर डालना लाजिमी होगा ।

इसमें कोई शक नहीं पुरानी फिल्मों के गीत इतने सालों के बाद भी दिल पर वही तासीर छोड़ते हैं ।
नौशाद, शंकर जयकिशन, एस. डी. बर्मन जैसे कमाल के संगीतकारों,
सहगल, सुरैया, गीता दत्त, लता, रफी, मुकेश, हेमंत, आशा, किशोर जैसे सुरीले गायकों
और राज कपूर, विमल राय, महबूब खान और गुरूदत जैसे संगीत पारखी निर्माता निर्देशकों ने ५० से ७० के दशक में जो फिल्म संगीत दिया वो अपने आप में अतुलनीय है। इसीलिये इस काल को हिन्दी फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जाता है । ये वो जमाना था जब गीत पहले लिखे जाते थे और उन पर धुनें बाद में बनाई जाती थीं ।

वक्त बदला और ७० के दशक में पंचम दा ने भारतीय संगीत के साथ रॉक संगीत का सफल समावेश पहली बार 'हरे राम हरे कृष्ण' में किया । वहीं ८० के दशक में बप्पी लाहिड़ी ने डिस्को के संगीत को अपनी धुनों का केन्द्रबिन्दु रखा । मेरी समझ से ८० का उत्तरार्ध फिल्म संगीत का पराभव काल था । बिनाका गीत माला में मवाली, हिम्मतवाला सरीखी फिल्मों के गीत भी शुरु की पायदानों पर अपनी जगह बना रहे थे । और शायद यही वजह या एक कारण रहा कि उस समय के हालातों से संगीत प्रेमी विक्षुब्ध जनता पहली बार गजल और भजन गायकी की ओर उन्मुख हुई। जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, तलत अजीज, पीनाज मसानी जैसे कलाकार इसी काल में उभरे।

९० का उत्तरार्ध हिन्दी फिल्म संगीत के पुनर्जागरण का समय था । पंचम दा तो नहीं रहे पर जाते जाते १९४२ ए लव स्टोरी (१९९३) का अमूल्य तोहफा अवश्य दे गए । कविता कृष्णामूर्ति के इस काव्यात्मक गीत का रस अवधिया जी आपने ना लिया हो तो जरूर लीजि॓एगा

क्यूँ नये लग रहे हें ये धरती गगन
मेंने पूछा तो बोली ये पगली पवन
प्यार हुआ चुपके से.. ये क्या हुआ चुपके से

मेंने बादल से कभी, ये कहानी थी सुनी
पर्वतों से इक नदी, मिलने से सागर चली
झूमती, घूमती, नाचती, दौड़ती
खो गयी अपने सागर में जा के नदी
देखने प्यार की ऍसी जादूगरी
चाँद खिला चुपके से..प्यार हुआ चुपके से..


पुरानी फिल्मों से आज के संगीत में फर्क ये है कि रिदम यानि तर्ज पर जोर ज्यादा है। तरह तरह के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होने लगा है। धुनें पहले बनती हैँ, गीत बाद में लिखे जाते हैं। नतीजन बोल पीछे हो जाते हैं और सिर्फ बीट्स पर ही गीत चल निकलते हैं।
ऐसे गीत ज्यादा दिन जेहन में नहीं रह पाते। पर ये ढर्रा सब पर लागू नहीं होता ।

१९९५-२००६ तक के हिन्दी फिल्म संगीत के सफर पर चलें तो ऐसे कितने ही संगीतकार हैं जिन पर आपका कथन आज का संगीतकार 'मेलॉडियस' संरचना .................बिलकुल सही नहीं बैठता । कुछ बानगी पेश कर रहा हूँ ताकि ये स्पष्ट हो सके कि मैं ऐसा क्यूँ कह रहा हूँ।

साल था १९९६ और संगीतकार थे यही ओंकारा वाले विशाल भारद्वाज और फिल्म थी माचिस ! आतंकवाद की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म का संगीत कमाल का था ! भला

छोड़ आये हम वो गलियाँ.....
चप्पा चप्पा चरखा चले.. और
तुम गये सब गया, मैं अपनी ही मिट्टी तले दब गया


जैसे गीतों और उनकी धुनों को कौन भूल सकता है ?

इसी साल यानि १९९६ में प्रदर्शित फिल्म इस रात की सुबह नहीं में उभरे एक और उत्कृष्ट संगीतकार एम. एम. करीम साहब ! एस. पी. बालासुब्रमण्यम के गाये इस गीत और वस्तुतः पूरी फिल्म में दिया गया उनका संगीत काबिले तारीफ है

मेरे तेरे नाम नहीं है
ये दर्द पुराना है,
जीवन क्या है
तेज हवा में दीप जलाना है

दुख की नगरी, कौन सी नगरी
आँसू की क्या जात
सारे तारे दूर के तारे, सबके छोटे हाथ
अपने-अपने गम का सबको साथ निभाना है..
मेरे तेरे नाम नहीं है.....


१९९९ में आई हम दिल दे चुके सनम और साथ ही हिन्दी फिल्म जगत के क्षितिज पर उभरे इस्माइल दरबार साहब ! शायद ही कोई संगीत प्रेमी हो जो उनकी धुन पर बने इस गीत का प्रशंसक ना हो

तड़प- तड़प के इस दिल से आह निकलती रही....
ऍसा क्या गुनाह किया कि लुट गये,
हां लुट गये हम तेरी मोहब्बत में...



पर हिन्दी फिल्म संगीत को विश्व संगीत से जोड़ने में अगर किसी एक संगीतकार का नाम लिया जाए तो वो ए. आर रहमान का होगा । रहमान एक ऐसे गुणी संगीतकार हैं जिन्हें पश्चिमी संगीत की सारी विधाओं की उतनी ही पकड़ है जितनी हिन्दुस्तानी संगीत की । जहाँ अपनी शुरुआत की फिल्मों में वो फ्यूजन म्यूजिक (रोजा, रंगीला,दौड़ ) पेश करते दिखे तो , जुबैदा और लगान में विशुद्ध भारतीय संगीत से सारे देश को अपने साथ झुमाया। खैर शांत कलेवर लिये हुये मीनाक्षी - ए टेल आफ थ्री सिटीज (२००४) का ये गीत सुनें

कोई सच्चे ख्वाब दिखाकर, आँखों में समा जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
जब सूरज थकने लगता है
और धूप सिमटने लगती है
कोई अनजानी सी चीज मेरी सांसों से लिपटने लगती है
में दिल के करीब आ जाती हूँ , दिल मेरे करीब आ जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है


२००४ में एक एड्स पर एक फिल्म बनी थी "फिर मिलेंगे" प्रसून जोशी के लिखे गीत और शंकर-एहसान-लॉय का संगीत किसी भी मायने में फिल्म संगीत के स्वर्णिम काल में रचित गीतों से कम नहीं हैं। इन पंक्तियों पर गौर करें

खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे
बूंदों को धरती पर साज एक बजाने दे
हवायें कह रहीं हैं, आ जा झूमें जरा
गगन के गाल को चल जा के छू लें जरा

झील एक आदत है, तुझमें ही तो रहती है
और नदी शरारत है तेरे संग बहती है
उतार गम के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे
कंकरों को तलवों में गुदगुदी मचाने दे


और फिर २००५ की सुपरिचित फिल्म परिणिता में आयी एक और जुगल जोड़ी संगीतकार शान्तनु मोइत्रा और गीतकार स्वान्द किरकिरे की !
अंधेरी रात में परिणिता का दर्द क्या इन लफ्जो में उभर कर आता है

रतिया अंधियारी रतिया
रात हमारी तो, चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद, आई वो अकेली है
चुप्पी की बिरहा है, झींगुर का बाजे साथ


गीतों की ये फेरहिस्त तो चलती जाएगी। मेंने तो अपनी पसंद के कुछ गीतों को चुना ये दिखाने के लिये कि ना मेलोडी मरी है ना कुछ हट कर संगीत देने वाले संगीतकार।

हमारे इतने प्रतिभावान संगीतकारों और गीतकारों के रहते हुये आज के संगीत से आपकी नाउम्मीदी उनके साथ न्याय नहीं है । मैं मानता हूँ कि हीमेश रेशमिया जैसे जीव अपनी गायकी से आपका सिर दर्द करा देंते होंगे पर वहीं सोनू निगम और श्रेया घोषाल की सुरीली आवाज भी आपके पास हैं। अगर एक ओर अलताफ रजा हें तो दूसरी ओर जगजीत सिंह भी हैं । अगर आपको MTV का पॉप कल्चर ही आज के युवाओं का कल्चर लगता है तो एक नजर Zee के शो सा-रे-गा-मा पर नजर दौड़ाइये जहाँ युवा प्रतिभाएँ हिन्दी फिल्म संगीत को ऊपर ले जाने को कटिबद्ध दिखती हैं ।

सच कहूँ तो आज जैसी विविधता संगीत के क्षेत्र में उपलब्ध है वैसी पहले कभी नहीँ थी । संगीत की सीमा देश तक सीमित नहीं, और जो नये प्रयोग हमारे संगीतकार कर रहे हैँ उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें खुले दिल से सुनना चाहिए। जब तक संगीत को चाहने वाले रहेंगे, सुर और ताल कभी नहीं मरेंगे । जरूरत है तो संगीत के सही चुनाव की।

श्रेणी : अपनी बात आपके साथ में प्रेषित
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18 टिप्पणियाँ:

Jitendra Chaudhary on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

बहुत सुन्दर लेख लिखा है मुनीष जी।

मेलोडी नही मरती, कभी नही मरती। हाँ उपलब्धता कम ज्यादा हो सकती है। लगभग, कभी रोजे तो कभी ईद वाला हाल होता है। शोर मे से भी कभी ना कभी सुरीला संगीत निकल कर आ ही जाता है।

आज भी काफ़ी गीतकार है तो अच्छे गीत लिख रहे है, कभी अलविदा ना कहना का "मितवा.." देखिए। काफ़ी सुन्दर लिखा और गाया गया है। लिस्ट तो कभी ना खत्म होने वाली चीज है।

प्रेमलता पांडे on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

विलक्षण अभिव्यक्ति! बहुत अच्छा लिखा है।

rachana on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

आपकी बात से पूरी तरह सहमत हैँ, अच्छे गीतकार,सँगीतकार और फिल्मकार आज भी हैँ.हमे पूर्वाग्रह से मुक्त होना होगा.आपने उम्दा लेख लिखा है.

Jagdish Bhatia on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

अच्छा संगीत कभी नहीं मर सकता।
अच्छे की पहचान और परिभाषाएं बदल रही हैं शायद।

Sagar Chand Nahar on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

बहुत सुन्दर विवेचन, आशीष भाई!
आपने जिन गानों का उदाहरण दिया वे सारे के सारे वाकई लाजवाब हैं,
परन्तु पता नहीं मन में क्यों एक संदेह है कि क्या :1942 A love story" का संगीत वाकई आर डी ने दिया था?

Udan Tashtari on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

अच्छा लिखा है, बधाई.

Manish Kumar on अगस्त 29, 2006 ने कहा…

जीतू और सागर भाई
काहे हमारा नाम बदलने पे तुले हो आप दोनों ! :) मनीष अच्छा नहीं लगता क्या ? :p

जीतू, हमारी राय इस विषय पर एक सी है जानकर खुशी हुई ।
मितवा के बारे में पहले भी लिखा था इसलिये इस पोस्ट में उस गीत को उद्धत नहीं किया ।

सागर जी १९४२.... में पंचम के योगदान के बारे में अपना संदेह दूर करने के लिये ये links देखें
http://www.raaga.com/channels/hindi/movie/H000001.html

http://www.musicindiaonline.com/l/17/s/movie_name.2118/

ई-छाया on अगस्त 30, 2006 ने कहा…

बहुत सुंदर। मनीष जी, पुराने गीतों की तो बात ही कुछ और थी जहांपनाह। पहले गीतों पर धुनें बनती थीं अब धुनों पर गीत बनते हैं। लेकिन कुछ नये गीत भी मन को भाते हैं।

Unknown on अगस्त 30, 2006 ने कहा…

निःसंदेह अत्युत्तम अभिव्यक्ति है| गीत के बोलों के मनकों को बड़ी खूबसूरती के साथ पिरोया है आपने| पढ़ कर संतोष मिला|

जी हाँ, 'क्यूँ नये लग रहे हें ये धरती गगन.....' का रसास्वादन किया है मैंने, मेरे प्रिय गीतों में से एक है यह | आपको शायद पता होगा पर बहुत से बंधु नहीं जानते होंगे कि '१९४२ ए लव स्टोरी' "पंचम दा" (आर.डी. बर्मन) के संगीत निर्देशन वाली अंतिम फिल्म है|

मैं मानता हूँ कि आज भी बहुत सारे प्रतिभावान संगीतकार और गीतकार हैं और मैं उनके साथ अन्याय भी नहीं करना चाहता पर उनसे केवल यह उम्मीद करना चाहता हूँ कि वे ऐसा संगीत दें कि उनकी विशिष्ट पहचान बन जाये | यह तो आपको भी मानना पड़ेगा कि आज हजारों गीतों में केवल एक-दो रचनाएँ ही कर्णप्रिय बन पा रही हैं और फिर उनकी आयु भी बहुत ही कम होती है, कुछ ही दिनों बाद ही उन्हें हम भूल जाते हैं |

अंत में इतना और कहना चाहता हूँ कि मेरा कतइ यह इरादा नहीं है कि मैं अपने विचारों से किसी को ठेस पहुँचाऊँ, अनजाने ही यदि किसी को ठेस लगी हो तो उसके लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ |

जी.के. अवधिया

Manish Kumar on सितंबर 01, 2006 ने कहा…

समीर, प्रेमलता और रचना जी पसंदगी का शुक्रिया !

जगदीश जी सही कहा ! संगीत में समय के साथ साथ परिवर्तन तो होता ही है । आज का संगीत विश्व संगीत की विभिन्न विधाओं को आत्मसात कर रहा है ।

Manish Kumar on सितंबर 01, 2006 ने कहा…

छाया
मैं पूरी तरह सहमत हूं आपकी बातों से । दरअसल मैंने अपनी पोस्ट में ये लिखा भी है
"............निर्माता निर्देशकों ने ५० से ७० के दशक में जो फिल्म संगीत दिया वो अपने आप में अतुलनीय है। ......ये वो जमाना था जब गीत पहले लिखे जाते थे और उन पर धुनें बाद में बनाई जाती थीं ।"
.......पुरानी फिल्मों से आज के संगीत में फर्क ये है कि रिदम यानि तर्ज पर जोर ज्यादा है। तरह तरह के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होने लगा है। धुनें पहले बनती हैँ, गीत बाद में लिखे जाते हैं। नतीजन बोल पीछे हो जाते हैं और सिर्फ बीट्स पर ही गीत चल निकलते हैं।
ऐसे गीत ज्यादा दिन जेहन में नहीं रह पाते। पर ये ढर्रा सब पर लागू नहीं होता .........और यही इस लेख का मुख्य बिन्दु है

Manish Kumar on सितंबर 01, 2006 ने कहा…

अवधिया जी आप की बात का जवाब देना मैंने इसलिये जरूरी समझा क्योंकि मैं मानता हूँ कि ८० के दशक की गिरावट के बाद पिछले १५ सालों में एक नया संगीत युवा प्रतिभावान संगीतकारों की मदद से उभरा है । ये नहीं कि ये उस स्वर्णिम काल की पुनरावृति कर देंगे पर इनमें कुछ नया करने और देने की ललक और प्रतिभा दोनों है जिसे निरंतर बढ़ावा देने की जरूरत है ।
अवधिया जी मैंने जो गीत उद्धत किये हैं वो कुछ दिन असर वाले नहीं हैं और ना ही १००० गानों में एक गीत ऐसा आता है। ये अतिश्योक्ति हैं और खासकर तब जब आप साथ में ये भी कहते हैं कि आपने आज कल के गाने सुनना ही बंद कर रखा है। हाँ आज के बाजार शासित संगीत उद्योग में ये संख्या अंदाजन १० प्रतिशत के लगभग होगी जो और बढ़ सकती है यदि हम हिन्दी और उर्दू साहित्य के प्रति नई पौध में रुझान पैदा करें ताकि ना केवल अच्छे गीत संगीत को ज्यादा से ज्यादा प्रश्रय देने वाला एक वर्ग तैयार हो पर साथ ही साथ नये गीतकार संगीत जगत पर समय समय पर उभरते रहें ।
आप जैसे संगीत प्रेमी से मतभेद हो सकता है मनभेद नहीं ।और इसमें तो कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि हम सब अच्छे संगीत से प्यार रखते हैं और ये चर्चा भी इसी बात की परिचायक है ।
अपनी प्रतिक्रिया यहाँ देने के लिये आपका धन्यवाद !

renu ahuja on सितंबर 08, 2006 ने कहा…

भई आपकी पोस्ट को पढ कर सोच रहे है, कि आप ब्लागिये ही रहेंगे क्या......आपकी लेखन गुणवत्ता के हिसाब से आपको बालीवुड़ गीत समीक्षक होना चाहिए.
-श्रीमति रेणु आहूजा.

Manish Kumar on सितंबर 08, 2006 ने कहा…

तारीफ के लिये शुक्रिया रेणु जी !
फिलहाल तो एक नौकरी मिली हुई है, जब ये चली जाएगी तो आपकी recommendation लेकर ही बॉलीवुड जाएँगे। :)

VIMAL VERMA on जुलाई 17, 2007 ने कहा…

भाई मनीषजी, आपका शोध बहुत बढिया है, मैने तो यूंही लिख दिया था पर आपको पढ कर अच्छा लगा, कभी नौशाद साहब ने कहा था कि पहले २५ दिन मे हम एक गीत रिकार्ड कर पाते थे और आज १ दिन में २५ गाने रिकॉर्ड किये जाते है और इस बात मे कोई संदेह नही आज भी इक्के दुक्के अच्छे गीत तो सुनने को मिलते है पर आज का संगीत मिलोडी मे कहीं खो गया है.

गिरिजेश.. on अगस्त 15, 2007 ने कहा…

मुनीष जी, बस एक-दो बातें -

1. जगजीत सिंह, पंकज उधास से पहले भी ग़ज़लें खूब सुनी जाती थीं। तलत महमूद, के एल सहगल, मेहदी हसन, बेग़म अख़्तर, फरीदा खान, मलिका पुखराज, मास्टर मदन, अमानत अली-सलामत अली का दौर बहुत पहले शुरू हो चुका था, और मुझे लगता है कि दौर हमेशा जारी रहेगा।

2. रिदम का मतलब ताल होता है तर्ज नहीं। तर्ज दरअसल धुन को बोलते हैं।

लेकिन आपके मूल विचार से मैं पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूं। आज का संगीत ज्यादा विविधता भरा है, ज्यादा जिंदा है और गायक और वादक के लिए पहले से ज्यादा मुश्किल है। मेलोडी और हार्मनी साथ साथ चल रहे हैं और संगीतप्रेमियों को एक से बढ़कर एक खूबसूरत गीत मिल रहे हैं। ये दौर कभी नहीं थमा।

आपने सचमुच अच्छा लिखा है। बधाइयां।

Manish Kumar on अगस्त 20, 2007 ने कहा…

गिरिजेश भाई
लेख के मूल भाव से आप सहमत हैं जानकर प्रसन्नता हुई। अब आएं बाकी मुद्दों पर
१. ग़ज़ल पसंद करने वाले और सुनने वाले हमेशा रहे हैं पर अस्सी के दशक में ग़जल की विधा को आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाने का काम हुआ और मैंने अपने लेख द्वारा यही बात कहनी चाही है। बेगम अख्तर , फरीदा खानम जैसे नामी फ़नकार कभी रेडियो के लोकप्रिय कार्यक्रम बिनाका गीत माला में जगह बना पाए हों ऍसा मुझे तो ख्याल नहीं आता। पर मुझे अच्छी तरह याद है कि अस्सी के दशक में चित्रा सिंह का गाया हुआ सफ़र में धुप तो होगी तीसरी पायदान तक जा पहुँचा था गिरिजेश जी। इसी तरह उस वक़्त पंकज की चाँदी जैसा ... है तेरा..गली मोहल्लों में ऐसे बजते थे जैसे आज के समय में हीमेश रेसमिया के पॉप नंबर बजा करते हैं। मैंने अस्सी के दशक में हिन्दी फिल्म संगीत के पराभव और ग़ज़ल के आम जनमानस में पहुँचकर लोकप्रियता हासिल करने के पहलू की चर्चा की थी।
२. रिदम से मैं ताल ही कहना चाहता था , गलती से तर्ज लिखा गया। इस भूल की ओर ध्यान दिलाने का शुक्रिया !

Manish Kumar on अगस्त 20, 2007 ने कहा…

विमल जी तारीफ़ का शुक्रिया !

 

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