शनिवार, सितंबर 23, 2006

शादी का इंटरव्यू - भाग :१

शादियाँ तो हर किसी की देर-सबेर होती ही रहती हैं। २५-२६ साल की उम्र पार हुई नही कि ये विपदा पास आने लगती है। अब इससे पहले अगर आप ने कुछ कर करा लिया हो तो बात अलग है नहीं तो माता पिता की शरण में जाना ही पड़ता है कि बाबूजी अब आप ही हमारी नैया पार लगाओ । शादी के इस सामाजिक पर्व के पहले एक मजेदार सा आयोजन हुआ करता है । जी हाँ, सही पहचाना आपने यानि शादी के लिए लिया गया इंटरव्यू ! अपने हिन्दी चिट्ठा जगत के खालीपीली जी इसी दौर से गुजर रहे लगते हैं ।

अब इस इंटरव्यू को सिविल सर्विस की प्रतियोगिता परीक्षा से कम तो नही पर समकक्ष जरूर आँकना चाहिए । देखिये ना कितनी समानता है वहाँ पूरी परीक्षा तीन चरणों में होती है तो यहाँ साक्षात्कार ही तीन चरणों में होता है (पहले वर के पिता और उनके करीबी, फिर अगले चरण में घर की महिलायें और और अंतिम चरण में दूल्हे राजा खुद) अब इस परीक्षा के परिणाम की जिंदगी की दशा और दिशा संवारने में कितनी अहमियत है ये तो हम सभी जानते हैं।

बात अस्सी के दशक की है। मेरी मौसी की शादी की बातें चल रही थी । अब ये बात कितनी ही हास्यास्पद क्यूँ ना लगे पर मुझे अच्छी तरह याद है कि एक ऐसे ही साक्षात्कार में बाकी प्रश्नों के आलावा ये भी पूछा गया कि Postman पर essay लिख के दिखायें ।अब उन्होंने क्या लिखा ये तो याद नहीं पर वापस आने पर उनकी आँखें नम जरूर हो गयी थीं । कुछ ही साल बाद हमारे यहाँ मेरी दीदी की शादी के लिये एक सज्जन ने अंग्रेजी ज्ञान जांचने के लिये वही पुराना घिसापिटा प्रश्न दागा यानि
Write a letter to your father asking him for money to meet your expenses.
अब ये प्रश्न ,स्नातक के छात्र के लिये किसी भी मायने में कठिन नहीं हैं, पर जब कोई व्यक्ति डरा सहमा सजा संवरा ऐसे किसी विसुअल स्क्रूटनी के लिये बैठता है तो इस तरह के प्रश्नों पर वो अपने भावों में संतुलन कैसे बना पाता होगा ये सोचने की बात है । छोटा जरूर था पर ये सब देख के उस वक्त मुझे बेहद गुस्सा आया करता था । कल्पना करता कि अगर सभी सुसज्जित परिधानों से लैस एक कोने में दीदी लोगों के बजाए मुझे बैठाया जाता तो मेरी क्या दशा होती ।

साक्षात्कार का इस पहले चरण से निबट लें तो दूसरे चरण में वर पक्ष की महिलाओं को झेलना पड़ता है । कभी कपड़े बदल कर आओ, कभी चल के दिखाओ..वैगेरह‍-वेगेरह। दो तीन साल पहले की बात है मेरे एक दोस्त के यहाँ साड़ी देने के बहाने लोगों ने खुद ही साड़ी पहनाने की जिद ठान ली । मूल उद्देश्य तो खैर लड़की में किसी शारीरिक खामी को ढ़ूंढना था ।
और रही वर मित्रों की बात तो उनकी तो चाँदी होती है, शौक जानने के नाम पर दुनिया भर के सवाल दाग लो भले ही खुद कभी ना कोई शौक पाला हो !

अरेन्जड मैरिज के लिये ये सारे प्रकरण जरूरी हैं, इस बात से मुझे इनकार नहीं । पर ये सारा काम एक सहज वातावरण में हो तो कितना अच्छा हो । पर सहजता आए तो कैसे खासकर तब जब पलड़ा हमेशा वर पक्ष का ही भारी रहता हो। कम से कम इन अनुभवों से मैंने यही निश्चय किया था कि अपनी शादी के समय इन बातों का ध्यान रखूँगा । कितना रख पाया मैं ध्यान और कैसा रहा मेरा इंटरव्यू ये जानते हैं अगली किश्त में....

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8 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

बहुत सही बात सामने रखी है मनीष भाई. आजकल वर पक्ष के लोगों की मण्डी में आलू चुनने और अपने बेटे के लिये वधू चुनने की मानसिकताओं में कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया है. इस प्रक्रिया में सहजता लाने में भावी वर ही कुछ कर सकता है, अन्यथा मैं तो वर को घोड़ी पर बैठे हुए गधे से कम नहीं समझता!

बेनामी ने कहा…

अगले भाग का इंतज़ार है।
पर ये सौदेबाजी बड़ी ही हास्यास्पद होती है।

rachana on सितंबर 24, 2006 ने कहा…

साधुवाद आपको की ,आपने लडकी की मुसीबत समझने की कोशिश की...आपने क्या किया ये जानने का इन्तजार रहेगा..

बेनामी ने कहा…

ये चिठ्ठे मेरे काफी काम आयेंगे लगता है !अग्रीम धन्यवाद !

बेनामी ने कहा…

mujhe hindi mein type karna bilkul samajh mein nahin aata par anyway
mujhe yeh sab kisse hasyaspad se zyaada dukhad or khoon khaulaane waale lage...

बेनामी ने कहा…

बहुत ही अच्छे ढंग से आपने सामाजिक बुराई पर प्रकाश डाला है।

बेनामी ने कहा…

समाज के कथित कर्णधार ही ढो रहे जिसे,
तो ऐसी समाजिक बुराइयाँ मिटेंगी कैसे.

Manish Kumar on सितंबर 30, 2006 ने कहा…

अमित हाँ अगर आपकी तरह सब इस बात को समझें तो ये समस्या ही नहीं रहेगी ।

हितेन्द्र हास्यास्पद तो है ही पर लड़की की भावनाओं को देखें तो ऐसा बर्ताव अत्यंत दुखद भी है

रचना जी मेरे ख्याल से जिसने भी वधू पक्ष की तरफ से इस सिलसिले पर गौर किया होगा उन सबको ऐसी बातें नागवार गुजरी होंगी ।

आशीष शुक्रिया !

नंदिनी हाँ गुस्सा तो आता ही है । वैसे तो आज हालात बदले हैं पर Neptune की टिप्पणी
पर गौर करो तो लगता है कि अभी भी हम लोगों के सोचने के ढ़ंग में काफी सुधार की गुंजाइश है ।

रत्ना जी शुक्रिया !

प्रभाकर जी सही कहा आपने !

 

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