मंगलवार, अक्टूबर 03, 2006

आइए सैर करायें आपको राँची की दुर्गा पूजा की !

स्कूल - कॉलेज के जमाने में पटना के दशहरा महोत्सव को देखने का खूब आनन्द उठाया है । एक समय था जब पटना में शास्त्रीय संगीत, नृत्य, गजल और कव्वाली की महफिलें दशहरा महोत्सव के दिनों आम हुआ करती थीं । यही वक्त हुआ करता था जब हम अपने चहेते कलाकारों को करीब से देख-सुन सकते थे। पर जैसे-जैसे कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने लगी इस तरह का आयोजन करवा पाना किसी के बूते की बात नहीं रही । इस साल नयी सरकार ने अपनी ओर से जो इस सांस्कृतिक उत्सव को शुरु करने की पहल की है वो निश्चय ही कलाप्रेमियों के लिए खुशी की बात है । बचपन के कुछ दशहरे कानपुर में भी बीते हैं पर वहाँ का रंग कुछ अलग था यानि राम- सीता की झांकियाँ, राम लीला और फिर रावण दहन ।

तो क्या कुछ अलग होता है राँची में ?
दुर्गा पूजा पंडालों की संख्या के मामले में पटना ,राँची से कहीं आगे है पर पंडालों के आकार और भव्यता की बात करें तो राँची की दुर्गा पूजा पर कलकत्ता से आये कारीगरों की छाप स्पष्ट दिखती है।
भीड़ की धक्का मुक्की से बचने के लिये आजकल सब यही सोचते हैं कि जितनी देर से घूमने का कार्यक्रम शुरु किया जाए उतना ही अच्छा । पर चूंकि ज्यादातर लोगों की सोच यही हो गई है भीड़ २-२.३० बजे से पहले छटने का नाम नहीं लेती । पूरा शहर उमड़ पड़ता है सड़कों पर । खैर चलिये इस चिट्ठे पर ही सही आप सब को भी ले चलूँ कुछ खींचे गए चित्रों के माध्यम से राँची की दुर्गा पुजा की इस सैर पर !

३० सितंबर की मध्य रात्रि थी । बारिश ९ बजे आकर दुर्गा पूजा के रंग में भंग डाल चुकी थी, पर शायद माता के क्रुद्ध होने से इन्द्र को अपनी बादलों की सेना को तितर बितर होने का आदेश देना पड़ा था। और बारह बजने के साथ ही हम चल पड़े थे माँ दुर्गा के दर्शन हेतु। पिछले १० सालों में इतनी रात में दशहरा घूमने का राँची में ये मेरा पहला अवसर था ।

पंडालों में कही अक्षरधाम दिखायी पड़ा तो कहीं अलीबाबा की गुफा में से खुल जा सिम-सिम की आवाज के साथ खुलता द्वार । कहीं सीप से बने पंडाल थे तो कहीं धान के तिनकों से की गई थी आतंरिक साज सज्जा । पर सबसे भव्य पंडाल जिसे राजस्थान के राज पैलेस की शक्ल का बनाया गया था मन को मोह गया ! खुद ही देखें।













और यहाँ देखें इसी पंडाल के अंदर की कारीगरी












ध्वनि और प्रकाश के समायोजन के बीच होता हुआ महिसासुर वध !














२.३० बजे रात्रि में भी मस्ती का आलम














सड़कों पर रोशनी की बहार

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10 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

अरे यह तो बहुत भव्य है

Udan Tashtari on अक्टूबर 03, 2006 ने कहा…

काफी वहृद स्तर पर भव्य आयोजन की झलकियां बहुत मनभावन हैं. आपका बहुत धन्यवाद आपने रांची दुर्गा पूजा की सैर कराई.

Rajesh Kumar on अक्टूबर 03, 2006 ने कहा…

मनीष जी,
मैं स्वयं भी राँची का हूँ, पर दशकों से राँची की दुर्गा पूजा नहीं देखा। मेन रोड, अपर बजार आदि के भव्य आयोजन काफी मिस करता हूँ।कचहरी रोड पर गोलगप्पे के ठेले अभी भी याद है। आपका बहुत धन्यवाद, आपके वर्णन से मेरी यादें ताजा हो गई।
राजेश

प्रेमलता पांडे on अक्टूबर 03, 2006 ने कहा…

रांची की दुर्गापूजा घुमाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। चित्रण अति सुंदर बन पड़ा है।
-प्रेमलता

बेनामी ने कहा…

मनीष जी,राँची की दूर्गा-पूजा मे हमे भी ले जाने के लिये शुक्रिया.

Pratyaksha on अक्टूबर 03, 2006 ने कहा…

राँची की याद ताज़ा हो गई । यहाँ गुडगाँव में तो सब फीका ही रहता है । पटना और राँची के खासकर दशहरा से लेकर छठ तक जो रौनक रहती है उसका जवाब नहीं ।

hemanshow on अक्टूबर 04, 2006 ने कहा…

राँची की कथा खूब बाँची।

बेनामी ने कहा…

मनमोहक तथा विह्गंम चित्र के साथ वर्णन भी मजेदार था।
रोचक संस्‍मरण के साथ अच्‍छा वर्णन था।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी on अक्टूबर 05, 2006 ने कहा…

वाह क्या बात है। हमें तो कलकता के दुर्गा पूजा की याद आ गयी। ये पंडाल कपडे़ के बने होते हैं, कौन कह सकेगा।
http://www.abhivyakti-hindi.org/parva/alekh/2005/durgapuja.htm

यहाँ एक निबंध लिखा था, आपको अच्छा लगेगा अगर आप दुर्गा पूजा का हिस्सा होते हैं तो।

Manish Kumar on अक्टूबर 05, 2006 ने कहा…

उनमुक्त जी बिलकुल !

बहुत बहुत धन्यवाद समीर जी , प्रेमलता जी, रचना जी, हिमांशु और प्रमेन्द्र कि आप सब ने मेरा आमंत्रण स्वीकार किया मेरे शहर की पूजा में साथ-साथ सैर करने का :)

राजेश परिचर्चा में आपका परिचय पा चुका हूँ। हम दोनों इस शहर से जुड़े हैं वहाँ ये टिप्पणी भी की थी । मेरी ये पोस्ट आपको अपने शहर की पुरानी यादों से जोड़ पायी ये जान कर खुशी हुई ।

प्रत्यक्षा सही कहा ! मैं ने भी दो साल फरीदाबाद में काटे हैं । दुर्गा पूजा , दशहरा तो बस नाम को ही मनता है उधर और वसंत पंचमी का तो बिलकुल पता ही नहीं लगता ।

मानोशी आपका लेख पढ़ा । पूजा के पीछे की कहानी मैंने पहले आशापूर्णा जी के उपन्यासों में पढ़ी थी, पर आपके लेख में विस्तार से जानने को मिला । लिंक देने का धन्यवाद ।

 

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