बुधवार, अक्टूबर 04, 2006

ओ साथी रे... दिन डूबे ना ..!

रातें कटतीं ना थीं या यूँ कहें रातों को कटने देना कोई चाहता ही नहीं था । पर भई प्रेमियों के लिये ये कोई नई बात तो रही नहीं सो अब उन्होंने दिन को अपना निशाना बनाया है । और क्या खूब बनाया है कि मुआ सूरज भी उनकी गिरफ्त में आ गया । अब चिंता किस बात की जब सूरज ही शिकंजे में हो । अब उनका हाथ अपने हाथ में ले कर धूप और छाँव के साथ जितना मर्जी कट्टी-पट्टी खेलो कौन रोकेगा भला ।

गुलजार एक ऐसे गीतकार है जिनकी कल्पनाएँ पहले तो सुनने में अजीब लगती हैं पर ऐसा इसलिए होता है कि उनकी सोच के स्तर तक उतरने में थोड़ा वक्त लगता है । पर जब गीत सुनते सुनते मन उस विचार में डूबने लगता है तो वही अनगढ़ी कल्पनाएँ अद्भुत लगने लगती हैं। इसलिये उनके गीत के लिये कुछ ऐसा संगीत होना चाहिए जो उन भावनाओं में डूबने में श्रोता की मदद कर सके । गुलजार के लिये पहले ये काम पंचम दा किया करते थे और इस चलचित्र में बखूबी ये काम विशाल कर रहे हैं।



पार्श्व गायन की बात करें तो श्रेया की मधुर आवाज में जो शोखी और चंचलता है वो इस गीत के रोमांटिक मूड को और प्रभावी बनाती है।
वहीं विशाल की ठहरी आवाज गीत के बहाव को एक स्थिरता सी देती है। कुल मिलाकर गीत, संगीत और गायन मिलकर मन में ऐसे उतरते हैं कि इस गीत के प्रभाव से उबरने का मन नहीं होता ।

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छाँव छुए ना ऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना


थका-थका सूरज जब, नदी से हो कर निकलेगा
हरी-हरी काई पे , पाँव पड़ा तो फिसलेगा
तुम रोक के रखना, मैं जाल गिराऊँ
तुम पीठ पे लेना मैं हाथ लगाऊँ
दिन डूबे ना हा ऽ ऽऽ
तेरी मेरी अट्टी पट्टी
दाँत से काटी कट्टी
रे जइयोऽ ना, ओ पीहू रे
ओ पीहू रे, ना जइयो ना

कभी कभी यूँ करना, मैं डाँटू और तुम डरना
उबल पड़े आँखों से मीठे पानी का झरना
हम्म, तेरे दोहरे बदन में, सिल जाऊँगी रे
जब करवट लेगा, छिल जाऊँगी रे
संग लेऽ जाऊँऽगाऽ

तेरी मेरी अंगनी मंगनी
अंग संग लागी सजनी
संग लेऽऽ जाऊँऽ

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छुए नाऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना


चलचित्र - ओंकारा
गीतकार - गुलजार
संगीतकार - विशाल भारद्वाज
पार्श्व गायन - श्रेया घोषाल एवं विशाल भारद्वाज


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7 टिप्पणियाँ:

Pratik Pandey on अक्टूबर 05, 2006 ने कहा…

गुलज़ार साहब का काव्य ज़मीनी सुगन्ध से सुवासित और हृदय की गहराईयों से निकला होता है, इसलिए सीधे पढ़ने/सुनने वाले के दिल में उतर जाता है। वास्तव में यह गीत बहुत अच्छा बन पड़ा है और संगीत भी कर्णप्रिय है।

v9y on अक्टूबर 05, 2006 ने कहा…

मनीष, मुझे ऐसा याद है

छाँव छू लें ना > छाँव छुए ना
तेरे इकहरे बदन में > तेरे दोहरे बदन में

Kalicharan on अक्टूबर 08, 2006 ने कहा…

mujhe to bidi gaana bahut pasaand aaya "Onkara" ka ;)

Manish Kumar on अक्टूबर 10, 2006 ने कहा…

प्रतीक बिलकुल सही कहा तुमने !

विनय शुक्रिया बताने के लिए । मैंने बदलाव कर लिये हैं ।

कालीचरण जी स्वागत है इस चिट्ठे पर !
बीड़ी में मस्ती है। नैना ठग लेंगे में वास्तविकता और इस गीत में रूमानी भावुकता । सब रंगों का समायोजन कर दिया है गुलजार ने ओंकारा में ।

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
shashi singh on नवंबर 16, 2008 ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
shashi singh on नवंबर 19, 2008 ने कहा…

hi manish this is shashi and 4 ur kind information i am a girl....

 

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