शनिवार, अक्टूबर 28, 2006

मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना

वापस तो लौट आयें हैं यात्रा के अपने खट्टे मीठे अनुभवों को लेकर पर आज कुछ मन शेर- ओ- शायरी का हो रहा था तो सोचा कि इससे पहले कि सफर का हाल सुनाना शुरु करूँ क्यूँ ना मखमूर सईदी साहब की एक गजल आप सब के साथ बाँटी जाए ।
अब ये गजल क्या है एक नाराज आशिक का फसाना है ! तो जनाब उदासी की चादर से निकलती इन तल्ख भावनाओं पर जरा गौर कीजिए ।

गर ये शर्त -ए -ताल्लुक है कि है हमको जुदा रहना
तो ख्वाबों में भी क्यूँ आओ़ खयालों में भी क्या रहना

शजर जख्मी उम्मीदों के अभी तक लहलहाते हैं
इन्हें पतझड़ के मौसम में भी आता है हरा रहना

पुराने ख्वाब पलकों से झटक दो सोचते क्या हो
मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना

अजब क्या है अगर मखमूर तुम पर यूरिश- ए -गम है
हवाओं की तो आदत है चरागों से खफा रहना


श्रेणी:
आइए महफिल सजायें में प्रेषित
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7 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

"मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना"

जबरदस्त है भाई ये गजल ।

सूरज का सफर खत्म हुआ रात न आई,
मेरे हिस्से में ख्वाबों की सौगात न आई,
हमराह कोई और न आया तो गिला क्या ?
मेरी परछाईं भी जब मेरे साथ न आई ।

बेनामी ने कहा…

गर ये शर्त -ए -ताल्लुक है कि है हमको जुदा रहना
तो ख्वाबों में भी क्यूँ आओ़ खयालों में भी क्या रहना

वैसे तो सारी गज़ल ही सुन्दर है पर यह शेर काफी पसंद आया। हर बार तरह इस बार भी आप मोती चुन कर लाएं है।धन्यवाद।

गिरिराज जोशी on अक्टूबर 28, 2006 ने कहा…

लगे रहो मनिष भाई!!!

बहूत ही उम्दा गज़ल है, मजा आ गया। :)

बेनामी ने कहा…

अच्छी शायरी है, पसंद आई

Udan Tashtari on अक्टूबर 28, 2006 ने कहा…

बहुत बढ़ियां गज़ल लाये हैं, अब अपनी यात्रा वृतांत भी जल्दी पेश करें.

bhuvnesh sharma on अक्टूबर 29, 2006 ने कहा…

मनीषजी हमेशा की तरह एक सदाबहार पोस्ट।
गजल वाकई खूबसूरत है।

Manish Kumar on अक्टूबर 30, 2006 ने कहा…

रत्ना जी, समीर जी, शोएब, गिरिराज और भुवनेश भाई मखमूर साहब की ये गजल आप सब को अच्छी लगी जानकर खुशी हुई ।

 

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