शुक्रवार, नवंबर 24, 2006

कोई बात चले.....भाग १


कोई बात चले में मरासिम के बाद एक बार फिर गुलजार और जगजीत एक साथ आए हैं! हाँ, ये पहली बार ही हुआ है कि त्रिवेणियों को गजल की तरह गाने की सफल कोशिश की गई है। पर जहाँ पूरे एलबम में गुलजार अपने अंदाजे बयाँ से आपका दिल जीत लेते हैं वहीं दो -तीन गजलों को छोड़ दें तो जगजीत की गायिकी में कोई खास नयापन देखने को नहीं मिलता। फिर भी गुलजार जगजीत प्रेमियों का इस एलबम से दूर रहना बेहद कठिन है। तो चलिए आप सब को रूबरू करायें इस एलबम की चंद गजलों, शेरों और त्रिवेणियों से जो मेरे दिल के बेहद करीब से गुजरीं !

तो जनाब शुरुआत नजरों से करते हैं भला इनकी मदद के बिना कभी कोई बात चली है । और गुलजार की बात मानें तो कातिल निगाहें बात क्या हर एक पल को वहीं रोक दें ।
न रातें कटें ....
ना दिन चले ....
यानि पूरी दुनिया का कारोबार ठप्प... इसीलिये तो उनकी इल्तिजा है कि

नज़र उठाओ ज़रा तुम तो क़ायनात चले,
है इन्तज़ार कि आँखों से “कोई बात चले”

तुम्हारी मर्ज़ी बिना वक़्त भी अपाहिज है
न दिन खिसकता है आगे, न आगे रात चले


पर भई नयनों को कब तक निहारते रहोगे तनिक सूरत पर भी तो ध्यान दो ! अब इस त्रिवेणी को ही ले लीजिए......वल्लाह क्या खूबसूरती से किसी की सूरत को आँखों में उतारा है गुलजार ने

तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा
अजनबी चेहरे भी पहचाने से लगते हैं मुझे


तेरे रिश्तों में तो दुनिया ही पिरो ली मैने

पर अगर ना किसी की नजर -ए- इनायत हो और ना हो कोई सूरत मेहरबान तो क्या करेंगे आप?
मन मायूस और सहमा सहमा ही रहेगा ना . यही हाल कुछ इन जनाब का है । इनके हाल- ए- दिल बताते हुए गुलजार कहते हैं

सहमा सहमा डरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है


चाहत मिली नहीं ,सब कुछ अंदर टूट सा चुका है फिर भी आस है कि जाती ही नहीं....

एक पल देख लूँ तो उठता हूँ
जल गया सब जरा सा रहता है


कभी उन पुराने पलों में झांकिए। क्या उनमें से कुछ ऐसे नहीं जिन्हें आप हरगिज जीना नहीं चाहते । शायद वो पल कुछ ऐसे सवालों की याद दिला दें जिनके बारे में सोचना ही बेहद तकलीफ देह हो । तो लीजिए पेश है इस एलबम की एक बेहद संवेदनशील गजल जिसका हर एक शेर अपने आप में अनूठा है
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क्या बतायें कि जां गई कैसे ?
फिर से दोहरायें वो घड़ी कैसे ?

किसने रस्ते में चाँद रखा था
मुझको ठोकर वहाँ लगी कैसे ?

वक्त पे पाँव कब रखा हमने
जिंदगी मुँह के बल गिरी कैसे ?

आँख तो भर गई थी पानी से
तेरी तसवीर जल गई कैसे ?

हम तो अब याद भी नहीं करते
आपको हिचकी लग गई कैसे ?


इस एलबम की सारी गजलों और त्रिवेणियों को आप
यहाँ सुन सकते हैं

कभी-कभी हमारे अजीज बातों बातों में कोई इशारा ऍसा छोड़ जाते हैं जिसके मायनों को समझने की उधेड़बुन में हमें कितनी ही रातें बर्बाद करनी पड़ती हैं , पर फिर भी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते बहुत कुछ उस पंछी की तरह....बकौल गुलजार..

उड़ कर जाते हुये पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख फिजा में

अलविदा कहती थी या पास बुलाती थी उसे ?


आज के लिये तो बस इतना ही...अगली बार जिक्र करेंगे इस एलबम की एक ऐसी गजल की जो फूलों की तरह खूबसूरत है और साथ होगीं कुछ और बेशकीमती त्रिवेणियाँ और शेर..

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आइए महफिल सजायें में प्रेषित
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7 टिप्पणियाँ:

Pratik Pandey on नवंबर 24, 2006 ने कहा…

वल्लाह... इन शेरों और त्रिवेणियों को पढ़ कर ही दिल के सारे तार झंकृत हो गए, सुनकर न जाने क्या होगा? लगता है यह एल्बम ख़रीदनी ही पड़ेगी।

बेनामी ने कहा…

गज़ले मीठी और खूबसूरत है, सुनी और लगता है सी.डी खरीदना बेहतर होगा। धन्यवाद।

बेनामी ने कहा…

"क्या बतायें कि जां गई कैसे ?
फिर से दोहरायें वो घड़ी कैसे ?"

गुलजार अपनी बुलंदी पर हैं।
इतने अच्छे तरीके से जानकारी देने के लिये शुक्रिया।
आज ही सीडी लेनी पड़ेगी ।:)

bhuvnesh sharma on नवंबर 24, 2006 ने कहा…

गुलज़ार साब की त्रिवेणियाँ और जगजीत सिँह की आवाज
वाकई कहर बरपाने के लिए काफी हैँ

बेनामी ने कहा…

बहुत ही अच्छी पेशकश ।

Udan Tashtari on नवंबर 24, 2006 ने कहा…

आपके द्वारा इतने बेहतरीन तरीके से पेश करने के बाद एलबम न खरीदना तो संभव नहीं. तुरंत ढ़ूढा जायेगा इसे बाज़ार में. बधाई इस खुबसूरत पेशकश के लिये.

Manish Kumar on नवंबर 30, 2006 ने कहा…

आप सब को ये गजलें और त्रिवेणियाँ पसंद आईं, इससे मैं यह निष्कर्ष तो निकाल ही सकता हूँ कि आप सब की पसंद मेरी पसंद से मिलती जुलती है। प्रस्तुतिकरण सराहने का शुक्रिया !

 

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