ये आफिस के दौरे मेरे इस चिट्ठे की गाड़ी पर बीच - बीच में ब्रेक लगा देते हैं । आज फिर से हाजिर हूँ इस गीत के साथ...
याद है ना, पिछली बार की शाम मजाज के जीवन की उदासी ले के आई थी । आज मामला वैसा तो नहीं पर उससे खास जुदा भी नहीं ।
देखिये ना, जनाब मजरूह सुलतानपुरी अँधेरे के बीच खड़े होकर आवाजें लगा रहे हैं , उस हमसफर के लिये जो ना जाने कहाँ गुम हो गया है !
और तो और शायर के हृदय में छाई इस कालिमा को हटाने में ना सितारों की फौज काम आ रही है ना ही बहारों की खूबसूरती..
अब तो सच्चे दिल से लगाई इस पुकार का ही सहारा है.....शायद पहुँच जाए उन तक...
याद है ना, पिछली बार की शाम मजाज के जीवन की उदासी ले के आई थी । आज मामला वैसा तो नहीं पर उससे खास जुदा भी नहीं ।
देखिये ना, जनाब मजरूह सुलतानपुरी अँधेरे के बीच खड़े होकर आवाजें लगा रहे हैं , उस हमसफर के लिये जो ना जाने कहाँ गुम हो गया है !
और तो और शायर के हृदय में छाई इस कालिमा को हटाने में ना सितारों की फौज काम आ रही है ना ही बहारों की खूबसूरती..
अब तो सच्चे दिल से लगाई इस पुकार का ही सहारा है.....शायद पहुँच जाए उन तक...
चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है
कहीं से लौट के आओ बहुत अँधेऽऽरा है
कहाँ से लाऊँ, वो रंगत गई बहाऽरों की
तुम्हारे साथ गई रोशनी नजाऽरों की
मुझे भी पास बुलाओ बहुत अँधेऽऽरा है
चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है
सितारों तुमसे, अँधेरे कहाँ सँभलते हैं
उन्हीं के नक्शे कदम से चराग जलते हैं
उन्हीं को ढ़ूंढ़ के लाओ बहुत अँधेरा है
चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है
अब आप सोच रहें होंगे कि इस गीत की याद मुझे अचानक कहाँ से आ गई । सो हुआ ये कि मेरे रोमन हिन्दी ब्लॉग के एक पाठक ने भेंट स्वरूप मुझे ये गीत भेजा । यूँ तो चिराग के बाकी गीत मेरे सुने हुए थे पर ये गीत मैंने पहली बार, उस अनजान मित्र के जरिये ही सुना।
एक बार फिर शुक्रिया दोस्त इस प्यारे गीत को मुझ तक पहुँचाने के लिए । अब मुझे कोई गीत अच्छा लगे और वो आप सब के पास ना पहुँचे ये कभी हुआ है भला ? इस गीत को सुनने के लिये यहाँ क्लिक कीजिए ।
चलचित्र चिराग (१९६९) के लिये ये गीत मोहम्मद रफी की आवाज में रिकार्ड किया गया था। धुन बनाई थी मदन मोहन साहब ने ।
7 टिप्पणियाँ:
इस गीत को सुने एक समय बीता था..आज फिर से सुना कर आपने ध्न्य किया. बहुत साधुवाद, मनीष भाई. कहीं घुमने नहीं जा रहे फिर से-यात्रा वृतांत बहुत सालिड लिखते हैं आप...लगता है आपको तो स्पान्सर्ड टूर होना चाहिये. वैसे अन्यथा न लें बाकि भी आप अच्छा लिखते हैं :) :)
दो स्माईली हाजिर हैं.
इस पोस्ट के लिये धन्यवाद, मनीष!
जितनी ख़ूबसूरती से लिखा गया है, उतनी की संजीदगी से स्वरबद्ध और गाया भी गया है.
रफ़ी और मदन मोहन का एक और बहुत ही सुंदर गीत है फ़िल्म "मेरा साया" - आप के पहलू में आ कर रो लिये.
मदन मोहन और पंचम मेरे प्रिय संगीतकार हैं और दोनो के गीतों का विशाल और सुंदर संकलन मेरे पास है. :)
एक बहुत ही खूबसूरत से चिट्ठे के लिये बधाई.हर पोस्ट में आपकी भावुकता तथा कथावस्तु के साथ आपका लगाव झलकता है .
बहुत सुंदर प्रस्तुति।
धन्यवाद्, अच्छा गीत यहाँ प्रस्तुत करने के लिये.
समीर भाई जब तक कहीं और आप नहीं भेजेंगे तब तक तो हम आपको इसी तरह झेलाते रहेंगे । :)
ये गीत आपका पसदीदा निकला जान कर खुशी हुई ।
अनुराग बिलकुल सही कहा आपने इस गीत के बारे में !
पूनम बहुत - बहुत शुक्रिया ! भावनाएँ ही लिखने के लिए प्रेरित करती हें ।
प्रेमलता और रचना जी शुक्रिया सराहने का !
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