इस गीतमाला की 14 वीं कड़ी संगम है उन दो शख्सियतों की जिन्होंने मेरी गीत-संगीत की रुचियों पर खासा असर डाला है । हाईस्कूल से लेकर आज तक मैंने इन्हें बड़े चाव से सुना है । पहले बात जगजीत सिंह की । मेरे ख्याल में उर्दू शायरी को मेरी पीढ़ी में लोकप्रिय बनाने में सबसे बड़ा हाथ उन्हीं का है। भले ही अब उनकी गायिकी पुराने दिनों की तरह वो असर नहीं छोड़ती फिर भी जगजीत ,जग जीत ही हैं। उनके जैसा गजल गायक कम से कम भारत में कोई दूसरा नहीं हुआ ।
और गुलजार..... उनकी तो बात ही क्या है। उनके गीत देखकर ही पले-बढ़े हैं। आज भी उनके हर एक नए एलबम का बेसब्री से इंतजार रहता है । और यही वजह है कि यहाँ से पहली सीढ़ी तक इस गीतमाला में सात बार वो आपके साथ होंगे ।
गुलजार के गीत/गजल अपनी तरह के होते हैं । शब्द तो वो मामूली इस्तेमाल करते हैं पर उनके मायने इतने सीधे नहीं होते । उसके लिए आपको धीरे -धीरे उनकी तह तक पहुँचना पड़ता है । गुलजार से आप अगर सीधे पूछ लें कि इन पंक्तियों से वो क्या मायने निकालते हैं तो अक्सर उनका जवाब यही रहता है कि वे इसकी व्याख्या कर श्रोताओं की सोच का दायरा संकुचित नहीं करना चाहते ।
तो चलें गुलजार जगजीत के साथ इस गजल के सफर पर...
उड़ कर जाते हुये पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख फिजा में
अलविदा कहती थी या पास बुलाती थी उसे ?
कभी उन पुराने पलों में झांकिए। क्या उनमें से कुछ ऐसे नहीं जिन्हें आप हरगिज जीना नहीं चाहते । शायद वो पल कुछ ऐसे सवालों की याद दिला दें जिनके बारे में सोचना ही बेहद तकलीफ देह हो ।
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख फिजा में
अलविदा कहती थी या पास बुलाती थी उसे ?
कभी उन पुराने पलों में झांकिए। क्या उनमें से कुछ ऐसे नहीं जिन्हें आप हरगिज जीना नहीं चाहते । शायद वो पल कुछ ऐसे सवालों की याद दिला दें जिनके बारे में सोचना ही बेहद तकलीफ देह हो ।
क्या बतायें कि जां गई कैसे ?
फिर से दोहरायें वो घड़ी कैसे ?
कभी यूँ हुआ हो कि जिंदगी के रास्तों में कोई चाँद सा मिल गया हो... अरे मिला तो था तभी तो सीने की वो कसक रह रह कर उभरती है...
फिर से दोहरायें वो घड़ी कैसे ?
कभी यूँ हुआ हो कि जिंदगी के रास्तों में कोई चाँद सा मिल गया हो... अरे मिला तो था तभी तो सीने की वो कसक रह रह कर उभरती है...
किसने रस्ते में चाँद रखा था
मुझको ठोकर वहाँ लगी कैसे ?
समय से आगे दौड़ने की कोशिश करना कभी कभी बहुत भारी पड़ता है...वो कहते हैं ना सब काम अपने नियत वक्त पर होते हैं फिर ये आपाधापी क्यों?
मुझको ठोकर वहाँ लगी कैसे ?
समय से आगे दौड़ने की कोशिश करना कभी कभी बहुत भारी पड़ता है...वो कहते हैं ना सब काम अपने नियत वक्त पर होते हैं फिर ये आपाधापी क्यों?
वक्त पे पाँव कब रखा हमने
जिंदगी मुँह के बल गिरी कैसे ?
प्यार में रुसवाई हुई पर दिल की ये जलन चुप चाप इन आँसुओं ने आत्मसात कर ली। पर नैनों की ये तपिश क्या किसी से छुप सकती है...जिधर भी पड़ेंगी कुछ तो जलायेंगी ही ।
जिंदगी मुँह के बल गिरी कैसे ?
प्यार में रुसवाई हुई पर दिल की ये जलन चुप चाप इन आँसुओं ने आत्मसात कर ली। पर नैनों की ये तपिश क्या किसी से छुप सकती है...जिधर भी पड़ेंगी कुछ तो जलायेंगी ही ।
आँख तो भर गई थी पानी से
तेरी तसवीर जल गई कैसे ?
इतने दिनों का साथ क्या कोई यूँ ही भूल सकता है भला। तुमने तो बस कह दिया कि मेरे जेहन में तुम नहीं आते तो क्या मैं मान लूँ ? यहाँ ये हिचकियाँ तो कुछ और कहानी कह रहीं हैं ।
तेरी तसवीर जल गई कैसे ?
इतने दिनों का साथ क्या कोई यूँ ही भूल सकता है भला। तुमने तो बस कह दिया कि मेरे जेहन में तुम नहीं आते तो क्या मैं मान लूँ ? यहाँ ये हिचकियाँ तो कुछ और कहानी कह रहीं हैं ।
हम तो अब याद भी नहीं करते
आपको हिचकी लग गई कैसे ?
आपको हिचकी लग गई कैसे ?
5 टिप्पणियाँ:
बढ़ियां,जारी रहें.
vaah ji,
Anand aa gaya jaggu dada aur Guljar ki badhayi ek jagah paa kar.
गजल के साथ-साथ चलती आपकी लिखी पन्क्तियाँ! वाह क्या बात है!
शुक्रिया समीर जी, रचना जी और रवीन्द्र !
वाह जी वाह .........मेरी जैसी बातें आप भी लिख लेते हैं ! सच मैं भी गुलजार साहब और जगजीत के कलाम और आवाज के सम्मोहन से शायद जीवन भर ना निकल पाऊं !
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