बुधवार, मार्च 14, 2007

अमृता प्रीतम का कहानी संग्रह "दो खिड़कियाँ" - भाग :2

इस कहानी संग्रह की शुरु की कहानियों और एक लघु उपन्यास की चर्चा मैंने पिछली पोस्ट में की थी । आज इस पोस्ट में अगली कुछ कहानियों की बात करते हैं ।

अमृता जी का लिखा पढ़ते वक्त एक काव्यात्मक प्रवाह की अनुभूति होती है । यहीं देखिए अपनी एक नायिका की चढ़ती उम्र के साथ बढ़ते एकाकीपन का क्या खाका खींचा है उन्होंने

वह और उसकी उम्र मिलकर नहीं चल रही थी । उम्र लगातार और पूरे हिसाब से पैर रख-रख कर चल रही थी, पर वह आप जैसे बेहिसाब हो गई थी। उम्र तप रही थी, पर वह खुद शांत और ठंडी...
उसकी उम्र जलती आग सरीखी थी, पर लकड़ी की आग की तरह नहीं, जिसे हवा का झोंका ऊँचा कर जाए, या कोई फूँक और दहका दे। वह ठंडे शीशे में लिपटी हुई आग की तरह थी, जिससे उसके इर्द-गिर्द उजाला हो जाता था पर जिसके साथ पल्लू छुआने से पल्लू जलता नहीं था ।

जिंदगी में मशहूर होने, सब के द्वारा सराहे जाने की इच्छा तो हर किसी व्यक्ति के मन में होती ही है। फर्क सिर्फ इस बात में आता है कि सपनों मे देखे गए उस आकर्षक व्यक्तित्व को पाने के लिए हम किस तरह का यत्न करते हैं । अमृता जी की पाँचवी कथा एक ऍसे दिग्भ्रमित लड़की की सच्ची केस स्टडी है जो अपने बगल में रहने वाली मिस डी को मिलने वाले स्नेह को खुद पाने की चाहत रखती थी । मिस डी की लोकप्रियता उसके दिल में उसके लिए नफरत जगाती थी । इस नफरत को मिटाने के लिए वो किन हदों से गुजरती है इसका चित्रण अमृता जी ने बखूबी किया है.

मैं तृप्त थी - कि वह, जो उसके तन को चाहते थे, मेरे तन से तृप्त हुए, और यही सबसे बड़ा सुबूत था कि मैं, वह थी ।
ऐसा करते वक्त खुदा जानता है, मुझे किसी गुनाह का अहसास नहीं होता था । सिर्फ एक विश्वास आता था कि मैं, वह हूँ ।
वह नहीं समझती, कभी नहीं समझेगी कि इन घटनाओं से उसके लिए मेरे मन में नफरत खत्म हो रही थी ।
मैं जानती हूँ कि जब तक मैं, मैं थी, उतनी देर तक एक बहुत बड़ा फासला था, और वही फासला नफरत था । अब वह फासला मिट रहा था, इसलिए नफरत मिट रही थी .. मेरे लिए वह, जैसे एक जिस्म में नहीं, दो जिस्मों में जी रही थी...

कहानी संग्रह के अंत में अमृता जी ने एक नया प्रयोग किया है कुछ मशहूर विश्व उपन्यासों के पात्रों की मनोदशा समझने का । इस प्रयोग के बारे में वो कहती हैं

दुनिया के कुछ उपन्यासों के वह पात्र जिनके अस्तित्व को लगा - मैंने किसी घड़ी बहुत पास से छूकर देखा है । सिर्फ छू कर नहीं उसके वजूद से गुजरकर भी । उनकी कुछ साँस अपनी छाती में डालकर और उनके होठों की बात अपने होठों पर रखकर कुछ कहना चाहा है ।
इन पात्रों में चार्ल्स डिकेन्स की पत्नी कैथरीन और ऐन रेंड की लोकप्रिय पुस्तक फाउन्टेन हेड की मेलरी भी शामिल हैं।

राजकमल प्रकाशन के इस उपन्यास का मूल्य मात्र तीस रुपये है । इतने कम मूल्य में इतना अच्छा साहित्य मिलना मेरे लिए अचरज की बात थी । मेरी राय यही है कि इस कहानी संग्रह को आप सब जरूर पढ़ें ।
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6 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

Sachmuch saare Paragraphs mein mein kuchh alag hi baat hai.. goodh bhaaw ewam laybadhtaa... jyada kyaa kahun.. aise diggajon ke baare me kuchh kahnaa mere bas me nahi.. aapka Dhanywaad ise yahaan preshit kiya...

Pratyaksha on मार्च 15, 2007 ने कहा…

बहुत बढिया लिखा है । अब किताब पढनी पडेगी । हमारे भी समीक्षा लिस्ट में कई सारी किताबें हैं । देखें कब मुहुर्त निकलता है ।

बेनामी ने कहा…

pichchle kuchch dino se takaniki samasyao ke chalate bamushkil coment kar paa rahi hu....bahut shukriyaa is kitaaba ke baare me bataane ka, isee tarah kaa kuchhc pahdnaa chah rahi thi..

Poonam Misra on मार्च 17, 2007 ने कहा…

बहुत अच्छी समीक्षा की आपने.अब तो यह कहानी संग्रह पढना ही है.

Manish Kumar on मार्च 18, 2007 ने कहा…

मान्या हाँ, सही कहा आपने अमृता जी की लेखन शैली अदभुत है ।

Manish Kumar on मार्च 18, 2007 ने कहा…

प्रत्यक्षा हाँ , कहा तो था आपने अपने चिट्ठे पर ! पर वादा नहीं निभाया अब तक :)

पूनम जी शुक्रिया , अवश्य पढ़ें !

रचना जी आशा है आपका PC शीघ्र ही पूर्णतः स्वस्थ हो जाएगा ।

 

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