फैज की शायरी के बारे में नामी समीक्षक प्रकाश पंडित कहते हैं कि उनकी अद्वितीयता आधारित है उनकी शैली के लोच और मंदगति पर , कोमल. मृदुल और सौ -सौ जादू जगाने वाले शब्दों के चयन पर, तरसी हुई नाकाम निगाहें और आवाज में सोई हुई शीरीनियां ऐसी अलंकृत परिभाषाओं और रूपकों पर, और इन समस्त विशेषताओं के साथ गूढ़ से गूढ़ बात कहने के सलीके पर ।
अगर फैज की उपमाओं की खूबसूरती का आपको रसास्वादन करना हो तो उनकी नज्म 'गर मुझे इसका यकीं हो , मेरे हमदम मेरे दोस्त' की इन पंक्तियों पर गौर फरमाएँ...आपका मन उनकी कल्पनाशीलता को दाद दिए बिना नहीं रह पाएगा
कैसे मगरूर* हसीनाओं के बर्फाब से जिस्म
गर्म हाथों की हरारत से पिघल जाते हैं
कैसे इक चेहरे के ठहरे हुए मानूस नुकूश**
देखते देखते यकलख्त*** बदल जाते हैं
*दंभी **परिचित नैन नक्श ***एकाएक
किस तरह आरिजे-महबूब का शफ्फाक बिलूर*
यक-ब-यक बादा-ए-अहमर** सा दहक जाता है
कैसे गुलचीं^ के लिए झुकती है खुद शाख-ए - गुलाब
किस तरह रात का ऐवान ^^महक जाता है
*स्वच्छ कांच सदृश प्रेयसी के कपोल **शराब की लाली ^ फूल चुनने वाले ^^महल
टीना सानी की आवाज में इस दिलकश नज्म को आप यहाँ सुन सकते हैं ।
१९७८ में फैज मास्को में थे। उन्हीं दिनों उन्होंने तेलंगाना आंदोलन में शिरकत करने वाले प्रगतिशील शायर मोइनुद्दीन मखलूम की गजल से प्रेरित होकर एक गजल लिखी थी आपकी याद आती रही रात भर...। उसके चंद शेर जो मुझे पसंद हैं
आपकी याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-गम झिलमिलाती रही रात भर
एक उम्मीद पर दिल बहलता रहा
एक तमन्ना सताती रही भर
शायद वो यादे ही थीं जिसने फैज के जेल में बिताये हुए चार सालों में हमेशा से साथ दिया था । इसी प्रवास के दौरान उन्होंने एक नज्म लिखी थी 'याद' जो कि बेहद चर्चित हुई थी ।
दश्ते- तनहाई* में ऐ जाने- जहाँ लर्जां **हैं
तेरी आवाज के साये, तेरे होठों के सराब***
दश्ते- तनहाई में , दूरी के खसो - खाक^ तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन ^^ और गुलाब
*एकांत का जंगल ** कांपती हुई *** मरीचिका ^घास मिट्टी ^ ^ चमेली
इस कदर प्यार से ऐ जाने-जहां रक्खा है
दिल के रुखसार* पे इस वक्त तेरी याद ने हाथ
यूं गुमां होता है, गरचे है अभी सुब्हे-फिराक**
ढ़ल गया हिज्र^ का दिन, आ भी गई वस्ल की रात^^
*कपोल **विरह की सुबह ^वियोग ^^मिलन
इकबाल बानो की आवाज में इस नज्म को सुनने का लुत्फ ही कुछ और है ।
पर पुरानी यादों ने हमेशा फैज की शायरी में मधुर स्मृतियाँ ही जगाईं ऐसा भी नहीं है । वसंत आया तो बहार भी आई। पर अपनी खुशबू के साथ उन बिखरे रिश्तों, अधूरे ख्वाबों और उन अनसुलझे सवालों के पुलिंदे भी ले आई जिनका जवाब अतीत से लेकर वर्तमान के पन्नों में कहीं भी नजर नहीं आता ।
बहार आई तो जैसे इक बार
लौट आए हैं फिर अदम* से
वो ख्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होठों पर मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गए हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्क- बू** हैं
जो तेरे उश्शाक*** का लहू हैं
*जमे हुए, मृत ** कस्तूरी की तरह सुगंधित *** आशिकों
उबल पड़े हैं अजाब* सारे
मलाल ए अहवाल ए दोस्तां** भी
खुमार ए आगोश ए माहवशां*** भी
गुबार ए खातिर के बाब सारे
तेरे हमारे
सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई है तो खुल गए हैं
नए सिरे से हिसाब सारे
* दुख, पीड़ा ** दोस्तों के बुरे हालात के दृश्य *** चद्रमा सा सुंदर
टीना सानी की आवाज़ में इस नज़्म को सुनना एक बेहद प्यारा सा अनुभव है..
पर फैज ने अपनी शायरी को सिर्फ रूमानियत भरे अहसासों में कैद नहीं किया ।वक्त बीतने के साथ उन्होंने ये महसूस किया कि शायरी को प्यार मोहब्बत की भावनाओं तक सीमित रखना उसके उद्देश्य को संकुचित करना था । उनकी नज्म मेरे महबूब मुझसे पहली सी मोहब्बत ना माँग ... उनके इसी विचार को पुख्ता करती है ।
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा* है हयात**
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर*** का झ़गडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात^
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
*प्रकाशमान, ** जिंदगी ***सांसारिक चिंता ^ स्थायित्व
तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं *हो जाए (*सिर झुका ले)
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म*
रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथडे** हुए, ख़ून में नहलाए हुए
*सदियों से चला आ रहा अंधकारमय तिलिस्म **धूल से सना हुआ
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग !
जब फैज साहब ने नूरजहाँ की आवाज में इस नज्म को सुना तो इतने प्रभावित हुए कि उसके बाद सबसे यही कहा कि आज से ये नज्म नूरजहाँ की हुई ।
फैज कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक थे । अपनी शायरी में सामाजिक हालातों के साथ साथ फैज की ये कोशिश भी रही कि कि अपनी लेखनी से आम जनमानस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित कर सकें । सामाजिक और राजनैतिक हलचल पैदा करने वाली इन नज्मों की चर्चा करूँगा इस कड़ी के अगले और अंतिम भाग में ।
9 टिप्पणियाँ:
फ़ैज़ की रूमानियत का पूरा रायता फैला दिया आपने.. कैसे बचेगा अब कोई ..सब गिरेंगे फ़िसल फ़िसल कर..
बहुत खूबसूरत और बहती हुई प्रस्तुति है, यही तो आपकी लेखनी का कमाल है. अगली कड़ी का इंतजार है.
बहुत अच्छे मनीष, हम तो फैज को आपके माध्यम से जान रहे हैं!
अभय जी स्वागत है आपका इस चिट्ठे पर !
थोड़ा बहुत फिसलिए जनाब, रायते का नमकीन चटकदार जायका जेहन में कुछ देर भी रहा तो मैं अपनी इस प्रविष्टि को सार्थक समझूँगा ।
समीर जी एवम् अनूप भाई शुक्रिया ! जानकर खुशी हुई कि आपको मेरी ये पेशकश अच्छी लगी । अगले भाग में सामाजिक और राजनीतिक संवेदनाओं से जुड़ी कुछ नज्में लेकर फिर हाजिर हूँगा आपकी खिदमत में ।
ikbaal bano ko sun kar anand aa gaya . ab aage aur sunne ki ummeed me
Manish ji koti koti dhanyawad , is blog ko shure karne ka.
पटना में पुस्तक मेला लगा है...फैज़ साहब की किताबों पर नज़र रहेगी :)
मन राजकमल पेपरबैक्स में उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। सौ रुपये के आस पास की किताब होगी। वैसे राजपाल व वाणी में भी उनकी किताबें उपलब्ध हैं।
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