फैज अहमद 'फैज' आधुनिक उर्दू शायरी के वो आधारस्तम्भ है, जिन्होंने अपने लेखन से इसे एक नई ऊँचाई दी । १९११ में सियालकोट में जन्मे फैज ने अपनी शायरी में सिर्फ इश्क और सौंदर्य की ही चर्चा नहीं की, बल्कि देश और आवाम की दशा और दिशा पर भी लिखते रहे । शायरी की जुबान तो उनकी उर्दू रही पर गौर करने की बात है कि अंग्रेजी और अरबी में भी उन्होंने ३० के दशक में प्रथम श्रेणी से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। शायद यही वजह रही कि उनकी गजलें और नज्में अरबी फारसी के शब्दों का बहुतायत इस्तेमाल हुआ है।
पढ़ाई लिखाई खत्म हुई तो पहले अमृतसर और बाद में लाहौर में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए । १९४१ में इन्होंने एक अंग्रेज लड़की एलिस जार्ज से निकाह किया । और मजेदार बात ये रही कि ये निकाह और किसी ने नहीं बल्कि अपने शेख अबदुल्ला ने पढ़वाया था । १९४१ में फैज का पहला कविता संग्रह नक्शे फरियादी प्रकाशित हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फैज सेना में शामिल हो गए । आजादी के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा का अपने देश में प्रचार प्रसार करते रहे । लियाकत अली खाँ की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में १९५१ - १९५५ तक कैद में रहे । जिंदगी के इस मोड़ में जो कष्ट, अकेलापन और उदासी उन्होंने झेली वो इस वक्त लिखी गई उनकी नज्मों में साफ झलकती है । ये नज्में बाद में बेहद लोकप्रिय हुईं और "दस्ते सबा ' और ' जिंदानामा' नाम से प्रकाशित हुईं ।
फैज की शायरी से मेरा परिचय पहली बार तब हुआ जब अंतरजाल पर करीब तीन वर्ष पूर्व उर्दू शायरी की एक महफिल में जाना शुरु किया । तब इनकी एक नज्म गर मुझे इसका यकीं हो...सामने से गुजरी थी और कठिन लफ्जों की वजह से उसकी हर पंक्ति के मायने समझने में मुझे अच्छा खासा वक्त लगा था । पिछले तीन सालों में उनका लिखा जो मुझे खास तौर से पसंद आया वो मेरी कोशिश रहेगी की आपके साथ बांटूँ ।
जैसा की अमूमन होता है, अन्य शायरों की तरह शुरुआती दौर में हुस्न और इश्क ही फैज की शायरी का सबसे बड़ा प्रेरक रहा ।नक्शे फरियादी की शुरुआती नज्म में वो कहते हैं ।
पढ़ाई लिखाई खत्म हुई तो पहले अमृतसर और बाद में लाहौर में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए । १९४१ में इन्होंने एक अंग्रेज लड़की एलिस जार्ज से निकाह किया । और मजेदार बात ये रही कि ये निकाह और किसी ने नहीं बल्कि अपने शेख अबदुल्ला ने पढ़वाया था । १९४१ में फैज का पहला कविता संग्रह नक्शे फरियादी प्रकाशित हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फैज सेना में शामिल हो गए । आजादी के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा का अपने देश में प्रचार प्रसार करते रहे । लियाकत अली खाँ की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में १९५१ - १९५५ तक कैद में रहे । जिंदगी के इस मोड़ में जो कष्ट, अकेलापन और उदासी उन्होंने झेली वो इस वक्त लिखी गई उनकी नज्मों में साफ झलकती है । ये नज्में बाद में बेहद लोकप्रिय हुईं और "दस्ते सबा ' और ' जिंदानामा' नाम से प्रकाशित हुईं ।
फैज की शायरी से मेरा परिचय पहली बार तब हुआ जब अंतरजाल पर करीब तीन वर्ष पूर्व उर्दू शायरी की एक महफिल में जाना शुरु किया । तब इनकी एक नज्म गर मुझे इसका यकीं हो...सामने से गुजरी थी और कठिन लफ्जों की वजह से उसकी हर पंक्ति के मायने समझने में मुझे अच्छा खासा वक्त लगा था । पिछले तीन सालों में उनका लिखा जो मुझे खास तौर से पसंद आया वो मेरी कोशिश रहेगी की आपके साथ बांटूँ ।
जैसा की अमूमन होता है, अन्य शायरों की तरह शुरुआती दौर में हुस्न और इश्क ही फैज की शायरी का सबसे बड़ा प्रेरक रहा ।नक्शे फरियादी की शुरुआती नज्म में वो कहते हैं ।
रात यूँ दिल में खोई हुई याद आई
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए
जैसे सहराओं में हौले से चले बाद ए नसीम *
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए
*हल्की हवा
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए
जैसे सहराओं में हौले से चले बाद ए नसीम *
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए
*हल्की हवा
नैयरा नूर की आवाज़ में इसे सुनने का लुत्फ़ ही अलग है।
अपने हमराज के बदलते अंदाज के बारे में फैज का ये शेर देखें
यूँ सजा चाँद कि झलका तेरे अंदाज का रंग
यूँ फजा महकी कि बदला मेरे हमराज का रंग
और इस रूमानी गजल के इन शेरों की तो बात ही क्या !
शाम ए फिराक अब ना पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया , जां थी कि फिर संभल गई
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक महक उठी
जब तेरा गम जगा लिया, रात मचल मचल गई
दिल से तो हर मुआमलात करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई
पर फैज की एक गजल जो मुझे बेहद पसंद है वो है हम कि ठहरे अजनबी.....। इसे सुन कर मन बोझल तो जरूर हो जाता है पर जाने क्या असर है फैज के लफ्जों और नैयरा नूर की दिलकश आवाज का कि इसे बार बार सुनने की इच्छा यथावत बनी रहती है ।
हम कि ठहरे अजनबी इतनी मदारातों* के बाद
फिर बनेंगे आशनां कितनी मुलाकातों के बाद
*आवाभगत
कब नजर में आएगी बेदाग सब्जे* की बहार
खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
*खेत
दिल तो चाहा पर शिकस्त ए दिल ने मोहलत ना दी
कुछ गिले शिकवे भी कर लेते मुनाजातों * के बाद
*प्रार्थना
थे बहुत बेदर्द लमहे खत्म ए दर्द ए इश्क के
थीं बहुत बेमहर* सुबहें मेहरबां रातों के बाद
*मुश्किल
उनसे जो कहने गए थे फैज जां सदका किये
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
उनसे जो कहने गए थे फैज जां सदका किये
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
फैज ने अपनी कविता का विषय यानि मौजूं-ए-सुखन पर यहाँ तक कह दिया था
लेकिन उस शोख के आहिस्ता से खुलते हुए होठ
हाए उस जिस्म के कमबख्त दिलावेज खुतूत
आप ही कहिए कहीं ऐसे भी अफसूं (जादू) होंगे
अपना मौजूए सुखन इनके सिवा और नहीं
तब ए शायर* का वतन इनके सिवा और नहीं
*शायरी की प्रवृति
पर बाद में फैज देश और अपने आस पास के हालातों से इस कदर प्रभावित हुए कि कह बैठे
इन दमकते हुए शहरों की फरावां मखलूक (विशाल जनता)
क्यों फकत मरने की हसरत में जिया करती है
ये हसीं खेत, फटा पड़ता है जोबन जिनका
किसलिए इन में फकत (सिर्फ) भूख उगा करती है
इस प्रविष्टि के अगले भाग में चर्चा करेंगे उनकी अन्य नज्मों के साथ उस नज्म की जिसे रचने के बाद उन्होंने अपने आप को रूमानियत भरी शायरी से थोड़ा दूर कर लिया था ।
10 टिप्पणियाँ:
Wah! bahut khoob pesh kash hai lekin dusri taraf update nahi???
Anyway Faiz ki mujhe bahar aaiyee bahut pasand hai ...:)
jankari ke liye shukriya...
as always
Cheers
बहुत खूब !
ङॉन हाँ ,आजकल ज्यादातर पहले इधर ही लिखता हूँ .
बहार आई तो जैसे इक बार
लौट आए हैं, फिर अदम से
वो ख्वाब सारे, शबाब सारे....
वाह ! मैं तो भूल ही गया था इस नज्म को ....शुक्रिया इसकी याद ताजा कराने का !
शुक्रिया प्रत्यक्षा !
आपका ब्लॉग बहुत ही खुबसुरत है
आपके इस आलेख से फैज़ की बहुत सारी ऐसी नज्मों के बारे में पता चला जिनके बारे में पहले जानकारी नहीं थी। बढ़िया आलेख। बधाई।
आपको ये आलेख पसंद आया जान कर प्रसन्नता हुई प्रियंका ! :)
जानकारी बढ़ी है...आभार
उर्दू लफ्ज़ हिंदी के जैसे ज़ेहन में उतरे,इसके लिए कुछ टिप्स ? :)
फ़ैज़ अरबी फारसी के बहुत शब्द इस्तेमाल करते थे इसलिए शायरी में दिलचस्पी रखने वालों को मैं अक्सर यही सलाह देता हूँ कि बशीर बद्र को पहले पढ़िए..फिर फ़राज़ को और तब फ़ैज़ को।
पुस्तक मेले में उर्दू से हिंदी के शब्दकोश आपको उपलब्ध हो जाएँगे। एक खरीद लें कहीं अटकने में आपको मदद मिलेगी।
जी बिलकुल...
एक टिप्पणी भेजें