हास्य कवियों की आजकल बड़ी शामत है । जबसे सिद्धू और शेखर सुमन के लाफ्टर चैलेंज ने बाजार पकड़ा है लोग अब मनोरंजन के नाम पर हास्य कवियों की जगह राजू श्रीवास्तव, सुनील पाल ,नवीन प्रभाकर, अहसान कुरैशी या लाफ्टर चैलेंज के अन्य महारथियों को ही बुलाने लगे हैं। स्टार वन का ये मशहूर शो जब शुरु हुआ था तो लगा था कि ये स्वस्थ मनोरंजन की तरफ एक सार्थक पहल है । और अपने पहले साल में इसने के सीरीज के सीरियलों और अझेल न्यूज चैनलों से उकताई जनता को हँसी के कुछ मीठे पल भी दिए थे ।
पर जैसे जैसे इनकी लोकप्रियता बढ़ी, लगभग सारे न्यूज चैनल उसे भुनाने में पीछे नहीं रहे । अब इतने कम समय में इतनी जल्दी -जल्दी स्क्रिप्ट बदल कर भला ये हँसी के सौदागर नया क्या पेश करते? लिहाजा एक ओर तो व्यापक पैमानों पर चुटकुलों की चोरी शुरु हो गई तो दूसरी ओर चुटकुलों में भोंडापन बढ़ता गया । आजकल सिद्धू वैसे चुटकुलों पर भी भयंकर ठहाका लगाते हुए दिखते हैं जिसमें अश्लीलता का पुट शामिल हो । हास्य के इन नए दिग्गजों का कहना है कि श्रोता ऐसा मसाला ही सुनना पसंद करते हैं ।
चुटकुलों की बात छोड़ भी दें तो लोग बाग पुराने कवियों की मौलिक रचना को तोड़ मरोड़ कर पेश करने को काव्य की एक विधा (पैरोडी) का नाम फक्र से देने लगे हैं ।
क्या आम जनमानस में हास्य का इस कदर अवमूल्यन हुआ है ? शायद हुआ है , और ये देख कर मन ही मन कष्ट जरूर होता है ।
मुझे याद है कि हम जब स्कूल में थे तो सारे भाई बहन धर्मयुग के होली विशेषांक की बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे क्योंकि उसमें एक से बढ़ कर एक हास्य कविताएँ होती थीं । विविध भारती से आने वाले प्रायोजित कार्यक्रम में हमारा सारा परिवार सुरेन्द शर्मा की मै बोल्यो..... पत्नी जी की कड़ियाँ हफ्ते दर हफ्ते सुनने के लिए रेडियो से कान सटा कर बैठा रहता था ।
काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी, गोपालप्रसाद व्यास, शैल चतुर्वेदी, ओमप्रकाश आदित्य, अशोक चक्रधर ने हमारे जीवन में जिस स्वस्थ हास्य का पुट भरा था वो आज इतने निम्न स्तर तक पहुँचने लगेगा किसने सोचा था। हमारे जीवन में हास्य का कितना महत्त्व है ये तो सर्वविदित है । ऐसे में ये विधा इन महान रचनाकारों से छिटक कर हँसी पैदा करने के लिए किसी हद तक जाने वालों के जिम्मे चली जाए उसके लिए हमारी पीढ़ी ही दोषी कहलाएगी ।
गोपाल प्रसाद व्यास की ये कविता काफी दिनों पहले मैंने परिचर्चा में पोस्ट की थी । ये कविता उन लोगों को खास तौर पर समर्पित है जो स्वस्थ हास्य और फूहड़ता के अंतर को समझ पाने में असमर्थ रहे हैं ।
आराम करो !
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
- गोपालप्रसाद व्यास
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
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आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
6 माह पहले
17 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छा विश्लेण किया है, इसकी आवश्यकता है. कभी तो बहुत बेहुदगी भरा हास्य देकर न जाने क्या प्रयास होता है इन चैनलों पर.
मनीश जी
मेरा कोई इरादा आपको या और किसी को भी ठेस पहुचाने का नही था न ही न मै कोई भद्दा बेहुदा
और ऎसा कुछ जॊ आप अपने अपने परिवार के साथ न बाट पाये पसंद करता हू
गानॊ की पैरोडी सालो से चल रही है और कविताओ की भी बडे-बडे नामो ने भी यह किया है फ़िर भी मै खेद के साथ क्षमा प्राथी हू
धर्मयुग के होली विशेषांक की याद दिला कर आपने बचपन की यादें ताज़ा कर दीं.उस समय हास्य की परिभाषा कुछ और थी .अब हास्य के नाम पर फूहडपन पेश किया जाता है.
वाह मनीषजी आपने धर्मयुग की याद दिलवा दी, मैं भी बहुत छोटा था पर धर्मयुग के होली विषेशांक का बेसब्री से इंतजार करता था।
आबिद सुरती, के. पी सक्सेना और शरद जोशी की रचनायें पढ़ना बहुत अच्छा लगता था।
आबिद सुरती तो कार्टून के साथ लिखते भी बहुत अच्छा थे। मजाक में कहा जाता है कि आबिद सुरती ने तो धर्मयुग को मुसलमान(उर्दू)की बना दिया था क्यों कि उर्दू की किताबों को पीछे से पढ़ा जाता है और पाठक धर्मयुग में आबिद सुरती के डब्बू जी को सबसे पहले पढ़ते थे और वह अन्तिम पन्ने पर आता था, यानि पुस्तक को पीछे से शुरुआत करनी पड़ती थी। आजकल हास्य के नाम पर फूहड़ चुटकुले सुने सुनाये जा रहे हैं।
गोपाल प्रसाद व्यास की रचना पढ़वाने के लिये विशेष धन्यवाद। भरत व्यासजी की ऐसी ही एक रचना है जो बहुत ही सुन्दर है
कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो
धंधे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो पैसे जोड़ो।
सही कहा आपने..इन समाचार वाले चैनल्स को क्या जरुरत आ पडी पता नही..
इस कविता के लिये खास धन्यवाद मै इसे खोज रही थी.
समीर भाई बिलकुल सही कहा आपने । इसी बात ने ये लेख लिखने को प्रेरित किया था ।
अरुण जी जानकर खुशी हुई कि आप को भी चुटकुलों में फूहड़ता पसंद नहीं । रही पैरोडी की बात तो वो मनोरंजन का माध्यम हो सकती है और वर्षों से चली आ रही है, पर मेरा मतभेद आपके इसे काव्य विधा से परिभाषित करने तथा ऍसी रचनाओं को कालजयी कहकर महिमामंडित करने से है ।
वैसे अब तो आपने परिचर्चा से वो टिप्पणी हटा दी है जिसमें आपने ऐसा कहा था । बाकी जो इस बारे में मेरा विचार है वो यही है कि
कोई भी पैरोडी चाहे वो गाने की हो या कविता की उसका आकलन उसी रुप में होता है जितना की पुराने गीतों पर रिमिक्स किये गये संगीत का होता है । इसलिए इसे काव्य की एक विधा कहना उन कवियों के साथ ज्यादती होगी जिनकी मूल कृतियों पर ऐसी रचनाएँ बनाई जाती हैं ।
पूनम जी जी बिलकुल, सही कहा आपने !
सागर भाई बहुत अच्छा लगा आपका ये जवाब । आबिद सुरती के डब्बू जी को हम भी सब से पहले पढ़ते थे । पीछे से पढ़ने वाली बात सोलह आने सही हे आपकी :)
रचना जी ये कविता परिचर्चा पर थी पहले से ! शायद आपका ध्यान नहीं गया होगा ।
मैंने कुछ विचार पढे. कुछ समझने का प्रयत्न किया पर सच में हिन्दी की इस दशा पर ह्रदय दुखी होता है. और फिर हम भी क्या कर रहे है. क्या हिन्दी समय के पन्नों में ही अपनी पहचान खोजेगी या हम उसे एक नूतन पहचान दे कर नवयुग में नव्प्रवेश करवा सकेंगे. ऐसा करना हमारा दायित्व है और इसके लिए जो बीत गया उस पर गर्व करने के साथ साथ उस पर नव निर्माण भी आवश्यक है.
आपने सही कहा बन्धुवर ! अतीत से प्रेरणा ले कर ही भविष्य में उत्कृष्ट साहित्य रचना ही हमारा ध्येय होना चाहिए.
bhut achye
"आराम करो" पढ़ कर मज़ा आ गया! काफी दिनों से ढूंढ रहा था, बचपन की सबसे मनपसंद कविता है! आप का बहुत बहुत शुक्रिया. ऐसे ही लिखते रहिये - आनंद
शुक्रिया दीपिका जी और आनंद जी इस कविता को पसंद करने के लिए!
Manish
Can u send me Vyas ji,s poem "Bhagwan mujhe ek saali do", my id is purohitajay@rediffmail.com
Rgds
Ajay purohit
can somebody send me a poem of gopal daas neeraj "KAVI RAJA KUCH PAISE JODO"
@Ambika ji the poem was sung by Bharat Vyas in film Navrang. I Have posted it here
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2008/10/blog-post_16.html
@ Ajay I don't have that poem.
I like you very much and i daily read your blog.Please mail me if you have any poem of ashok chakardhar and surendra sharma. my mail id is sureshbasawa@gmail.com
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