न्यू आफिसर्स हॉस्टल यानि पटना के बेली रोड और बोरिंग रोड के मिलन बिंदु के पास बनी बहुमंजिला इमारत जिसे बाहर के लोग 'कबूतरखाना' के नाम से भी जानते थे, पर हमारे लिए तो वह था हमारा प्यारा आशियाना । १९७७ में मैं यहाँ आया और करीब १९९४ में यहाँ से रुखसत हुआ। यूँ कहें यहीं मैं पढ़ लिख कर बड़ा हुआ !
आज भी जब इस इमारत के बगल से गुजरता हूँ, इसमें बिताये हुए पल याद आते हैं । आज की इस प्रविष्टि में अपने उसी प्यारे घर से जुड़ी कुछ खट्टी-मीठी यादें आप के समक्ष रखूँगा जो आज भी मेरे स्मृति पटल पर अंकित हैं ।
पाँच छः साल का रहा हूँगा जब अपने इसी घर से जातियों में विभाजित अपने राज्य की पहली तसवीर देखी । वक्त १९७९ के आस पास का होगा। रोज स्कूल से घर आने के बाद जिंदाबाद मुर्दाबाद के नारे सुनाई देते थे । पटना का तबका हड़ताली चौक घर के पास ही हुआ करता था । सो सारे जुलूस घर के निकट ही रोक लिये जाते थे। फारवर्ड-बैकवर्ड से तब मतलब आगे पीछे ही समझ आता था । जब कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ नारे लगते तो उसका मतलब ये होता कि ये आगेवालों की टोली है और जब मुख्यमंत्री की मसीहाई के चर्चे होते तो अनुमान लगा लेता कि आज का कुनबा पीछेवालों का है । रोज-रोज के इस तमाशे को देखकर अपनी उत्सुकता दबा पाना जब मुश्किल हो जाता तो आखिर माँ से पूछ ही बैठते कि माँ हम किस तरफ हैं? पर माँ इधर-उधर की बातों में ऐसे जवाब को घुमातीं कि प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता था ।
ऍसे ही एक दिन बढ़ते तनाव से मामले ने इतना तूल पकड़ा कि भारी पथराव के जवाब में जमा हुई भीड़ पर पहले आँसू गैस के गोले छोड़े गए । लड़के बगल की एक इमारत 'राजीव कमल' की छत पर जा चढ़े। पर पुलिस वाले वहाँ भी जा पहुँचे तो वहाँ से कूद कर सारे हमारे इसी आफिसर्स हॉस्टल की ओर भागे । जो पकड़े गए बुरी तरह डंडों से पिटे । भागते दौड़ते पनाह के लिए पहले तल्ले पर कुछ ने शरण ली। कुछ तो कुछ पुलिस के भय से सीधे ऊपर चढ़ते हुए उस जलती दुपहरी में सीमेंट की बनी पानी की टंकी पर लेट गए । आज भी वो टंकी बाल मन से देखे गए उस भवायह दृश्य की याद दिलाती है ।
वक्त बीतता गया..... । आफिसर्स हॉस्टल के तीसरे तल्ले का वो दो कमरों का घर प्रिय से प्रियतर होता चला गया । हमारा हॉस्टल तीन ब्लॉक्स में विभाजित था । प्रत्येक तल्ले में १२ घर और एक ब्लॉक में ६० । यानि उस छोटे से परिसर में १८० परिवारों का आशियाना था ।
१९८२ की बात है । दिल्ली से एशियाड का सीधा प्रसारण आना शुरु हुआ और उसी वक्त पटना में रंगीन टीवी आया । हमारे घर में नहीं आया तो क्या हुआ हम सारे बच्वे सुबह ९ बजे टीवी देखने बगल के परिचित के ब्लॉक में जाते और सीधे जाकर कालीन पर अपना अपना आसन जमा लेते । ऐसे ही क्रिकेट मैच देखा जाता । विपक्षी टीम के खिलाड़ी आउट नहीं होते तो लोग अपनी-अपनी सीटें बदलते । विपक्षी गेंदबाज बहुत तंग कर रहा होता तो कोई उठके उसको अपना मोजा सुंघा कर आता। ऐसी ही भीड़ गुरुवार, रविवार की फिल्मों के लिए जुटती। सामूहिक ढ़ंग से टी.वी. देखने का वो आनंद ही अलग था ।
स्कूल की छुट्टी होती तो दो सीढ़ियों के बीच की वर्गाकार जगह पर कभी कैरमबोर्ड, कभी व्यापार तो कभी शतरंज की बिसात बिछती। फ्लैट की उन सीढ़ियों पर १९८३ में विश्व कप फाइनल में १८० के करीब आउट होने पर दुखी होकर एकत्रित हुए थे कि आगे अब क्या देखना ! और फिर उन्हीं सीढ़ियों पर अपने ट्रांजिस्टर पर रेडियो पाकिस्तान से आती कमेंट्री को साथियों के बीच सुनते हुए राथमन्स कप में पाकिस्तान को शिकस्त दिये जाने पर जबरदस्त हो हल्ला मचाया था ।
होली आती तो पुरुष, महिलाओं, लड़के लड़कियों की अलग अलग टोलियाँ बन जातीं । दुर्गा पूजा में हफ्ते भर अलग जश्न का माहौल होता । और दीपावली की शरारतें तो पूछें मत । एक दफे लड़कों ने बीड़ी बम का लच्छा बनाकर एक सुंदर कन्या के घर की तरफ उछाला । अब बम का गुच्छा तो दूसरे तल्ले तक पहुँचने से पहले ही फटा पर कन्या ने उसके जवाब में जो आलू बम लड़कों के नीचे खड़े झुंड के बीचों बीच गिराया उसके फटने से जो भगदड़ मची वो घटना याद आते ही हम सब को हंसी के दौरे पड़ जाते थे ।
फिर एक दिन वो आया जब अपने इस आफिसर्स हॉस्टल में कला फिल्मों की मशहूर तारिका दीप्ति नवल बहू बन कर आईं । उस वक्त उनके पति प्रकाश झा साहब हुआ करते थे और उनका परिवार 'सी ब्लॉक' में रहा करता था। अब जहाँ से भी उनके घर की बालकोनी दिख सकती थी लोग हर उस जगह में भर गए । करीब आधे पौन घंटे के बाद दीप्ति नवल ने अपनी बालकोनी से सबका अभिवादन स्वीकारा और उनकी एक झलक देख के हम हॉस्टल वासी तर गए।
किशोरावस्था में घर के बाहर की बड़ी से ये बॉलकोनी हमारे बहुत काम आई । यही वो ऐतिहासिक स्थल था जहाँ पर १६ साल की उम्र में एक शाम हम जब नेपथ्य में ताक रहे थे तो सामने से हमें किसी ने वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में वेव (wave) किया । मैं तो एकदम से चकराया कि ये मेरे लिये तो नहीं हो सकता , पहले तो अपनी बालकोनी के नीचे देखा और फिर ऊपर। कोई नहीं था और मेरे इस कृत्य पर सामने से मुस्कुराहट का दौर जारी था । दिल की बड़ी इच्छा थी कि हम भी हाथ हिला ही दें पर हाथ तो जैसे सौ किलो के भार से जड़ हो गया । अपनी अकर्मण्यता से उपजी खीज को छुपाने के लिए तब भी अपने इसी प्यारे घर की शरण ली थी।
पर आफिसर्स हॉस्टल से जुड़ी सबसे रोमांचक घटना घटित हुई १९८८ में । उस दिन दिन भर बिजली नहीं थी सो पानी भी नहीं आया था । देर रात जब नगर निगम का टैंकर आया तो पानी भरने के लिए भीड़ लग गई और जैसा कि ऍसे हालात में भारत के हर कस्बे शहर में होता है मोहल्ले के बाशिंदों में पहले मैं पहले मैं को लेकर आपस में गर्मागर्मी भी काफी हुई । नतीजन देर रात तक १२ बजे सब सोने गए । रात के अंतिम पहर करीब साढ़े तीन और चार के आसपास पाँचवे तल्ले से सारे बर्तनों के गिरने की आवाजें आने लगीं । धरती से सों-सों की ध्वनि सी निकल रही थी ।मेरा घर तीसरे तल्ले पर था जब मेरी आँख खुली तो मैंने पलंग को पूरी तरह हिलता पाया । पूरी ताकत से मैं चिल्लाया भूकंप । अब सबके जगते जगाते तो भूकंप का वेग खत्म हो गया था पर फिर भागते दौड़ते जब नीचे पहुँचे तो अपने मोहल्लेवालों की कारस्तानी के दिलचस्प नमूने सामने आए
पड़ोस का मेहता परिवार भूकंप की तेजी में भी चाबी के गुच्छे तलाशता रह गया ।
वर्मा जी दो तल्ले से वक्त रहते ही बच्चों सहित नीचे उतर तो आए पर हड़बड़ाहट में बीवी को घर के अंदर ही बंद कर आए ।
और कुछ लोगों को तो नीचे आने पर ख्याल आया कि वे जिन वस्त्रों मे नीचे आ गए हैं वो सार्वजनिक स्थल हेतु बिलकुल वर्जित हैं । :)
इंजीनियरिंग में जाने के साथ ही आफिसर्स हॉस्टल से मेरा जुड़ाव खत्म होता गया पर उस घर में बिताई वर्षों से संचित यादें मन में हमेशा कर लिए घर कर गईं।
यूँ तो पिताजी ने तो एक मकान पटना में बना लिया। पर जब भी कोई अपने घर की बात करता है आज भी आफिसर्स हॉस्टल की वो गलियाँ जेहन में एकदम से उभरती हैं । वक्त के साथ जिंदगी में कई छवियाँ कभी धूमिल नहीं होतीं......बहुत कुछ छोटी सी बात फिल्म के इस गीत की तरह
14 टिप्पणियाँ:
वाह, क्या संस्मरण लाये हैं. इस तरह की यादें हमेशा साथ रहती हैं. बहुत बढिया लगा आपका अंदाजे बयां.
अच्छा बचपन बीता आपका.. एक जगह से जुड़कर रह पाने का सुख सबको नहीं मिलता..
इस संस्मरण के सहारे आपने अपना बचपन फ़िर से ना केवल खुद जिया है बल्कि हम सब को भी उसमें शामिल कर लिया।
बढ़िया लिखा है आपने।
संस्मरण अच्छे लिखे.
बहुत बढ़िया वर्णन किया है आपने ।
घुघूती बासूती
कुछ इतिहास भी आ गया इसलिए आपकी उम्र का अन्दाज भी लगा । पढ़ कर अच्छा लगा ।
अरे भाई मैं भी पटना से ही हूँ…यह लेख पढ़कर याद आ गया अपना वृक्ष जहाँ मैं भी कभी चहचहाया करता था…।बधाई!!
बचपन के दिन याद करना मजेदार लगता है..मै अक्सर अपनी बेटियों से मेरे बचपन की बातें करती रहती हूँ....गाना भी पोस्ट के अनुकूल बढिया है!
"कबूतरखाना" देख कर मज़ा आ गया । पुरानी बातें याद आई । वही रास्ता हुआ करता था ऑफिस से घर आशियानानगर जाने का । पटना की कुछ और तस्वीरें दिखाईये ।
शुक्रिया समीर जी सही कहा आपने !
अभय हाँ ऊपरवाले की मेहरबानी रही यही देखिये कि इंजीनियरिंग से निकलने के ४ सालों में चार अलग अलग शहरों में रहना पड़ा ।
संजीत स्वागत है आपका इस चिट्ठे पर ! जानकर खुशी हुई कि मेरे संस्मरण आपको बचपन की तरफ खींचने में सफल हुए ।
संजय भाई शुक्रिया !
अफलातून जी अरे ,मेरी उम्र जानने के लिए इतनी मशक्कत क्यूँ की मेरी प्रोफाइल ही देख लेते
http://www.blogger.com/profile/10739848141759842115
घुघूति जी शुक्रिया ! जानकर खुशी हुई ।
रचना जी गाना मुझे भी बेहद पसंद है क्यूंकि बीती बातों में मन के रह रह कर झांकने की बात करता है। :)
दिव्याभ अब वृक्ष कह देने से थोड़ी चलेगा । उसकी कुछ बातें हम सब से एक पोस्ट में लिखो ।
प्रत्यक्षा क्या अब भी आपका घर आशियाना नगर में है ? हम लोगों का मकान थोड़ा आगे खाजपुरा में है । ये तसवीरें तो पिछली बार उसी रास्ते यानि बेली रोड पर रुक कर लें ली थीं ।
Manish hats off on u..kya aapne likha hai..it took me also back on those days....I was also that time thr...jab earthquake aaya tha...my Dad ki posting wanhi thi....humlog Buddha colony mein rahatey the...and I'm familiar with ur apartment...My dad used to say Kabootarkhana....unke koi frnd rahatey the wanha...aaj toh bas sari purani baatey taza ho gayee...
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