शुक्रवार, मई 11, 2007

रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृति 'गोरा' : तात्कालिक हिंदू धर्म और समाज से जुड़ा एक पठनीय उपन्यास

बात फरवरी की है । कानपुर से नीलांचल एक्सप्रेस से लौट रहा था । मूरी में ट्रेन इतनी विलंबित हुई कि राँची की ओर जाने वाली सारी ट्रेनें छूट गईं । अगली ट्रेन दो घंटे बाद आने वाली थी । समय काटना भारी पड़ रहा था कि सामने पत्र पत्रिकाओं से सजी ठेलागाड़ी पर नजर पड़ी और देखा जीवन के असली सत्य का दर्शन कराती सत्य, मधुर और मनोहर कथा-कहानियों के बीच से टैगोर चिन्तित से झांक रहे हैं।

इससे पहले मैंने गीतांजलि की कुछ कविताओं को छोड़कर टैगोर को कभी नहीं पढ़ा था । पर गोरा के बारे में सुना था कि अच्छी किताब है , इसलिए जब पुस्तक विक्रेता ने ३०० पृष्ठों की इस किताब का मूल्य मात्र ८० रुपये बताया तो तुरंत मैंने इसे खरीदने का मन बना लिया ।

कथा की पृष्ठभूमि उस समय की है जब राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज तेजी से हिंदू समाज में अपना पाँव पसार रहा था । जहाँ जातिगत भेदभाव ने समाज के निम्न तबकों में एक असंतोष पैदा कर रखा था, वहीं दूसरी ओर रीति रिवाज और व्यर्थ के धार्मिक अनुष्ठानों और आडंबरों से हिंदुओं का पढ़ा लिखा नया तबका एक घुटन सी महसूस कर रहा था ।
पर क्या इस बारे में उपन्यास का मुख्य किरदार गोरा भी ऐसा ही सोचता था ?

धार्मिक आडंबरों और समाज में फैले कुसंस्कारों को हटा कर उद्धार की बात करने पर वो कहता

"उद्धार, उद्धार बहुत बाद की बात है । उससे कहीं बड़ी बात है प्रेम की श्रद्धा की, पहले हम एक हों फिर उद्धार अपने आप हो जाएगा । आप लोग (ब्रह्म समाज वाले) कहते हैं देश में कुसंस्कार है इसलिए हम सुसंस्कारी लोग उससे अलग रहेंगे । मैं यह कहता हूँ कि मैं किसी से उत्तम होकर किसी से भिन्न नहीं होऊँगा । आप अगर ऐसा समझते हैं कि पहले उन सब रीति रिवाजों और संस्कारों को उखाड़ फेंकेगे, और उसके बाद देश एक होगा, तब तो समुद्र पार करने के प्रयास करने से पहले समुद्र को सुखा देना होगा ।सभी देशों के सभी समाजों में दोष और अपूर्णता है, किन्तु देश के लोग जब तक जाति प्रेम के बंधन से एकता में बँधे रहते हैं तब तक उनका विष काटकर आगे बढ़ सकते हैं । सड़ने की वजह हवा में ही होती है, किंतु जीवित रहें तो उससे बचे रहते हैं, मर जाएँ तो सड़ने लगते हैं ।"

तो ऐसा था गोरा..... अद्भुत तार्किक क्षमता का धनी। गौर मुख, लंबी चौड़ी कद काठी का स्वामी गोरा जब अपनी जोशीली आवाज में संपूर्ण भारतवर्ष को हिंदू धर्म के माध्यम से एक सूत्र में बाँधने के अपने सपने के बारे में बोलना शुरु करता तो उसके तर्कों और रोबीले व्यक्तित्व के सामने विपरीत पक्ष रखने वाले को कोई उत्तर नहीं सूझ पाता था । गोरा की बातें अजीब थीं। अपनी ममतामयी माँ की वो मन ही मन अराधना करता पर उसके साथ छुआछूत भी बरतता क्यूँ वो सब जात वालों के साथ उठती बैठती थीं । गोरा की संगति में रहने वाले उसके मित्र (पहले विनय और बाद में सुचरिता ) गोरा के विचारों से ना भी सहमत होते हुए उनको ये सोचकर अपना लेते कि गोरा की दूरदर्शिता , मातृभूमि के उद्धार का जो मार्ग सहज ही तालाश लेती है वो तो उसके बिना उन्हें दृष्टिगोचर ही नहीं होगा।

पर तीन सौ पन्नों की इस किताब में सिर्फ टैगोर ने गोरा का ही व्यक्तित्व उभारा हो ऐसी बात नहीं है । गोरा के आलावा ये उपन्यास एक ब्राह्म समाजी परेश बाबू की कन्या ललिता और ब्राह्नण लड़के विनय की प्रेम कथा भी कहता है । ललिता के सानिध्य में आकर विनय अपने दोस्त के अद्भुत व्यक्तित्व की छत्र-छाया से ना केवल बाहर निकलता है पर अपनी खुद की सोच में वो आत्मविश्वास पैदा कर पाता है । अपने लिए वो ऐसी राह चुनता है जिसके लिए हठी गोरा अपनी दोस्ती त्यागने को तैयार हो जाता है।

हाल ही में हमारे एक साथी चिट्ठाकार ने अपने समाज के बाहर शादी करने वालों को इस लिए अपनी लानत भेजी थी कि ऐसा करने के पहले वो अपने परिजनों को होने वाले दुख का ध्यान नहीं रखते । यहाँ तक कहा गया कि ऐसे लोगों को समाज की फिर जरूरत क्यूँ पड़ती है ऍसे ही साथ साथ रहें । गौर करने की बात है कि बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में लिखे गए इस उपन्यास में पहले टैगोर ने ब्रह्म समाजी ( ये समाज एक ईश्वर में विश्वास रखता है, मूर्ति पूजा विरोधी है और जातिगत भेदभाव को नहीं मानता) और हिन्दू ब्राह्मण के विवाह को जायज ठहराते हुए उपन्यास के एक चरित्र परेश बाबू के माध्यम से लिखा है


"इस स्थिति को लेकर मुझे बहुत विचारना पड़ा है। जब समाज में किसी मनुष्य के खिलाफ विरोध उठ खड़ा होता है तब दो बातें विचारकर देखने की होती हैं। एक तो, दोनों पक्षों में न्याय किसकी तरफ है । और दूसरे, ताकतवर कौन है । इसमें तो शक नहीं कि समाज ताकतवर है, इसलिए विद्रोह का दुख भोगना ही पड़ेगा ।.....
ऐसे विवाह में कोई दोष नहीं है, बल्कि ये सही है, तब समाज यदि बाधा दे तो उसे मानना फर्ज नहीं है, ऐसा मेरा मन कहता है । समाज के लिए मनुष्य को संकुचित होकर रहना पड़े यह कभी उचित नहीं हो सकता, समाज को ही मनुष्य के लिए अपने को उचित कर चलना होगा। इसलिए जो दुख स्वीकार करने के लिए तैयार हैं मैं उन्हें गलत नहीं कह सकता ।"

खैर वापस लौटें इस कथा के नायक गोरा के पास । क्या गोरा सदा ही अपने विचारों पर हठी बना रहा ? कम से कम अपने मित्र विनय के साथ तो उसका बर्ताव ऍसा ही रहा । पर सुचरिता की बुद्धिमत्तता और उसके ब्रह्म समाजी पिता परेश बाबू के मध्यमार्गी संतुलित विचारों ने कई बिंदुओं पर उसकी सोच को हिलाकर रख दिया । हालांकि इस बात को स्वीकार करने में वो तब समर्थ हुआ जब उसे अपनी खुद की उत्त्पत्ति का रहस्य ज्ञात हुआ । ऐसा क्या था उस रहस्य में जिसने गोरा के जीवन का मार्ग एकदम से बदल दिया । ये तो जान पाएँगे आप इस पुस्तक को पढ़ने के बाद...

टैगोर ने इस उपन्यास में अपनी जिंदगी का अर्थपूर्ण उद्देश्य तलाशती सुचरिता और प्रेम में डूबी ललिता की मनःस्थिति को भी बखूबी चित्रित किया है। पर उपन्यास का सबसे सशक्त पहलू इसकी मजबूत वैचारिक जमीन है जो धर्म और समाज के बारे में उनकी गहन सोच को दर्शाती है। टैगोर ने गोरा के माध्यम से वैसे बुद्धिजीवियों पर कुठाराघात किया है जिनकी ऊँची सोच ,भाषणबाजी के दायरे से निकलकर कभी भी जमीनी स्तर पर कार्यान्वित नहीं हो पाती । वहीं परेश बाबू के चरित्र का सहारा लेकर हिन्दू धर्म की कमियों के प्रति भी आगाह किया है । कुल मिलाकर ये एक पठनीय उपन्यास है जो उस वक्त के बंगाली समाज के धार्मिक और सामाजिक अन्तरद्वन्द की कहानी कहता है ।
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10 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari on मई 11, 2007 ने कहा…

बहुत ही सधी हुई समीक्षा की है मनीष भाई. पूरे समय धारा प्रवाह में बांधे रखा. बहुत बधाई स्विकारें. इस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा जाग गई है.

Udan Tashtari on मई 11, 2007 ने कहा…

वैसे फरवरी में कानपुर गये थे तो फुरसतिया जी काहे नहीं मिले. गलत बात है!! :)

लड़ाई लगवाने की कोशिश कर रहा हूँ...हा हा!!!

mamta on मई 11, 2007 ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है। हम भी इसे खरीद कर पढेंगे ।

बेनामी ने कहा…

अगली बार हम भी स्टेशन की ठेलागाडी पर खोज ले‍गे इसे! मैने दो पुस्तके‍ ’घर बाहर’ और ’बहूरानी’ (हिन्दी अनुवाद)पढी थी, पसन्द आई दोनो पुस्तके‍.

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्छी समीक्षात्मक टिप्पणी है आपकी . पर उपन्यास के नायक 'गोरा' के जबरदस्त चरित्र की उपस्थिति के कारण उसकी मां को मत भूल जाइएगा . दरअसल वे ही हैं इस उपन्यास की नायिका . बेहद विशाल मन-माथे वाली माता -- या कहें भारत माता -- जो गोरा को अहसास कराती हैं कि मनुष्य क्या है और मनुष्यता क्या है . गोरा का दर्प और अहंकार उन्हीं के आंचल की शीतलता से विलीन और वाष्पीकृत हो्ता है .

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on मई 11, 2007 ने कहा…

माँ...सिर्फ "माँ " होती है ...जो कभी अपनी आहुति देकर भी शिसु की प्र्रण रक्षा करते हँस कर ,
आँखोँ से अद्रश्य हो जाती है परँतु शिशु के मन से, कभी भी विस्मृत नहीँ हो पाती -
टेगोर सिर्फ बँगाल के नहीँ, सँपूर्ण विश्व के, सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार वर्ग मेँ, उज्ज्वल स्थान रखते हैँ
आपने "गोराँ " पर ये सँतुलित प्रस्तुति लिखकर,हिन्दी चिठ्ठाकारी को आगे बढाया है ऐसा मेरा मत है -
स स्नेह,

लावण्या

Manish Kumar on मई 12, 2007 ने कहा…

समीर जी अब आप लड़ाई नहीं लगा सकते :) क्यूँकि फुरसतिया जी पहले ही इस बारे में मुझसे पूछ चुके हैं।
आपको मेरा इस पुस्तक की चर्चा का प्रयास पसंद आया जानकर खुशी हुई ।

ममता जी शुक्रिया ! जरूर खरीदें अगर धर्म, समाज और प्रेम से जुड़े विषयों में आपकी रुचि हो ।

रचना जी तो अपने चिट्ठे पर हमें भी बताइए ना कि उन पुस्तकों में आपको क्या अच्छा लगा ?

Manish Kumar on मई 12, 2007 ने कहा…

प्रियंकर जी बिलकुल सही कहा आपने गोरा की माँ के विशाल और उदार हृदय के बारे में । वैसे गोरा मन ही मन उनसे मनुष्यता का पाठ तो पढ़ता रहा पर प्रकट रूप में तब तक उनके मत से सहमति ना बना सका जब तक माँ द्वारा छिपाया हुआ रहस्य उसके सामने उद्घाटित ना हो गया ।
उपन्यास में गोरा की माँ और परेश बाबू दो ऐसे चरित्र हैं जिनकी सोच मानवता यानि इंसानियत के तकाजे को ,धर्म के नियमों , आडंबरों से कहीं ऊपर मानती है । टैगोर ने इन दोनों की चारित्रिक रूपरेखा ऐसी खींची है कि इनके बारे में पढ़कर मन श्रृद्धा से भर उठता है ।

Manish Kumar on मई 13, 2007 ने कहा…

लावण्या जी, नमस्कार, स्वागत है आपका इस चिट्ठे पर !
बिलकुल सही कहा आपने माँ की वातसल्यमय प्रकृति पर > गोरा के बारे में ये चर्चा आपको अच्छी लगी, जानकर प्रसन्नता हुई ।

बेनामी ने कहा…

kaya koi mujhe is subject par kauch bata sakta hai
रवीन्द्रनाथ नाथ टैगोर का गोरा उपन्यास में निहित मानवतावादी दृष्टिकोण

 

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