मोहब्बत एक ऐसा अहसास है, जो कभी बासी नहीं होता। काव्य, साहित्य, संगीत, सिनेमा सब तो इसकी कहानी, न जाने कितनी बार कह चुके हैं, पर फिर भी इसके बारे में कहते रहना इंसान की फ़ितरत है। ये इंसान की काबिलियत का सबूत है कि हर बार वो इस भावना को शब्दों के नए नवेले जाल बुनकर एक से बढ़कर एक सुंदर अभिव्यक्ति की रचना करता है।
अज़ब पागल सी लड़की थी.. इस मुखड़े से दो लोकप्रिय नज्में हैं और इन्हें इन दोनों नज़्मों को आतिफ़ सईद साहब ने लिखा है..। खैर, आज पढ़ें इसका वो स्वरूप जहाँ गुज्ररे दिनों की बातों को शिद्दत से याद किया जा रहा है...
अज़ब पागल सी लड़की थी....
मुझे हर रोज़ कहती थी
बताओ कुछ नया लिख़ा
कभी उससे जो कहता था
कि मैंने नज़्म लिखी है
मग़र उन्वान देना है..
बहुत बेताब होती थी
वो कहती थी...
सुनो...
मैं इसे अच्छा सा इक उन्वान देती हूँ
वो मेरी नज़्म सुनती थी
और उसकी बोलती आँखें
किसी मिसरे, किसी तस्बीह पर यूँ मुस्कुराती थीं
मुझे लफ़्जों से किरणें फूटती महसूस होती थीं
वो फिर इस नज़्म को अच्छा सा उन्वान देती थी
और उसके आख़िरी मिसरे के नीचे
इक अदा-ए-बेनियाज़ी से
वो अपना नाम लिखती थी
मैं कहता था
सुनो....
ये नज़्म मेरी है
तो फिर तुमने अपने नाम से मनसूब कर ली है ?
मेरी ये बात सुनकर उसकी आँखें मुस्कुराती थीं
वो कहती थी
सुनो.....
सादा सा रिश्ता है
कि जैसे तुम मेरे हो
इस तरह ये नज़्म मेरी है
अज़ब पागल सी लड़की थी....
(उन्वान-शीर्षक, बेनियाज़ी-लापरवाही से, मिसरा - छंद का चरण)
पुनःश्व बहुत दिनों बाद आज इस नज़्म का आडिओ हाथ लगा तो सोचा जनाब आतिफ़ सईद की ख़ुद की आवाज़ को आप तक पहुँचाना निहायत जरूरी है...
यहाँ तो जिस मोहतरमा को याद किया गया वो तो शायर के स्मृति पटल को रह रह कर गुदगुदाती है पर ये जो दूसरी पागल कन्या है वो तो आए दिन शायर को परेशान किए रहती है। उसकी कहानी अगली पोस्ट में.....
अज़ब पागल सी लड़की थी.. इस मुखड़े से दो लोकप्रिय नज्में हैं और इन्हें इन दोनों नज़्मों को आतिफ़ सईद साहब ने लिखा है..। खैर, आज पढ़ें इसका वो स्वरूप जहाँ गुज्ररे दिनों की बातों को शिद्दत से याद किया जा रहा है...
अज़ब पागल सी लड़की थी....
मुझे हर रोज़ कहती थी
बताओ कुछ नया लिख़ा
कभी उससे जो कहता था
कि मैंने नज़्म लिखी है
मग़र उन्वान देना है..
बहुत बेताब होती थी
वो कहती थी...
सुनो...
मैं इसे अच्छा सा इक उन्वान देती हूँ
वो मेरी नज़्म सुनती थी
और उसकी बोलती आँखें
किसी मिसरे, किसी तस्बीह पर यूँ मुस्कुराती थीं
मुझे लफ़्जों से किरणें फूटती महसूस होती थीं
वो फिर इस नज़्म को अच्छा सा उन्वान देती थी
और उसके आख़िरी मिसरे के नीचे
इक अदा-ए-बेनियाज़ी से
वो अपना नाम लिखती थी
मैं कहता था
सुनो....
ये नज़्म मेरी है
तो फिर तुमने अपने नाम से मनसूब कर ली है ?
मेरी ये बात सुनकर उसकी आँखें मुस्कुराती थीं
वो कहती थी
सुनो.....
सादा सा रिश्ता है
कि जैसे तुम मेरे हो
इस तरह ये नज़्म मेरी है
अज़ब पागल सी लड़की थी....
(उन्वान-शीर्षक, बेनियाज़ी-लापरवाही से, मिसरा - छंद का चरण)
पुनःश्व बहुत दिनों बाद आज इस नज़्म का आडिओ हाथ लगा तो सोचा जनाब आतिफ़ सईद की ख़ुद की आवाज़ को आप तक पहुँचाना निहायत जरूरी है...
यहाँ तो जिस मोहतरमा को याद किया गया वो तो शायर के स्मृति पटल को रह रह कर गुदगुदाती है पर ये जो दूसरी पागल कन्या है वो तो आए दिन शायर को परेशान किए रहती है। उसकी कहानी अगली पोस्ट में.....
10 टिप्पणियाँ:
मगर यह लिखी किसने है? आपके अंदाजे बयाँ तो हमेशा की तरह काबिले तारीफ है.
समीर जी जैसा मैंने कहा कि इसके वास्तविक शायर का ज़िक्र मुझे कहीं नहीं मिला।
बेहतरीन प्रस्तुति की है मनीष भाई…
बस बहुतSSSSSS ही सुंदर लगा…।
मनीष भाई, बहुत अच्छी चीज़ बांटी है आपने. बहुत-बहुत शुक्रिया...
"वो कहती थी
सुनो.....
सादा सा रिश्ता है..."
क्या मासूमियत है... वाह, वाह!
अब अगली नज़्म का इंतज़ार है.
बढिया !
Bahut hee khoobsurat!!!!!!.... alhad, masoom.... ajab see kashish hai.. jinhone bhi likha hai.. taarif ko lafz nahi hai.... Thnx to u.. for such a wonderful presentation...
अंदाज़-ए-बयाँ तो कुछ-कुछ जावेद अख्तर जैसा लग रहा है, खैर किसी का भी हो, बड़ी ही सादगी से कही गई दिल के अंदर तक उतर जाने वाली बात।
दूसरी वाली का जिक्र कर दिया
हम बैचेन है तब से
अब ये तुम पर है कि
कब हमें करार आये
बहुत अच्छा। खासकर भाषा तो बहुत ही पसंद आई। अब बस इंतजार है तो अगली...
इस नज़्म को पसंद करने का आप सब को शुक्रिया !
एक टिप्पणी भेजें