फिल्म उद्योग में ये बात आम है कि किशोर का व्यवहार या मैनरिज्म अपने मिलने वाले लोगों से बहुधा अज़ीब तरह का होता था। ऍसा वो कई बार जानबूझ कर करते थे पर कहीं न कहीं उनका दिल, शरारती बच्चे की तरह था जो उनके दिमाग में नए-नए खुराफातों को जन्म देता था। अक्सर उनके इस नटखटपन का शिकार, उनके क़रीबी हुआ करते थे। आइए रूबरू होते हैं उनके ऍसे ही कुछ कारनामों से..
एक बार की बात है, किशोर के घर एक इंटीरियर डेकोरेटर पधारा। वो सज्जन तपती गर्मी में भी थ्री पीस सूट में आए, और आते ही अपने अमेरिकी लहजे के साथ शुरु हो गए किशोर को फंडे देने कि उनके घर की आंतरिक साज सज्जा किस तरह की होनी चाहिए। किशोर ने किसी तरह आधे घंटे उन्हें झेला और फिर अपनी आवश्यकता उन्हें बताने लगे।
अब गौर करें किशोर दा ने उन से क्या कहा....
"मुझे अपने कमरे में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। बस चारों तरफ कुछ फीट गहरा पानी हो और सोफे की जगह छोटी-छोटी संतुलित नावें, जिसे हम चप्पू से चला कर इधर-उधर ले जा सकें। चाय रखने के लिए ऊपर से टेबुल को धीरे धीरे नीचे किया जा सके ताकि हम मज़े में वहाँ से कप उठा चाय की चुस्कियाँ ले सकें।...."
इंटीरियर डेकोरेटर के चेहरे पर अब तक घबड़ाहट की रेखाएँ उभर आईं थीं पर किशोर कहते रहे...
"....आप तो जानते ही हैं कि मैं एक प्रकृति प्रेमी हूँ, इसलिए अपने कमरे की दीवार की सजावट के लिए मैं चाहता हूँ कि उन पर पेंटिंग्स की बजाए लटकते हुए जीवित कौए हों और पंखे की जगह हवा छोड़ते बंदर... "
किशोर का कहना था कि ये सुनकर वो व्यक्ति बिल्कुल भयभीत हो गया और तेज कदमों से कमरे से बाहर निकला और फिर बाहर निकलकर एकदम से गेट की तरफ़, विद्युत इंजन से भी तेज रफ़्तार से दौड़ पड़ा।
ये बात किशोर दा ने प्रीतीश नंदी को १९८५ में दिए गए साक्षात्कार में बताई थी। प्रीतीश नंदी ने जब पूछा कि क्या ये उनका पागलपन नहीं था? तो किशोर का जवाब था कि अगर वो शख्स उस गर्म दुपहरी में वूलेन थ्री पीस पहनने का पागलपन कर सकता हे तो मैं अपने कमरे में जिंदा काँव-काँव करते कौओं को लटकाने {काकेश भाई ध्यान दें :)}का विचार क्यूँ नहीं ला सकता ?
एक बार एक युवा पत्रकार किशोर दा से मिलने आई। उस वक़्त किशोर घर पर अकेले रहा करते थे। पत्रकार ने उनसे पूछा कि वो अपनी जिंदगी में काफी अकेलापन महसूस करते होंगे?
किशोर जवाब में उन्हें बाहर ले गए और उसका परिचय अपने मित्रों जनार्दन, रघुनंदन, गंगाधर, बुद्धुराम और झटपटाझटपट से करवाया। सबसे गले मिले, बातें की और कहा ये सारे, इस दुष्ट संसार में मेरे असली मित्र हैं।
आप सोच रहे होगें इसमें खास बात क्या थी!
खास बात ये थी जनाब कि ये सब उनकी बगिया के पेड़ थे जिनसे किशोर खाली समय में बड़ी आत्मीयता से बात करते रहते थे।
अपने संघर्ष के दिनों में उन्हें अपनी अदाकारी के पैसों के लिए निर्माताओं की काफी हुज्जत करनी पड़ी थी। पर किशोर भी कम ना थे, एक बार ऐसे ही एक निर्माता को सबक सिखाने के लिए शॉट के ठीक पहले उन्होंने अपने बाल ही मुड़वा डाले। किसी दूसरे निर्माता ने आधे पैसे दिए तो चेहरे के सिर्फ एक ओर मेकअप कर शॉट देने पहुँचे।
बदलते मूड के साथ अपनी कही बात खुद मानने से इनकार कर देते। रिश्तेदारों को खाने पर बुलाते और ऍन वक्त पर जब कोई आता तो बाहर से ही विदा कर देते। किसी से ख़फा रहते तो उसके आते ही अपने कुत्तों को इशारा कर देते और फिर तो आने वाले की शामत ही आ जाती।
अपनी इन नौटंकियों को निजी जिंदगी के आलावा उन्होंने सेल्युलाएड पर भी बड़े बेहतरीन तरीके से उतारा। अब पड़ोसन के गीत
'एक चतुर नार कर के सिंगार.....' को लें। किशोर कहा करते थे कि इस किरदार को निभाने के लिए उन्होंने अपने लंबे बाल रखने वाले, काजल लगाने और हमेशा पान चबाने वाले मामा की नकल उतारी। इनकी बेहतरीन अदाकारी का ये असर हुआ कि सुनील दत्त और महमूद को अपना अभिनय किशोर की तुलना में बेजान लगने लगा और उन्होंने दो दिन के लिए शूटिंग रोक कर अपना गेटअप बदला और विग लगाकर फिर से शूटिंग की। पड़ोसन का ये गीत फिल्म इतिहास के हास्य गीतों में गायन और प्रस्तुतिकरण दोनों ही लिहाज से अव्वल स्थान रखता है।
एक बार की बात है, किशोर के घर एक इंटीरियर डेकोरेटर पधारा। वो सज्जन तपती गर्मी में भी थ्री पीस सूट में आए, और आते ही अपने अमेरिकी लहजे के साथ शुरु हो गए किशोर को फंडे देने कि उनके घर की आंतरिक साज सज्जा किस तरह की होनी चाहिए। किशोर ने किसी तरह आधे घंटे उन्हें झेला और फिर अपनी आवश्यकता उन्हें बताने लगे।
अब गौर करें किशोर दा ने उन से क्या कहा....
"मुझे अपने कमरे में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। बस चारों तरफ कुछ फीट गहरा पानी हो और सोफे की जगह छोटी-छोटी संतुलित नावें, जिसे हम चप्पू से चला कर इधर-उधर ले जा सकें। चाय रखने के लिए ऊपर से टेबुल को धीरे धीरे नीचे किया जा सके ताकि हम मज़े में वहाँ से कप उठा चाय की चुस्कियाँ ले सकें।...."
इंटीरियर डेकोरेटर के चेहरे पर अब तक घबड़ाहट की रेखाएँ उभर आईं थीं पर किशोर कहते रहे...
"....आप तो जानते ही हैं कि मैं एक प्रकृति प्रेमी हूँ, इसलिए अपने कमरे की दीवार की सजावट के लिए मैं चाहता हूँ कि उन पर पेंटिंग्स की बजाए लटकते हुए जीवित कौए हों और पंखे की जगह हवा छोड़ते बंदर... "
किशोर का कहना था कि ये सुनकर वो व्यक्ति बिल्कुल भयभीत हो गया और तेज कदमों से कमरे से बाहर निकला और फिर बाहर निकलकर एकदम से गेट की तरफ़, विद्युत इंजन से भी तेज रफ़्तार से दौड़ पड़ा।
ये बात किशोर दा ने प्रीतीश नंदी को १९८५ में दिए गए साक्षात्कार में बताई थी। प्रीतीश नंदी ने जब पूछा कि क्या ये उनका पागलपन नहीं था? तो किशोर का जवाब था कि अगर वो शख्स उस गर्म दुपहरी में वूलेन थ्री पीस पहनने का पागलपन कर सकता हे तो मैं अपने कमरे में जिंदा काँव-काँव करते कौओं को लटकाने {काकेश भाई ध्यान दें :)}का विचार क्यूँ नहीं ला सकता ?
एक बार एक युवा पत्रकार किशोर दा से मिलने आई। उस वक़्त किशोर घर पर अकेले रहा करते थे। पत्रकार ने उनसे पूछा कि वो अपनी जिंदगी में काफी अकेलापन महसूस करते होंगे?
किशोर जवाब में उन्हें बाहर ले गए और उसका परिचय अपने मित्रों जनार्दन, रघुनंदन, गंगाधर, बुद्धुराम और झटपटाझटपट से करवाया। सबसे गले मिले, बातें की और कहा ये सारे, इस दुष्ट संसार में मेरे असली मित्र हैं।
आप सोच रहे होगें इसमें खास बात क्या थी!
खास बात ये थी जनाब कि ये सब उनकी बगिया के पेड़ थे जिनसे किशोर खाली समय में बड़ी आत्मीयता से बात करते रहते थे।
अपने संघर्ष के दिनों में उन्हें अपनी अदाकारी के पैसों के लिए निर्माताओं की काफी हुज्जत करनी पड़ी थी। पर किशोर भी कम ना थे, एक बार ऐसे ही एक निर्माता को सबक सिखाने के लिए शॉट के ठीक पहले उन्होंने अपने बाल ही मुड़वा डाले। किसी दूसरे निर्माता ने आधे पैसे दिए तो चेहरे के सिर्फ एक ओर मेकअप कर शॉट देने पहुँचे।
बदलते मूड के साथ अपनी कही बात खुद मानने से इनकार कर देते। रिश्तेदारों को खाने पर बुलाते और ऍन वक्त पर जब कोई आता तो बाहर से ही विदा कर देते। किसी से ख़फा रहते तो उसके आते ही अपने कुत्तों को इशारा कर देते और फिर तो आने वाले की शामत ही आ जाती।
अपनी इन नौटंकियों को निजी जिंदगी के आलावा उन्होंने सेल्युलाएड पर भी बड़े बेहतरीन तरीके से उतारा। अब पड़ोसन के गीत
'एक चतुर नार कर के सिंगार.....' को लें। किशोर कहा करते थे कि इस किरदार को निभाने के लिए उन्होंने अपने लंबे बाल रखने वाले, काजल लगाने और हमेशा पान चबाने वाले मामा की नकल उतारी। इनकी बेहतरीन अदाकारी का ये असर हुआ कि सुनील दत्त और महमूद को अपना अभिनय किशोर की तुलना में बेजान लगने लगा और उन्होंने दो दिन के लिए शूटिंग रोक कर अपना गेटअप बदला और विग लगाकर फिर से शूटिंग की। पड़ोसन का ये गीत फिल्म इतिहास के हास्य गीतों में गायन और प्रस्तुतिकरण दोनों ही लिहाज से अव्वल स्थान रखता है।
उनके उछल कूद भरे अभिनय का फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में दर्शकों ने खूब आनंद उठाया। इस फिल्म में तीनों भाई यानि अशोक कुमार, अनूप कुमार और किशोर साथ-साथ आए थे। आप खुद ही देखिए, इस फिल्म के लोकप्रिय गीत 'मैं था, वो थी और समा रंगीन समझ गए ना में...' उनके हाव भावों को......
किशोर कुमार के इस अजूबे भरे व्यक्तित्व का एक अलग पहलू ये भी था कि जब उन्होंने खुद कोई फिल्म बनाई तो विषयवस्तु के निर्वाह उन्होंने बड़े संजीदा ढ़ंग से किया। 'दूर गगन की छांव में..' उनकी ऍसी ही फिल्म रही जो उस सिपाही की दास्तान कहती है जो युद्ध से थक हार कर जब घर लौटता है तो पाता है कि उसका घर जला दिया गया है और उस त्रासदी को झेलने वाला उसका बुरी तरह भयभीत बेटा कुछ भी बता सकने में असमर्थ है। बाकी की कहानी पिता पुत्र के प्रगाढ़ होते संबंधों का लेखा-जोखा है जिसे किशोर ने खूबसूरती से फिल्माया था। ऍसे विषय को चुनना ये दर्शाता है कि उनके शरारती दिमाग के पीछे एक संवेदनशील हृदय भी था जो रह-रह कर उन्हें वास्तविक जिंदगी से जुड़े विषयों पर फिल्म निर्माण के लिए प्रेरित करता था।
अगले भाग में पुनः लौटेंगे अपनी दस गीतों की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए छठे और पाँचवे नंबर के उन गीतों के साथ जिन्हें गुलज़ार ने लिखा और जो किशोर दा के गाए हुए मेरे सबसे प्रिय गीतों में रहे हैं।
इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ
- यादें किशोर दा कीः जिन्होंने मुझे गुनगुनाना सिखाया..दुनिया ओ दुनिया
- यादें किशोर दा कीः पचास और सत्तर के बीच का वो कठिन दौर... कुछ तो लोग कहेंगे
- यादें किशोर दा कीः सत्तर का मधुर संगीत. ...मेरा जीवन कोरा कागज़
- यादें किशोर दा की: कुछ दिलचस्प किस्से उनकी अजीबोगरीब शख्सियत के !.. एक चतुर नार बड़ी होशियार
- यादें किशोर दा कीः पंचम, गुलज़ार और किशोर क्या बात है ! लगता है 'फिर वही रात है'
- यादें किशोर दा की : किशोर के सहगायक और उनके युगल गीत...कभी कभी सपना लगता है
- यादें किशोर दा की : ये दर्द भरा अफ़साना, सुन ले अनजान ज़माना
- यादें किशोर दा की : क्या था उनका असली रूप साथियों एवम् पत्नी लीना चंद्रावरकर की नज़र में
- यादें किशोर दा की: वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी करीब हैं ..समापन किश्त
10 टिप्पणियाँ:
बहुत आनन्द आ रहा है मित्र..
आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ ...(दूर गगन की छाँव में ) को भी सुनवायें।
नयी-नयी बातें पता चल रही है किशोर कुमार के बारे मे। इसके लिए धन्यवाद।
बहुत बढिया जानकारी व दुर्लभ फोटॊ दिए हैं यहाँ।धन्यवाद।
बहुत खूब!!
रोचक जानकारियां देते चल रहे हैं आप्।
शुक्रिया।
जारी रखें
बहुत अच्छे मनीष भाई ...
आपको बतलाऊँ कुछ और बातेँ?
जब किशोर दा मेरे पापा जी के खार उपनगर मेँ स्थित घर पर आये थे एक बार तो आते ही बोले,
" अरे...वाह, ये घर तो बिलकुल मेरे खँडवा के घर जैसा है "
और लीना जी के साथ भी हँसी ठिठोली किया करने मेँ,एक बार उनके घर के पास आये जुहु तारा रोड के समुद्र तट पे, "जान देने जाता हूँ " ऐसा कहते हुए मौजोँ मे कूदने लगे थे :-)
और लीना जी उन्हे बचाने की कोशिश करने लगीँ तो वहाँ खडेमछुआरे सचमुच भयभीत हो गये थे
;-)
ऐसे "ड्रामाबाज़" थे किशोर दा !
...................................
-- लावण्या
अभय जी जानकर खुशी हुई।
ममता जी आप सब की फर्माइश नोट कर रहा हूँ। एक साथ प्रस्तुत करूँगा।
परमजीत बाली जी शुक्रिया ! किशोर ने जो हसीन पल दिये हैं उन्हीं को इस श्रृंखला के द्वारा पुनर्जीवित करने का ये छोटा प्रयास कर रहा हूँ।
संजीत धन्यवाद साथ बना रहने का !
लावण्या जी बहुत अच्छा लगा कि आपने ये बातें यहाँ सब के साथ बाँटी। किशोर दा, आपके पिता के करीबी थे, ये जानकर सुखद आश्चर्य हुआ। ये श्रृंखला पसंद करने के लिए धन्यवाद !
मनीष भाई,
मेरे पापा जी प्रसिध्ध गीतकार स्व.पँडित नरेन्द्र शर्मा जी हैँ ~ हमारे घर ( मेरा पीहर )
बहुत से फिल्मी दुनिया के लोग आया करते थे.उन्हीँ से एक थे किशोर दा -
( जब वे लीना जी से ब्याह कर चुके थे तब की बातेँ हैँ ये जो मैँने यहाँ लिखीँ हैँ )
स स्नेह
--लावण्या
आपने एसा वर्णन किया है कि जैसे सब कुछ आँखो के सामने हो रहा हो. आभार.
मेरे ब्लाग पे पधारेँ मुझे खुशी होगी www.omjaijagdeesh.blogspot.com
मनीष जी , किशोर दा के बारे में इतनी सारी जानकारी पा कर मन गदगद हो गया। मै भी अनन्य किशोर भक्त हूँ। लगभग सभी गीतों का संग्रह है। कृपया ऐसी जानकारियां देते रहें। - विकास जोशी , इंदौर
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