हाशिया पर कुरबान अली का डॉ. राही मासूम रज़ा पर लिखा लेख पढ़ कर उनकी वो ग़ज़ल याद आ गई जो कॉलेज के ज़माने से हमेशा मेरे ज़ेहन में रही है। पर इस ग़ज़ल को गुनगुनाने और सुनवाने से पहले इससे जुड़ी चंद स्मृतियाँ आप से बाँटना चाहूँगा।
वर्ष १९९६ की बात हे। भारतीय इंजीनियरिंग सर्विस के लिए मुझे इंटरव्यू में जाना था। मेकेनिकल इंजीनियरिंग इतना बड़ा विषय है कि साक्षात्कार के नाम से पसीने छूट रहे थे। दिमाग में बस यही था कि शुरुआत में जो रुचियों से संबंधित प्रश्न होंगे उसमें ही जितना खींच सकूँ उतना ही अच्छा। जैसे की आशा थी बात रुचियों से ही शुरु हुई। मैंने अपना एक शौक किताबों को पढ़ना भी लिखा था। इंटरव्यू बोर्ड की प्रमुख उड़िया थीं। हिंदी की किताबों के बारे में उन्हें ज़्यादा जानकारी नहीं थी। सो उन्होंने विषय बदलते पूछा कि आपको इतनी कम उम्र से ही ग़ज़लों का शौक कैसा हो गया ? ख़ैर मैंने उन्हें कुछ पूर्व अभ्यासित फंडे कह सुनाए।
अब व्यक्तिगत सवालों का दौर ख़त्म हो चुका था। तकनीकी सवालों की शुरुआत पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज से आए एक वरीय प्रोफेसर से शुरु होनी थी। मन ही मन मेरे हाथ पाँव फूलने शुरु हो गए थे। पर सरदार जी का पहला सवाल था कि
आखिर जगजीत सिंह आपको क्यूँ अच्छे लगते हैं?
ये तो बेहद मन लायक प्रश्न था सो हमने दिल से अपने उद्गार व्यक्त कर दिए। अगला प्रश्न था कि जगजीत की गाई अपनी पसंदीदा ग़ज़ल के बारे में बताइए। और मैंने डां राही मासूम रज़ा कि लिखी इस बेहद संवेदनशील ग़ज़ल का जिक्र कर डाला..
हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद....
इसकी बात सुनकर वो सज्जन इतने खुश हुए कि उन्होंने कहा कि मुझे इससे और कुछ नहीं पूछना। २५ मिनट तक चले साक्षात्कार के १५ मिनट जगजीत सिंह और राही मासूम रज़ा साहब की इस ग़ज़ल के सहारे बीत गए। बाकी अगले दस मिनटों में तो जो खिंचाई होनी थी सो हुई। पर इन सबके बावज़ूद मुझे साक्षात्कार में २०० में से १०४ अंक मिले जो उस वक़्त बहुत अच्छा तो नहीं, पर सामान्य से अच्छा परिणाम माना जाता था।
आइए रज़ा साहब की इस ग़ज़ल की ओर लौटें जिसका जिक्र मैंने चाँद के अकेलेपन के बारे में बात करते हुए यहाँ भी किया था।
एक प्राकृतिक बिम्ब चाँद की सहायता से परदेस में रहने की व्यथा को रज़ा साहब ने इतनी सहजता से व्यक्त किया है कि आँखें बरबस नम हुए बिना नहीं रह पातीं।
ये परदेस हम सब के लिए कुछ भी हो सकता है...
स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद घर मे ममतामयी माँ के स्नेह से वंचित होकर एक नए शहर की जिंदगी में प्रवेश करने वाला नवयुवक या नवयुवती हो...
या परिवार से दूर रहकर विषम परिस्थितियों में सरहदों की रक्षा करने वाला जवान ...
या रोटी की तालाश में बेहतर जिंदगी की उम्मीद में देश की सरजमीं से दूर जा निकला अप्रवासी...
सभी को अपने वतन, अपनी मिट्टी की याद रह-रह कर तो सताती ही है।
तो लीजिए सुनिए मेरा प्रयास ...
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद
जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चाँद
रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...
जगजीत सिंह जी की आवाज़ में गाई इस ग़ज़ल को मैंने यहाँ अपलोड किया है। रज़ा साहब की बेहतरीन शायरी को बखूबी निभाया है जगजीत जी ने। तो चलें..आप भी आनंद उठाएँ रज़ा साहब की इस बेहतरीन ग़ज़ल का...
वर्ष १९९६ की बात हे। भारतीय इंजीनियरिंग सर्विस के लिए मुझे इंटरव्यू में जाना था। मेकेनिकल इंजीनियरिंग इतना बड़ा विषय है कि साक्षात्कार के नाम से पसीने छूट रहे थे। दिमाग में बस यही था कि शुरुआत में जो रुचियों से संबंधित प्रश्न होंगे उसमें ही जितना खींच सकूँ उतना ही अच्छा। जैसे की आशा थी बात रुचियों से ही शुरु हुई। मैंने अपना एक शौक किताबों को पढ़ना भी लिखा था। इंटरव्यू बोर्ड की प्रमुख उड़िया थीं। हिंदी की किताबों के बारे में उन्हें ज़्यादा जानकारी नहीं थी। सो उन्होंने विषय बदलते पूछा कि आपको इतनी कम उम्र से ही ग़ज़लों का शौक कैसा हो गया ? ख़ैर मैंने उन्हें कुछ पूर्व अभ्यासित फंडे कह सुनाए।
अब व्यक्तिगत सवालों का दौर ख़त्म हो चुका था। तकनीकी सवालों की शुरुआत पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज से आए एक वरीय प्रोफेसर से शुरु होनी थी। मन ही मन मेरे हाथ पाँव फूलने शुरु हो गए थे। पर सरदार जी का पहला सवाल था कि
आखिर जगजीत सिंह आपको क्यूँ अच्छे लगते हैं?
ये तो बेहद मन लायक प्रश्न था सो हमने दिल से अपने उद्गार व्यक्त कर दिए। अगला प्रश्न था कि जगजीत की गाई अपनी पसंदीदा ग़ज़ल के बारे में बताइए। और मैंने डां राही मासूम रज़ा कि लिखी इस बेहद संवेदनशील ग़ज़ल का जिक्र कर डाला..
हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद....
इसकी बात सुनकर वो सज्जन इतने खुश हुए कि उन्होंने कहा कि मुझे इससे और कुछ नहीं पूछना। २५ मिनट तक चले साक्षात्कार के १५ मिनट जगजीत सिंह और राही मासूम रज़ा साहब की इस ग़ज़ल के सहारे बीत गए। बाकी अगले दस मिनटों में तो जो खिंचाई होनी थी सो हुई। पर इन सबके बावज़ूद मुझे साक्षात्कार में २०० में से १०४ अंक मिले जो उस वक़्त बहुत अच्छा तो नहीं, पर सामान्य से अच्छा परिणाम माना जाता था।
आइए रज़ा साहब की इस ग़ज़ल की ओर लौटें जिसका जिक्र मैंने चाँद के अकेलेपन के बारे में बात करते हुए यहाँ भी किया था।
एक प्राकृतिक बिम्ब चाँद की सहायता से परदेस में रहने की व्यथा को रज़ा साहब ने इतनी सहजता से व्यक्त किया है कि आँखें बरबस नम हुए बिना नहीं रह पातीं।
ये परदेस हम सब के लिए कुछ भी हो सकता है...
स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद घर मे ममतामयी माँ के स्नेह से वंचित होकर एक नए शहर की जिंदगी में प्रवेश करने वाला नवयुवक या नवयुवती हो...
या परिवार से दूर रहकर विषम परिस्थितियों में सरहदों की रक्षा करने वाला जवान ...
या रोटी की तालाश में बेहतर जिंदगी की उम्मीद में देश की सरजमीं से दूर जा निकला अप्रवासी...
सभी को अपने वतन, अपनी मिट्टी की याद रह-रह कर तो सताती ही है।
तो लीजिए सुनिए मेरा प्रयास ...
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद
जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चाँद
रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...
जगजीत सिंह जी की आवाज़ में गाई इस ग़ज़ल को मैंने यहाँ अपलोड किया है। रज़ा साहब की बेहतरीन शायरी को बखूबी निभाया है जगजीत जी ने। तो चलें..आप भी आनंद उठाएँ रज़ा साहब की इस बेहतरीन ग़ज़ल का...
Hum To Hain Pardes... |
8 टिप्पणियाँ:
मनीष भाई
संयोग देखिए कि आपको भी कुरबान अली की पोस्ट पर पुरानी बातें याद आ गयीं
और मुझे भी । मैंने राही मासूम रज़ा की एक ग़ज़ल अपने चिट्ठे पर चढ़ाई है ।
जरा पहुंचियेगा ।
मनीष भाई
संयोग देखिए कि आपको भी कुरबान अली की पोस्ट पर पुरानी बातें याद आ गयीं
और मुझे भी । मैंने राही मासूम रज़ा की एक ग़ज़ल अपने चिट्ठे पर चढ़ाई है ।
जरा पहुंचियेगा ।
हम भी अपने वतन से हजारों कोस दूर परदेस में ही है, हम महसूस कर सकते हैं इस दर्द को।
मनीष भाई:
ज़रा इसे भी देखो :
http://anoopkeepasand.blogspot.com/2007/09/blog-post.html
आँख भर आती है इस गीत को सुन...क्या कहूं// आभार!!!
यूनुस, समीर जी, अनूप जी और सागर भाई राही मासूम रजा साहब की इस कृति ने आप सब के दिल को छुआ जानकर प्रसन्नता हुई।
मनीष जी!
रज़ा साहब की यह गज़ल एक लम्बे अर्से से मेरी पसंदीदा गज़लों में से रही है. अशआर की नाज़ुकी और जगजीत सिंह जी की आवाज़ इसे नायाब बना देते हैं. इसे सुनवाने के लिये आभार!
मनीष जी ! आपकी विशेषता ये है कि आप जो भी लिखते है वो कहीं न कही सबके अनुभवों में शामिल होता है, और इसीलिये आपका चिट्ठा लोगो पसंद आता है!
(स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद घर मे ममतामयी माँ के स्नेह से वंचित होकर एक नए शहर की जिंदगी में प्रवेश करने वाला नवयुवक या नवयुवती हो...)
क्या बात है!....सचमुच ऐसे ही कुछ अनुभव थे मेरे जब मैं अपनी पहली पोस्टिंग पर गई थी और शाम को आफिस से लौटने के बाद " ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन" का रिकॉर्ड लग जाता था, उस समय वतन भारत नही बल्कि कानपुर की अपनी गली हुआ करता था...!
बहुत अच्छी पोस्ट !
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