स्कूल में जब भी हरिवंशराय बच्चन की कविताओं का जिक्र होता एक प्रश्न मन में उठता रहता कि जिस कवि ने मदिरालय और उसमें बहती हाला पर पूरी पुस्तक लिख डाली हो वो तो अवश्य निजी जीवन में धुरंधर पीने वाला रहा होगा।
वैसे भी भला ऍसी रुबाईयों को पढ़कर हम और सोच भी क्या सकते थे?
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।
संकोचवश ये प्रश्न कभी मैं अपने हिंदी शिक्षक से पूछ नहीं पाया। और ये जिज्ञासा, बहुत सालों तक जिज्ञासा ही रह गई....
वर्षों बाद दीपावली में घर की सफाई के दौरान पिताजी की अलमारी से दीमकों के हमले का मुकाबला करता हुआ इसका १९७४ में पुनर्मुद्रित पॉकेट बुक संस्करण मिला। और मेरी खुशी का तब ठिकाना नहीं रहा जब पुस्तक के परिशिष्ट में हरिवंशराय बच्चन जी को खुद बड़े रोचक ढंग से इस प्रश्न की सफाई देता पढ़ा।
तो लीजिए पढ़िए कि बच्चन जी का खुद क्या कहना था इस बारे में...
"...........मधुशाला के बहुत से पाठक और श्रोता एक समय समझा करते थे, कुछ शायद अब भी समझते हों, कि इसका लेखक दिन रात मदिरा के नशे में चूर रहता है। वास्तविकता ये है कि 'मदिरा' नामधारी द्रव से मेरा परिचय अक्षरशः बरायनाम है। नशे से मैं इंकार नहीं करूँगा। जिंदगी ही इक नशा है। और भी बहुत से नशे हैं। अपने प्रेमियों का भ्रम दूर करने के लिए मैंने एक समय एक रुबाई लिखी थी
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुँचा देता मधुशाला।
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुँचा देता मधुशाला।
फिर भी बराबर प्रश्न होते रहे, आप पीते नहीं तो आपको मदिरा पर लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती है? प्रश्न भोला था , पर था ईमानदार। एक दिन ध्यान आया कि कायस्थों के कुल में जन्मा हूँ जो पीने के लिए प्रसिद्ध है, या थे। चन्द बरदाई के रासो का छप्पय याद भी आया। सोचने लगा, क्या पूर्वजों का किया हुआ मधुपान मुझपर कोई संस्कार ना छोड़ गया होगा! भोले भाले लोगों को बहलाने के लिए एक रुबाई लिखी
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
पर सच तो यह है कि हम लोग अमोढ़ा के कायस्थ हैं जो अपने आचार-विचार के कारण अमोढ़ा के पांडे कहलाते हैं, और जिनके यहाँ यह किवदंती है कि यदि कोई शराब पिएगा तो कोढ़ी हो जाएगा। यह भी नियति का एक व्यंग्य है कि जिन्होंने मदिरा ना पीने की इतनी कड़ी प्रतिज्ञा की थी, उनके ही एक वंशज ने मदिरा की इतनी वकालत की।................."
बाद में जब पूरी पुस्तक पढ़ी तो लगा मदिरालय और हाला को प्रतीक बनाकर बच्चन ने जीवन के यथार्थ को कितने सहज शब्दों में व्यक्त किया है। अगली पोस्ट में चलेंगे मधुशाला की कुछ रुबाईयों के संगीतमय सफ़र पर...
11 टिप्पणियाँ:
मधुशाला पढ़ना खासतौर से सुनना दोनो ही एक अलग ही स्थिति में ला खड़ा करता है।
"…करना तर्पण अर्पण मु्झको, पढ़-पढ़ के मधुशाला……"
बच्चन साहब की आत्मकथा पढ़ते हुए जैसे चित्र खींच जाते हों आंखो के सामने!
वाह । मधुशाला का कैसेट मैंने तब जुगाड़ा था जब स्कूल में था और किसी मित्र ने एक दिन इसे सुनने को दिया बस भागकर गया और इसकी कॉपी करा ली । तब से आज तक ये मेरा प्रिय रिकॉर्ड है । मन्ना डे और जयदेव ने जबर्दस्त मेहनत की है । पहले रफी साहब के नाम पर विचार किया गया था पर बच्चन जी ने कहा कि संभवत: रफी साहब को दिक्कत आयेगी शुद्ध हिंदी शब्दों के उच्चारण में । इसलिए मन्ना डे को चुना गया । अगली कडि़यों का इंतज़ार ।
वाह मनीष भाइ आपने आज बहुत बढ़िया विषय चुना। मधुशाला मैने भी कई बार पढ़ी है। बरसों पहले पापाजी मधुशाला की ओडियो कैसेट लाए थे, उन दिनों इसे इतनी बार सुना कि पूरी याद हो गई थी। (अब नहीं है)
मधुशाला मुझे बहुत पसन्द है( यह बात अलग है कि कवि कि तरह अपना भी मदिरा से नाता...... :)
ये पंक्तियां बहुत मजेदार है -
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
सिर्फ़ एक कविता की तरह तो तब भी नहीं पढ़ा था जब इसे पहली बार अजूबे की तरह पढ़ा था। कैसे एक ही तुक और एक ही छन्द में किसी ने पूरा का पूरा काव्य लिख डाला। हर दूसरी पंक्ति के अन्त में "हाला", चौथी के अन्त में "बाला"… और अखिरी शब्द "मधुशाला"। गिन्ती के वही 20-25 शब्द, और कह दिये जीवन के समस्त अनुभाव।
मनीष भाई
मधुशाला का तो क्या कहना!!
आलेख अच्छा है.
मनीष भाई
आपके आलेख मेँ , मैँ भी कुछ जोडना चाहती हूँ ~मधुशालाि खने से पहले के समय की ओर चलेँ
श्यामा डा.हरिवँश राय बच्चन जी की पहली पत्नीँ थीँ जिसके देहाँत के बाद कवि बच्चन जी बहुत दुखी और भग्न ह्र्दय के हो गये थे. तब, इलाहाबाद के एक मकान मेँ मेरे पापा जी के साथ कुछ समय बच्चन जी साथ रहे. तब तक बच्चन जी , ज्यादातर गध्य ही लिखते थे. पापा जी ने उन्हेँ "ऊमर खैयाम " की रुबाइयाँ " और फीट्ज़जराल्ड जो अँग्रेजी मेँ इन्हीँ रुबाइयोँ का सफल अनुवाद कर चुके थे, ये २ किताबेँ पापा जी ने बच्चन जी को भेँट कीम और आग्रह किया था कि, "बँधु, अब आप पध्य लिखिये " और "मधुशाला " उसके बाद ही लिखी गई थी. है ना अद्`भुत किस्सा ?
ल्म्स ~ स्नेह, लावण्या
संजीत सही कहा आपने....
यूनुस वो कैसेट तो मेरे पास भी है। मन्ना डै और जयदेव ने सच में बहुत अच्छा काम किया है। पर हाल ही में अमिताभ की आवाज़ में मधुशाला सुनने का आनंद मिला जो अभूतपूर्व लगा।
सागर भाई आप भी मेरी वैरायटी वाले निकले मदिरा के मामले में :)
पुनीत बिल्कुल दिल की बात कह दी है आपने !
समीर जी शुक्रिया !
लावण्या जी इतनी रोचक बात बताई आपने कि अगली पोस्ट में इसे quote करने का लोभ संवरण ना कर सका. बहुत बहुत धन्यवाद और आभार आपका !
हजारों मे एक यह तेरी मधुशाला
मधुशाला के एक एडिशन के परिशिष्ठ में बच्चन जी ने चंदबरदाई का एक सूत्र भी दिया था जिसमें राजा का प्रधान किस जाति का होना चाहिए यह बताया था। एक ही पंक्ति याद है ... कायथ हो परधान अहो निसी रहे पियंतो ..
यदि किसी के पास पूरा छंद हो तो कृपया साझा करें 🙏🏻
खत्रि होय परधान खाय, खंडौ दिखरावै,
साहु होय परधान भरै घर, राज थंभावै,
कायथ होय प्रधान अहो निसि रहै पियंतो,
बम्मन होय प्रधान सदा रखवै निचिंतौ,
नाई प्रधान नहीं कीजिये, कवि चन्दविरद साँची चवै।
चहु आन-बान गुन सट्टवै, मत चुक्किस मौटे तवै।"
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