पिछली पोस्ट की टिप्पणी में पंडित नरेंद्र शर्मा की पुत्री लावण्या जी ने 'मधुशाला' की रचना से जुड़ी एक बेहद रोचक जानकारी बाँटी है। लावण्या जी लिखती हैं
"......मधुशाला लिखने से पहले के समय की ओर चलें। श्यामा, डा.हरिवंश राय बच्चन जी की पहली पत्नी थीं जिसके देहांत के बाद कवि बच्चन जी बहुत दुखी और भग्न ह्र्दय के हो गये थे। तब इलाहाबाद के एक मकान में मेरे पापा जी के साथ कुछ समय बच्चन जी साथ रहे। तब तक बच्चन जी , ज्यादातर गद्य ही लिखते थे। पापा जी ने उन्हें "उमर खैयाम " की रुबाइयाँ " और फिट्ज़्जराल्ड, जो अँग्रेजी में इन्हीं रुबाइयों का सफल अनुवाद कर चुके थे, ये दो किताबें, बच्चन जी को भेंट कीं और आग्रह किया था कि
"बंधु, अब आप पद्य लिखिए " और "मधुशाला " उसके बाद ही लिखी गई थी।........"
"बंधु, अब आप पद्य लिखिए " और "मधुशाला " उसके बाद ही लिखी गई थी।........"
'मधुशाला' की लोकप्रियता जैसे-जैसे बढ़ती गई हर कवि सम्मेलन में हरिवंश राय 'बच्चन' जी इसकी कुछ रुबाईयाँ सुनानी ही पड़तीं। मैंने सबसे पहले की कुछ रुबाईयाँ मन्ना डे की दिलकश आवाज़ में सुनी थी। उसी कैसेट में हरिवंश राय 'बच्चन' जी की आवाज में ये रुबाई सुनने का मौका मिला था। आप भी सुनें...
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।
मन्ना डे की सधी आवाज़ में HMV पर रिकार्ड किया हुआ कैसेट तो आप सब सुन चुके ही होंगे। पर अमिताभ बच्चन की आवाज में 'मधुशाला' की पंक्तियाँ सुनने का आनंद अलग तरह का है। वो उसी लय में 'मधुशाला' पढ़ते हैं जैसे उनके पिताजी पढ़ते थे। और अमिताभ की आवाज़ तो है ही जबरदस्त। पीछे से बजती मीठी धुन भी मन में रम सी जाती है और बार-बार हाथ रिप्ले बटन पर दब जाते हैं। तो पहलें सुनें अमिताभ की आवाज में 'मधुशाला' की चंद रुबाईयाँ जो उन्होंने पिता के सम्मान में किए गए कवि सम्मेलन के दौरान सुनाईं थीं।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला ।
यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।
मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीह्वा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।
मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आँसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।
और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला ।
यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।
मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीह्वा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।
मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आँसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।
और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।
'मधुशाला' लिखने के बाद बच्चन जी ने कुछ रुबाईयाँ और लिखीं थी जिनमें से कुछ का जिक्र मैंने पिछली पोस्ट में किया था। वहीं अपनी टिप्पणी में संजीत ने जिस रुबाई का ज़िक्र किया है उसे सुनकर आँखें नम हो जाती हैं। बच्चन जी ने इसके बारे में खुद लिखा था...
".......जिस समय मैंने 'मधुशाला' लिखी थी, उस समय मेरे जीवन और काव्य के संसार में पुत्र और संतान का कोई भावना केंद्र नहीं था। अपनी तृष्णा की सीमा बताते हुए मृत्यु के पार गया, पर श्राद्ध तक ही
प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।
जब स्मृति के आधार और आगे भी दिखलाई पड़े तो तृष्णा ने वहाँ तक भी अपना हाथ फैलाया और मैंने लिखा....
पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। .........."
प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।
जब स्मृति के आधार और आगे भी दिखलाई पड़े तो तृष्णा ने वहाँ तक भी अपना हाथ फैलाया और मैंने लिखा....
पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। .........."
मन्ना डे ने बड़े भावपूर्ण अंदाज में इन पंक्तियों को अपना स्वर दिया है। सुनिए और आप भी संग गुनगुनाइए ....
13 टिप्पणियाँ:
मधुशाला मेरी पसंदीदा रचनाओं में है. धन्यवाद पेश करने के लिये.
एक बार फिर हर दिल अजीज मधुशाला पर बेहतरीन प्रस्तुति. बहुत आभार, मनीष आपका और साथ ही लावण्या जी का जानकारी के लिये.
मधुशाला के बारे मे हम जितना ज्यादा पढें या सुने, हम उसे उतना ही ज्यादा पसँद करने लगते हैं...किन्ही वजहों से मै इसे सुन नही पा रही हूँ..अफसोस है.
मनीष जी मन्ना डे की आवाज़ में मधुशाला सुनना बहुत अच्छा लगा और आपकी प्रस्तुति भी -
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।
सस्नेह -
सजीव सारथी
sajeevsarathie@gmail.com
09871123997
www.hindyugm.com
www.sajeevsarathie.blogspot.com
www.dekhasuna.blogspot.com
मनीष भाई कुछ तो तकलीफ है तभी प्ले ही नहीं हो रहा। ईस्निप से बेहतर है Lifelogger जिसका प्रयोग मैने कई बार गीतों की महफिल पर किया है तथा, Pickle Player जिसका प्रयोग रेडियोनामा पर इरफान भाई ने किया है। ये दोनो प्लेयर बहुत जल्दी लोड हो जाते हैं, और बजने लगते हैं।
वाह मनीष भाई मजा आ गया। सुबह से कम से कम बीस बार अमित जी की आवाज में मधुशाला सुन चुकाँ हुँ लेकिन दिल है कि भरता ही नही। मधुशाला पढने में तो मजा आया ही था लेकिन सुनने में और भी ज्यादा आनंद मिला। अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा। साथ ही यह भी बताइयेगा कि इसकी आडिओ या mpg फ़ाइल नेट पर कहाँ मिल सकती है।
काकेश जानकर प्रसन्नता हुई
समीर जी धन्यवाद !
रचना जी समस्या फाइल बड़ी होने से आ रही होगी। अब उसे compress कर के भी डाल दिया है।
सागर भाई पिकल प्लेयर में भी कभी कभी समस्या आती है। lifelogger अभी तक आजमाया नहीं है। आगे से try कर के देखूँगा।
सजीव आशा है अमिताभ वाला वर्जन आपने सुन लिया होगा।
संजय बिल्कुल मुझे भी ऍसा ही अनुभव हुआ था। मैंने वेब पर इसे अपलोड किया हुआ है, शीघ्र ही orkut पर आपको link scrap करता हूँ।
बच्चन जी के विषय में अच्छी जानकारी वाला लेख!
एक बात जो पहले कहना चाहता था लेकिन नहीं कही वो ये कि मधुशाला की रचना बच्चन ने 1933 में की थी. ये किताब 1935 में छ्पी थी.श्यामा जी का निधन 1936 के अंत में हुआ था.
कंचन शुक्रिया !
काकेश भाई अच्छा किया आपने इसका उल्लेख कर दिया। लावण्या जी से पूछूँगा इस संबंध में।
अतीव सुंदर.. मन उत्फुल्ल हुआ । ऐसे ही आनंद बाँटते रहिएगा ।
कृपया यदि संभव हों तो कवि माणिक वर्माजी की "मांगीलाल और मैं" यह व्यंग्य कविता आपके ब्लाग पर अवश्य प्रकाशित किजिएगा ।
मृदुला जी सराहने का शुक्रिया। जिस कविता का आपने उल्लेख किया है वो मैंने नहीं पढ़ी।
मनीष जी काफी तलाश थी अमित जी की आवाज में मधुशाला की। आज इधर आए तो लोड कर ली। बाद में सुनेगे जी। आपका दिल से शुक्रिया।
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