गुरुवार, अगस्त 27, 2009

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं, मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और...

पिछली बार मैंने बात की थी मुकेश की गाई ग़ज़ल जरा सी बात पे हर रस्म... की। आज उसी एलबम की वो नज़्म पेश है जिसकी खोज करते करते आखिरकार इस कैसेट तक पहुँच पाया था। तब मैं इंटर में था । ग़ज़लों में दिलचस्पी जब से बढ़ी थी, विविध भारती का एक कार्यक्रम मेरी रोज़ की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था। वो कार्यक्रम था रंग तरंग जो उस ज़माने में दिन के साढ़े बारह बजे आता था। और ऍसी ही एक दुपहरी में ट्रांजिस्टर आन करने के बाद दूसरे कमरे से मुकेश की आवाज़ में ये पंक्तियाँ सुनी तो मन ठिठक सा गया था...

ना जाने क्यूँ ये पंक्तियाँ दिल में, पूरी नज़्म से पृथक अपना एक अलग अस्तित्व ही बना गईं। और बरसों बाद भी जब-जब वक़्त ने , जिंदगी के मुकाम पर अकेला छोड़ा तो मैंने खुद को अपने आप से यही कहते पाया।

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और..


और शायद उसी कुछ और की तालाश आज भी बदस्तूर ज़ारी है...

इस नज़्म को लिखने वाले थे शौकत जयपुरी साहब जिनके बारे में मुझे कोई खास जानकारी नहीं है सिवाए इस बात के कि वे अठारहवीं शताब्दी के अंत में ये उर्दू शायरी के क्षितिज पर चमके। १९१६ में शौकत साहब का इंतकाल हुआ। पर कमाल देखें कि उनकें गुज़रने के ४०-५० साल बाद, उनकी शायरी को मुकेश के आलावा तलत महमूद और मन्ना डे साहब सरीखे महान गायकों ने अपनी आवाज़ दी। ये नज़्म १९६८ में मुरली मनोहर स्वरूप के संगीत निर्देशन में संगीतबद्ध की गई। तबले की हल्की-हल्की थाप के साथ बाकी साज संयोजन कुछ इस तरह किया गया कि श्रोता का ध्यान इस नज़्म के बोलों से भटके नहीं।

तो पेश है ये नज़्म मेरे अनुवाद की कोशिश के साथ





आशिकों के लिए तो वैसे भी सौ ख़ून माफ हैं और एकबार जब समाज ने आशिक का तमगा दे ही दिया तो फिर कौन रोक सकेगा उसे मचलने से। अरे इश्क में वो ताकत है कि वो अपने से दूर कर दिए हुस्न को भी अपनी और खींच सकता है। राह में काँटें तो क्या अंगारे भी बिछा दें तो भी वो उसपे हँसते-हँसते चल सकता है। पर क्या इस निष्ठुर दुनिया के तौर तरीकों को सहना जरूरी है? नहीं मेरे दोस्त, मेरे प्रिय मेरे मन को ये मंज़ूर नहीं।

हाँ मैं दीवाना हूँ, चाहूँ तो मचल सकता हूँ
ख़िलवत-ए-हुस्न के कानून बदल सकता हूँ
ख़ार तो ख़ार है, अंगारों पे चल सकता हूँ

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और..


क्या मैं इस जालिम दुनिया को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ अनसुनी कर अपने अक्स को दबाता चला जाऊँ। अपनी तमन्नाओं का गला घोंट, उन्हें वैसे ही बिखर जाने दूँ जैसे तुम्हारी ये हसीन जुल्फ़ें हवा की मार से सर से सीने तक बिखर जाती हैं।नहीं मेरे दोस्त, मेरे हमदम ये मुझे गवारा नहीं...

इसी रफ़्तार से, दुनिया को गुजर जाने दूँ
दिल में घुट घुट कर तमन्नाओं को मर जाने दूँ
तेरी जुल्फ़ों को सर-ए-तोश बिखर जाने दूँ

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और..



मेरा दिल करता है कि बुजुर्गियत ओढ़े इन बड़े लोगों का अहंकार को छिन्न भिन्न कर दूँ। तोड़् दूँ इस दुश्मन दुनिया के फैलाए हुए आतंक के इस घेरे को। अगर ऍसा करने से सत्ता के मद में चूर इन सामाजिक कीटाणुओं का ख़ून भी बहता है तो मुझे इसकी कोई परवाह नहीं। आखिरकार ये सूरत-ए-हाल इन्हीं लोगों की वज़ह से है। और एक सच्चे आशिक का धर्म भी यही कहता है कि अपने महबूब तक पहुँचने के लिए समाज के ठेकेदारों के बनाए भेदभाव पूर्ण दीवार को भी तोड़ना पड़े तो वही सही...


एक दिन छीन लूँ मैं अज़मत ए बातिल का जुनूँ
तोड़ दूँ, तोड़ दूँ मैं शौकत-ए-दुनिया का फ़सूँ
और बह जाए यहीं नफ़्स ए ज़रोसीम का ख़ून
गैरत-ए-इश्क को मंज़ूर तमाशा है यही
मेरी फ़ितरत का मेरे दोस्त तक़ाजा है यही

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22 टिप्पणियाँ:

पारुल "पुखराज" on अक्टूबर 07, 2007 ने कहा…

वाह वाह मनीश जी तबीयत खुश हो गयी………बहुत खूबसूरत नज़्म आपने सुनवायी आज …धन्यवाद्…

sanjay patel on अक्टूबर 07, 2007 ने कहा…

मनीशभाई;
रंगतरंग किसी ज़माने में दोपहर दो बजे भी आता था ; प्रस्तोता होते थे अशोक आज़ाद.विविध भारती के लाजवाब कार्यक्रमों में से एक था ये. और बड़ी बात ये कि जब कैसेट्स और सीडीज़ बहुत आसानी से उपलब्ध नहीं होते थे (या हमारे जैसे मध्यमवर्गीय परिवार द्वारा अफ़ोर्ड नहीं किये जा सकते थे) तब मुझ जैसे ....आप जैसे सैकडों संगीतप्रेमियों को आसरा दिया इस प्रोग्राम ने. एक और ख़ास बात रंगतरंग के बारे में. विविध भारती उस ज़माने में लायब्रेरी ब्रॉडकास्ट का स्टेशन यानी देश भर के आकाशवाणी केन्द्रों से आईं चुनिंदा गीत,भजन और ग़ज़ल रचनाओं का प्रसारण मुंबई से किया करता था. इस बहाने न जाने कितनी आवाज़ें देश भर में पहुँचती थी. जगजीतसिंह माने न माने उनकी ग़ज़ल आहिस्ता आहिस्ता(एलब्म:अनफ़ॉगेटेबल्स इसी रंगतरंग मे शुमार हो हो कर ही मकबूल हुई और देश भर में चर्चा में आए जगजीतसिंह. मुकेश जी की इस रचना को सुनकर याद हो आया कि एक बार नितिन मुकेश ने एक व्यक्तिगत मुलाक़ात में मुझे बताया था कि उनके पापा यानी मुकेशजी का चित्रपट गायक से अलहदा सुगम संगीत गायक के रूप मुल्यांकन ही नहीं हो पाया. आज जब ये टिप्पणी लिख रहा हूँ तो दोपहर का वक्त है और लग रहा है जैसे फ़िर रंग तरंग की महफ़िल नमूदार हुई है और मै पंद्रह -सत्रह बरस का संजय हो गया हूँ.साधुवाद.

Yunus Khan on अक्टूबर 07, 2007 ने कहा…

मनीष पहले स्‍वर्ण जयंती की व्‍यस्‍तताएं फिर सबकी तरह मेरी भी 'आंख' आ गयी है । गड़ती हुई किरकिरी के बीच तुम्‍हारी पोस्‍ट पढ़कर आनंद आया । संजय भाई ने सही कहा कि मुकेश के गैर फिल्‍मी गीतों का सही मूल्‍यांकन नहीं हुआ । यहां ये बात रेखांकित करना चाहूंगा कि उनके कई समकालीनों ने तो गैर फिल्‍मी गीत उतनी तादाद में नहीं गाये जितने खुद उन्‍होंने गाए । लता जी के भजन ज्‍यादा हैं गीत कम । रफी ने खैयाम के लिए कुछ गीत गजल और भजन गाए । हेमंत कुमार और मन्‍नाडे ने गैर फिल्‍मी बहुत गाया । किशोर दा ने इस मामले में कंजूसी ही बरती । तलत के गैर फिल्‍मी गीत उनके फिल्‍मी कैरियर से पहले से आते रहे । लेकिन मुकेश ने ना सिर्फ रामचरित मानस पूरी गाई जो कई एल पी के सेट में उपलब्‍ध रही और आज सी डी पर उपलब्‍ध है । जबकि उनके गैरफिल्‍मी गीतों की महफिल खूब जमी । क्‍या आप इस कैसेट से इन रचनाओं को चढ़ा रहे हैं या फिर नेट पर खोजा है । इसी बहाने मुझे मुकेश की गाई अमीर खुसरो की एक रचना याद आ गयी, जिहाले मिस्‍किन मकुन बरंजिश दुराए नैना बताएं बतियां । जल्‍दी ही आप सबको सुनवाऊंगा कहीं से जुटाकर । और हां । कभी रामचरित मानस भी खोजिए । अगर ना मिले तो मैं हूं ना ।

कंचन सिंह चौहान on अक्टूबर 08, 2007 ने कहा…

वाह जी वाह! कहाँ कहाँ से चुन के लाते हैं ये मोती जिन्हे बस छू लेने का मन हो जाये! बहुत खूब मैने पहले कभी सुना भी नही थी! सुना तो मन को छू गये भाव!

Manish Kumar on अक्टूबर 08, 2007 ने कहा…

संजय भाई बड़ा अच्छा लगा आपने उन गुजरे दिनों की बातों को यहाँ विस्तार से बाँटा। बिलकुल सही कहा आपने। मुझे याद है कि ये वो वक्त था जब EMI में HMV की चुनिंदा कैसेट होती थीं और उनका मूल्य इतना ज्यादा होता था कि बड़ी मुश्किल से हमारे घर में दो तीन महिने में एक कैसेट आ पाती थी। गुलाम अली, मेंहदी हसन और अन्य गायकों की कैसेट हम अपने रिश्तेदार से बोल कर मँगाते थै जो नेपाल की सीमा के पास रहते थे।
रंग तरंग में सबसे पहले मैंने जगजीत की आवाज़ में कल चौदहवीं की रात थी सुना था। पर विविध भारती ने उस दौर में जगजीत की गिनी चुनी ग़ज़लों को ही बार बार बजाया। पर इस कार्यक्रम की बदौलत पीनाज़ मसानी, मुन्नी बेगम, अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन, गुलाम अली, हरिहरण और कई बेशुमार गायकों की ऍसी कई बेहतरीन ग़ज़लें भी सुनने को मिलीं जो आज नेट पर भी मिलना दुर्लभ है. मुकेश की ये नज़्म भी ऍसी ही है। एक बार फिर से शुक्रिया इन पुरानी यादों को ताजा करने का।

Manish Kumar on अक्टूबर 08, 2007 ने कहा…

यूनुस आशा है अब आप पूर्णतः स्वस्थ हो गए होंगे। इस स्थिति में भी आपने टिप्पणी करने की ज़हमत उठाई इसके लिए आभारी हूँ। गैर फिल्मी गीतों में हमारे पुराने गायकों के योगदान के बारे में जानकारी बाँटने का शुक्रिया। नेट पर ये रचनाएँ उपलब्ध नहीं थीं। इन्हें रिकार्ड कर इसे इस पोस्ट में डाला है यूनुस भाई। रामचरितमानस सुनने के लिए नेट पर उपलब्ध देखी थी मैंने मुकेश की आवाज़ में।

पारुल जी, कंचन ये नज़्म आपके दिल को छूती गुज़री जानकर खुशी हुई।

Udan Tashtari on अगस्त 27, 2009 ने कहा…

आनन्द आ गया. पुराने गाने कहाँ से डाउनलोड करते हैं, जरा ईमेल करियेगा.

सुशील छौक्कर on अगस्त 27, 2009 ने कहा…

मनीश जी अफसोस आज सुन नही पाऊँगा। वैसे पुराने दिनों की हमें भी याद आ गई। पुराने दिनों से मुझे भी याद आया कि मैं गानों के साथ रागनी भी सुना करता था। कभी मौका मिले और आपको चहल कदमी करते हुए कही टकरा जाए तो जरुर सुनवाईऐगा। और हाँ समीर जी मेल हमें भी फारवर्ड कर दीजिऐगा यानिकी लिंक़।

अमिताभ मीत on अगस्त 27, 2009 ने कहा…

क्या बात है !! मस्त कर दिया भाई .......

रचना. on अगस्त 28, 2009 ने कहा…

अहा! मजा आया सुनकर और पढकर भी .:)ापने लिखा है mp3 version यहां सुने लेकिन कोइ लिन्क तो दिख नही रही... वैसे मैने तो उपर से ही सुन लिया..

लीना मेहेंदळे on अगस्त 28, 2009 ने कहा…

कभी मुकेश के इस गीत पर भी टिप्पणी करें -- नैन का चैन चुराकर ले गई कर गई नींद हराम
चंद्रमा सा मुख था उसका चंद्रमुखी था नाम

Monika (Manya) on अगस्त 29, 2009 ने कहा…

bahut hi khubsoorat.....

Manisha Dubey ने कहा…

aaj aapne muje bhi purane samay ki yaad dila di ''rang tarang'' ke jariye, bahut sukun mila mukeshji ki aawaz sunkar,wese toh unka har geet apne aap me bemisal hai lekin jo geet jada sunne me nahi aate unse aap hame ru-baru karwate hain,iske liye dhanyawad

Rajan on दिसंबर 17, 2009 ने कहा…

Manish Saheb,

Yeh mere college din ka ek favourite nazm hai. Google me search karte karte main yahan pahuncha. Dil khush ho gaya aur college life ke woh rangeen sham mere antar nazaron ke saamne prakat hote gaye.

'Add to Favorites' button to click karna hi tha! Ab mein yahan aata rahoonga.
Dher sara pyar aur shubhkamnayen
Rajan
New Jersey, USA

Ambika P Pant on मार्च 18, 2012 ने कहा…

wah manish jee, wordings aapki hain same mere sath bhi ese hi huva tha when i was in class 12th i luckily heard this song in rang-tarang.

ek gajal aur suni thi maine sabri bandhu ki awaj mai us time "ABKE SAL POONAM MAI JAB TOO AAYEGI MILNE, HUMNE SOCH RAKHA HAI RAT YUN GUJARENGE"

Please if u can arrange it, thanx to u

Manish Kumar on मार्च 18, 2012 ने कहा…

राजन आपकी खोज यहाँ आकर पूरी हुई जानकर खुशी हुई।

अम्बिका जी साबरी बंधुओं की ग़ज़ल अगर मुझे मिलेगी तो अवश्य आपसे बाँटूगा।

docreshma on अगस्त 27, 2012 ने कहा…

mere hisaab se:
azmat-e-baatil (khootha)

aur duniya ka fusuun (jaadoo)

hona chahiye,

Manish Kumar on अगस्त 29, 2012 ने कहा…

रेशमा जी सुधार कर दिया है। इस त्रुटि की ओर इशारा करने के लिए धन्यवाद !

Brajesh Dubey on जुलाई 02, 2013 ने कहा…

Shandaar nazm hai...my all time favourite. Thanks for sharing

Jiten Dobriyal on जुलाई 02, 2013 ने कहा…

मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और..
mukesh aur rafi ke gair filmi geet aur ghazal filmi geeton ki tarah famous nahi lekin damdaar hain...:)

Unknown on मई 28, 2014 ने कहा…

Manish, I had this LP (yes, I am old) in 1975 that I had copied on tape before my migration to USA. I never bother to list the poet...thank for the lyrics. All these years I thought it said "meri bebaak kaviyat ka..." instead of tabiyat ka... For some reason I thought Kaviyat was appropriate for Bebaak. Again, thanks.

Unknown on जून 25, 2016 ने कहा…

मनीष जी,
प्रणाम! भगवान का शुक्र है की आप जैसे लोग समय निकाल कर ये बेशकीमती नगीने शेयर करते हैं ! बहुत बचपन से ये नज़्म दिमाग़ में बसी हुई थी. फिर कैसे न कैसे इसकी कैसेट भी रिकॉर्ड करा पाया. पर इसकी शायरी का ऑथेंटिक स्वरुप आज आपकी पोस्ट में मिला. आपका एहसान मंद हूँ. मेरे पास वो पूरी ग़ज़लों का डिजिटल वर्शन मौजूद है. कभी आप के लिए शेयर करूँगा.
आपका अभी अभी बना मुरीद-
-सुधीर शर्मा, जयपुर

 

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