तिरिया चरित्तर ये नाम है इस संकलन की नवीं कहानी का जो शिवमूर्ति ने लिखी है। कहानी के पहले कुछ पन्ने पढ़े तो लगा कि ये कहानी तो सुनी-सुनी सी लग रही है। दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि 'राजेश्वरी सचदेव' अभिनीत ये मार्मिक कथा टीवी पर देखी थी। दरअसल १९९४ में इसी कहानी पर बासु चटर्जी ने एक कमाल की फिल्म बनाई थी। ये कथा परिवार को अपनी मेहनत मजूरी से चलाने वाली विमली की है जिसके व्यक्तित्व में उसकी आत्मनिर्भरता का आत्मविश्वास छलकता है। पर यही विमली जिसे ईंट के भट्टे पर कोई साथी मजदूर आँख तरेरने से घबड़ाता था, शादी के बाद पति की अनुपस्थिति में अपने ससुर की हवस का शिकार बनती है। और विडंबना ये कि गाँव का पुरुष प्रधान समाज ससुर के बजाए उसे ही नीच चरित्र का बता कर उस के माथे पर जोर जबरदस्ती से गर्म कलछुल दगवा देता है।
कथा सीधे दिल पर चोट करती है क्योंकि हमारे समाज में आज भी ऍसे क्रूरतापूर्ण फैसले लिए जाते रहे हैं। अपने प्रदेश की बात करूँ तो कितनी औरतों को डायन की संज्ञा देकर पीट पीट कर मार डाला जाता है। हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जाति के बाहर प्रेमी प्रेमिकाओं को मौत के घाट उतारने की घटनाएँ तो साल में कई बार दुहराई जाती हैं।
प्रश्न ये उठता है कि क्या ऍसी घटनाओं को रोकने के लिए महिलाओं का राजनैतिक सशक्तिकरण जरूरी है?
कुछ हद तक ये सही रास्ते पर जाता एक कदम जरूर है। पर इस सशक्तिकरण का दूसरा पहलू मैत्रेयी पुष्पा अपनी कहानी में दर्शाती हैं। 'फ़ैसला' एक ब्लॉक प्रमुख का अपनी पत्नी को प्रधान बनवा सत्ता के ऊपरी गलियारों तक पहुँचने की कोशिश की कहानी है। वैसे भी आज का राजनैतिक परिदृश्य तो हर जगह ऍसा ही है जहाँ नारी को दिया जाने वाला वाला पद, पुरुष के लिए सत्ता की ऊपरी सीढ़ी चढ़ने का एकमात्र ज़रिया होता है।। पर अन्याय से आँखें मूँद लेने वाली नई ग्राम प्रधान वसुमती घर में होने वाले क्लेश की परवाह ना कर नारी के मान सम्मान को तरज़ीह देने वाला फ़ैसला लेती है तो आशा की नई किरण फूटती सी दिखती है।
'बैल बनी औरत' में लवलीन ने आदिवासी समाज की कहानी कही है जिसके विकास को पुरुषों के निकम्मेपन और नशाखोरी की आदतों ने बुरी तरह जकड़ रखा है । ऐसे में अगर नायिका मुरमू खुद बैल जोतने की कोशिश करती है तो वो समाज, उसकी कर्मठता पर शाबासी देने के बजाए उसे बैल की जगह जोत देता है। साफ है कि इस समाज को ये भय है कि ऍसी आजादी देकर वो अपने आप को किसी भी प्रकार से महिलाओं से विशिष्ट नहीं ठहरा पाएगा।
जातियों में बँटी हमारी वर्ण व्यवस्था पहले की अपेक्षा आज ढ़ीली तो पड़ी है पर जड़ से बिलकुल नहीं गई है। हममें से कितने हैं जो मल मूत्र उठाने वालों को बिना किसी घिन के सिर्फ एक आम मज़दूर की तरह देखते हैं। अगर हममें से किसी को ये काम करने को कह दिया जाए तो सोच कर ही उल्टियाँ आने लगेंगी। सूरजपाल चौहान ने अपनी कहानी 'बदबू' में इसी बात को पुरजोर तरीके से उठाया है।
गाँव में हँसती खेलती, पढ़ने में होशियार संतोष की पढ़ाई छुड़वा कर उसकी शादी शहर कर दी गई और तुरंत ही सास ने उसे शहर की गंदगी ढ़ोने के काम पर लगा दिया। इस बदबू को झेलते झेलते एक हँसती मुस्कुराती लड़की एक संवेदनाहीन पत्थर बना दी गई, सिर्फ इस वज़ह से कि उसकी जाति का ये परंपरागत काम था।
क्या ये एक तरह का अन्याय नहीं है? मन ये सोचने पर विवश हो जाता है।
ये कहानियाँ अगर ग्रामीण पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं का दर्द बयां करती हैं तो विजयकांत की कहानी 'लीलावती' शहरी पढ़े लिखे समाज में भी पुरुषों के वर्चस्व को दर्शाती है जहाँ कुशाग्र बुद्धि की तनिमा मंडल आई.ए.एस. की परीक्षा तो पास कर जाती है पर एक हादसे के बारे में सच्ची बात कहने की कोशिश, उसे मानसिक अस्पताल में जबरन पहुँचवा देती है। विजयकांत की कहानी इस बात को स्पष्ट करती है कि शिक्षा से कहीं ज्यादा हमारी मानसिक रुढ़ियाँ नारी को उसका सही अधिकार दिलाने में बाधक हैं।
तनिमा जरूर असहाय है पर चित्रा मुदगल की कहानी 'प्रेतयोनि' की नायिका नीतू नहीं। अनहोनी देखिए कि एक टैक्सी ड्राइवर के बलात्कार के प्रयास से लड़ भिड़ कर सही सलामत लौटी अपनी बहादुर बेटी पर खुद उसकी माँ विश्वास नहीं कर पाती कि वो पाक रह पाई है। पिता सामाजिक पूछाताछी से बचने के लिए उसे शहर से बाहर बताने का स्वांग रचते हैं। पर क्यूँ नीतू सहती रहे आत्मग्लानि का ये लिजलिजा सा अहसास! इससे तो मर जाना ही बेहतर है , पर वो तो कायरता होगी। इसीलिए वो परिवार की इच्छा के विरुद्ध उस मुहिम का साथ देना ज्यादा पसंद करती है जो इन सामाजिक दरिंदों को पकड़वाने के लिए कटिबद्ध हो।
इन के आलावा इस संकलन में मृदुला गर्ग और सत्येन कुमार की कहानियाँ भी है।
अधिकांश कहानियों की कथा वस्तु हमारे आस पास के शहरी, कस्बाई या ग्रामीण समाज से ली गई हैं, इस लिए आम पाठकों के लिए उनसे जुड़ना सहज है। कहानियों का शिल्प कुछ ऍसा है कि कहीं भी भाषाई आडंबर की बू नहीं आती, नज़र आता है तो इन जीवित समस्याओं से कथाकार का सरोकार। यही सरोकार पाठक के मन को झिंझोड़ता है, आंदोलित करता है अपने स्तर से समाज के इन दो पाटों के बीच की असमानता को कम करने के लिए और यही इस संकलन की सफलता है।
पुस्तक के बारे में
हमारा हिस्सा : कहानी संग्रह
संपादक : अरुण प्रकाश
प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स
मूल्य : १९० रुपये
प्रकाशन वर्ष : २००५
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5 टिप्पणियाँ:
दोनों कड़ियाँ अच्छी है. आपने काफी मेहनत की है. धन्यवाद.
मनीष आप अच्छा सुनाते हैं और अच्छा पढ़ाएंगे भी । नियमित समीक्षा करें ।
बहुत बेहतर. अब पढ़ना तय पाया. आपसे इसी तरह की और समीक्षाओं की उम्मीद रखें हैं. बहुत रोचक शैली है, यह बात हमेशा दोहराता हूँ.
बेहतरीन ब्योरा...अब तो ख़ुद उसे पढने का मन हो चला है.....देखतें है यहाँ मिलता है के नही
स्मिता
काकेश शुक्रिया आपका !
अफलातून पुस्तक पढ़ लूँ तो फिर समीक्षा लिखने की दिक्कत नहीं. पर किताबों को ख़त्म करने का अंतराल ५तना ज्यादा हो जाता हे कि क्या कहें।
समीर जी जरूर पढ़ें और बताएं कि आपको कैसी लगी ?
स्मिता आपको कई कहानियाँ अवश्य
अच्छी लगेंगी।
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