रविवार, नवंबर 04, 2007

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ :शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो ?

बहुत अर्से पहले की बात है। अंतरजाल पर एक शायरी समूह में हरिवंशराय बच्चन की कविता "..जो बीत गई सो बात गई, मानो वो बेहद प्यारा था.." की बात चल रही थी। उसी सिलसिले में बात निकली की फ़ैज अहमद फ़ैज ने भी कुछ ऍसा ही लिखा था ..."तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर, दामन में छुपाए बैठे हो...शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो..."। उस बातचीत का असर ये हुआ कि नज़्म का मुखड़ा दिमाग में रह गया। बाद में जब ये नज़्म, 'फै़ज़' के एक संकलन में पूरी पढ़ी तब समझ आया कि जहाँ बच्चन ने अपनी कविता पहली पत्नी के देहांत के बाद अपने व्यक्तिगत वियोग से ऊपर उठने के लिए लिखी थी, वहीं फ़ैज ने जेल से लिखी इस नज्म में जीवन के व्यक्तिगत सपनों के टूटने से उपजी उदासी को भुलाकर, सामाजिक असमानता को कम करने के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया था।

फ़ैज़ की ये नज़्म आज के सामाजिक हालातों को देखते हुए भी उतनी ही सापेक्षिक है। बहुत पहले इसे मैंने इसके कुछ हिस्सों को अपने रोमन चिट्ठे पर चढ़ाया था पर इस नज़्म को आज यहाँ अश्विन्दर सिंह की गुजारिश पर पूरी पेश कर रहा हूँ


मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर1
जो टूट गया सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया, सो छूट गया
1. एक तरह का माणिक

तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो

शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो साग़रे-दिल2 है जिसमें कभी
सद नाज़3 से उतरा करती थी
सहबाए-गमें-जानां की परी
2. हृदय रूपी मदिरा पात्र, 3.गर्व से

फिर दुनिया वालों ने तुम से
ये सागर लेकर फोड़ दिया
जो मय थी बहा दी मिट्टी में
मेहमान का शहपर4 तोड़ दिया
4. सबसे मज़बूत पंख

ये रंगी रेजे5 हैं शाहिद6
उन शोख बिल्लूरी7 सपनों के
तुम मस्त जवानी में जिन से
खल्वत8 को सजाया करते थे

5. टुकड़े, 6. साक्षी, 7. काँच, 8. एकाकीपन

नादारी 9, दफ्तर, भूख और गम
इन सपनों से टकराते रहे
बेरहम था चौमुख पथराओ
ये कांच के ढ़ांचे क्या करते

9. दरिद्रता

या शायद इन जर्रों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज्जत का
वो जिस से तुम्हारे इज्ज़10 पे भी
शमशादक़दों11 ने नाज़ किया
10. विनम्रता 11. सरों के पेड़ ऍसे कद वालों ने

उस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत रहजन भी बहुत
है चोर‍नगर, यां मुफलिस की
गर जान बची तो आन गई

ये सागर शीशे, लालो- गुहर
सालम हो तो कीमत पाते हैं
यूँ टुकड़े टुकड़े हों तो फकत12
चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं

12. सिर्फ

तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो

यादों के गरेबानों के रफ़ू
पर दिल की गुज़र कब होती है
इक बखिया उधेड़ा, एक सिया
यूँ उम्र बसर कब होती है

इस कारगहे-हस्ती13 में जहाँ
ये सागर शीशे ढ़लते हैं
हर शै का बदल मिल सकता है
सब दामन पुर हो सकते हैं
13. संसार

जो हाथ बढ़े यावर14 है यहाँ
जो आंख उठे वो बख़्तावर15
यां धन दौलत का अंत नहीं
हों घात में डाकू लाख यहाँ
14. सहायक, 15. भाग्यवान

कब लूट झपट में हस्ती16 की
दुकानें खाली होती हैं
यां परबत परबत हीरे हैं
या सागर सागर मोती है
16. जीवन

कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर
पर्दे लटकाया फिरते हैं
हर परबत को हर सागर को
नीलाम चढ़ाते फिरते हैं

कुछ वो भी हैं जो लड़ भिड़ कर
ये पर्दे नोच गिराते हैं
हस्ती के उठाईगीरों की
हर चाल उलझाए जाते हैं


इन दोनों में रन१७ पड़ता है
नित बस्ती बस्ती नगर नगर
हर बसते घर के सीने में
हर चलती राह के माथे पर
१७. संघर्ष

ये कालक भरते फिरते हैं
वो जोत जगाते रहते हैं
ये आग लगाते फिरते हैं
वो आग बुझाते रहते हैं

सब सागर शीशे, लालो-‍गुहर
इस बाज़ी में बिद जाते हैं
उठो, सब ख़ाली हाथों को
इस रन से बुलावे आते हैं


फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
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9 टिप्पणियाँ:

Yunus Khan on नवंबर 04, 2007 ने कहा…

ये मेरी पसंदीदा नज्म रही है । स्‍कूल कॉलेज के ज़माने में 'डिबेटों' में इसका खूब इस्‍तेमाल किया गया है।

बालकिशन on नवंबर 04, 2007 ने कहा…

आपको इस के लिए धन्यवाद.

sanjay patel on नवंबर 04, 2007 ने कहा…

कहन की ईमानदारी अब हवा हो गई मनीष भाई.पूरी शिद्दत से नसीहत करती इस नज़्म की प्रासंगिकता आज भी है... और यही है लिख्खे की सार्थकता कि युग बदले लेकिन मानी नहीं. शायरी और कविता के नाम पर जो दुकानदारी या चव्वन्नीछाप माहौल तारी है उन पर कितनी भारी है फ़ैज़ साहब की क़लमनिगारी.

VIMAL VERMA on नवंबर 04, 2007 ने कहा…

फ़ैज़ साहब की शायरी और सामाजिक सरोकार.. क्या खूब आप भी चुन कर लाये हैं, शुक्रिया, एक ईमानदार सामाजिक रिश्ता उनकी रचना में झलकता है जो आज भी प्रासंगिक है .... जब उन्हें सलाखों के पीछे दाल दिया गया था तो उन्होंने लिखा .. मता-ए-लौहेकलम छिन गई तो क्या गम है, कि खूने ज़िगर में डुबो ली हैं उंगलियां मैने.. दुबारा शुक्रिया आपको!!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

वाह ...वाह ...क्या बात कही फैज़ सा'ब ने ..उस्तादोँ की बात ही निराली है !
-- लावण्या

Udan Tashtari on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

वाह जी वाह, हमेशा की तरह बहुत उम्दा.

Anita kumar on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

फ़ैज मेरे भी पंसदीदा शायर है, उनकी ये नज्म मेरी भी पसंदीदा नज्मों में से एक है। हमारे साथ इसे बांटने के लिए शुक्रिया

Manish Kumar on नवंबर 05, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई, लावण्या जी, समीर जी, अनीता जी , बाल किशन आप सब को ये नज्म पसंद आई, जानकार खुशी हुयी.

संजय पटेल जी बिलकुल मुनासिब कहा आपने

विमल जी वाह साहब क्या पंक्तियाँ याद दिलाई आपने ! शुक्रिया

AlokTheLight on नवंबर 15, 2007 ने कहा…
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