कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर गुलज़ार ने कई मर्तबा लिखा है। और हर बार उन्हीं भावनाओं को अलग-अलग बिम्बों के माध्यम से बड़ी सहजता से अपनी बातों को वो हमारे दिल तक पहुँचाते रहे हैं। ऍसा ही उनका एक प्रिय विषय है 'रिश्तों की तल्खियाँ'' जिस पर जब भी उन्होंने लिखा है, मन को अपनी भावनाओं के सा् बहाने में वो सफल रहे हैँ। याद है ना आपको इनकी नज्म
कोई मौसम का झोंका था, जो इस दीवार पर लटकी हुई तसवीर तिरछी कर गया है...
गए सावन में ये दीवारें सीमी नहीं थीं
ना जाने क्यूँ इस दफ़ा इन में सीलन आ गई है
दरारें पड़ गई हैं
और सीलन इस तरह बहती हे जैसे
खुश्क़ रुखसारों पर आँसू चलते हैं....
गए सावन में ये दीवारें सीमी नहीं थीं
ना जाने क्यूँ इस दफ़ा इन में सीलन आ गई है
दरारें पड़ गई हैं
और सीलन इस तरह बहती हे जैसे
खुश्क़ रुखसारों पर आँसू चलते हैं....
अगर ये पढ़कर आपका मन ना भीगा हो तो दिया मिर्जा की मखमली आवाज़ में इसे सुनकर जरूर भींग जाएगा
बस एक लमहे का झगड़ा था....
दर-ओ-दीवार पर ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई, उड़ती हुई, जलती हुई किरचियाँ
नज़र में, बात में, लहज़े में
सोच और साँस के अंदर
लहू होना था एक रिश्ते का, सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा कर फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्ज़ें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग ना जाए
बस एक लमहे का झगड़ा था........
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दर-ओ-दीवार पर ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है
हर एक शय में गई, उड़ती हुई, जलती हुई किरचियाँ
नज़र में, बात में, लहज़े में
सोच और साँस के अंदर
लहू होना था एक रिश्ते का, सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा कर फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्ज़ें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग ना जाए
बस एक लमहे का झगड़ा था........
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आपने कभी सोचा है कि दूर आकाशगंगा के किसी छोर पर सृष्टिकर्ता और एक कवि आपने सामने बैठे हों और जीवन रूपी शतरंज की बिसात बिछी हो। याद कीजिए प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' के नायकों को। कैसे दिमाग के पुर्जे भिड़ाते भिड़ाते, म्यान से तलवारें निकल आईं थीं और शाम के ढलते सूरज की लालिमा रक्त की बूदों से और गहरी हो गईं थीं। पर वे तो दोनों मानव थे, इसलिए उन्होंने एक दूसरे पर बल प्रयोग किया तो उसे मानवोचित दुर्गुण मान कर मन को समझा लेना होगा।
पर यहाँ मामला कुछ दूसरा है । मुहरों के इस खेल में बड़ी रोचक स्थिति है। एक ओर साक्षात भगवन हैं तो दूसरी ओर उनके समक्ष है एक अदना सा शायर। पर इतनी आसानी से घुटने नहीं टेकने वाला हमारा कवि। देखिए तो जिंदगी को उलझाती भगवन की हर चाल का इस खूबी से जवाब दे रहा है कि बाजी पलटती नज़र आ रही है...
नसीरुद्दीन शाह ने जिस अंदाज़ में इस नज़्म को पढ़ा है वो काबिलेतारीफ़ है।
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाजी देखी मैंने...
काले घर में सूरज रखके
तुमने शायद सोचा था मेरे सब मुहरें पिट जाएँगे
मैंने एक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल दिया
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूर की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लमहा-लमहा जीना सीख लिया
मेरी ख़ुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई
मैंनें जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रुह बचा ली
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी...
दस कहानियाँ फिल्म से ली गई गुलज़ार की नज़्मों का ये सफ़र अगली कड़ी में भी जारी रहेगा.....
10 टिप्पणियाँ:
wah wah manish jii badi duaayen kama rahey hain aap hum jaisey gulzaar premiyon se...bahut shukriyaa..aagey kadiyon kaa besabri se intzaar......
अभी तक हमने इन्हे सुना नही था .शुक्रिया इसे सुनवाने का. अगली कड़ी का इंतजार रहेगा.
बेहतरीन नज्में सुनवाने का धन्यवाद!!
door ki kaudi chun kar laaye ho manish bhai
शानदार!!
दिली शुक्रिया!!
पारुल जी, ममता जी, नितिन, सजीव और संजीत भाई आप सब का शुक्रिया इन नज़्मों को पसंद करने का।
मैं यहां तक देर से पहुंचा मनीष । पर बेमिसाल श्रृंखला है । इंतज़ार है सारी नज्मों का ।और तुमने शतरंज वाली इमेज भी बड़ी प्यारी लगाई है ।
सुनते सुनते सिहर गया मैं. :) मैंने पहली बार सुना है. धन्यवाद!
bahut hi gazab ki philosphy dekhne ko mili nazm me. bahut hi khubsurat nazm. agr khubsurat na hoti to bhi main tareef karta kyon ki main gulzar sahab ka bahut bada fan hun
simply awesome ...thanks to share. I would like to know if there is any Gulzarji CD in his voice for poetry ...
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