पिछले बारह दिनों में पहले बनारस और फिर मुंबई की यात्रा कर कल ही लौटा हूँ। यही वजह रही की इस चिट्ठे की कई शामें सूनी रहीं। पर इस आभासी जिंदगी से दूर निकलने का भी अपना ही एक आनंद है। मिलना-जुलना हुआ अलग-अलग क्षेत्रों में माहिर लोगों से, मौका मिला इन की जिंदगियों से कुछ पल चुराने का। बनारस से बंबई तक के सफ़र में मैने क्या महसूस किया अपने इन साथी चिट्ठाकारों की संगत में उसकी विस्तृत रपट अगली कुछ पोस्टों में ज़ारी रहेगी।
तो पहले जिक्र बनारस का जहाँ मुझे एक शादी में जाना था। वैसे तो मुगलसराय जाने के लिए राँची से कई गाड़ियाँ हैं पर सीधे बनारस के लिए एक ही रेलगाड़ी है वो है इंटरसिटी।
बड़ी ही कमाल की गाड़ी है जनाब! पूरी ट्रेन में बस एक स्लीपर का डब्बा है और बाकी सब सामान्य दर्जा। जब भी आप उस इकलौते शयनयान में प्रवेश करेंगे, आपको लगेगा कि आप पुलिस थाने में घुस रहे हैं यानि रिवॉल्वर और दुनाली बंदूकों से सुसज्जित जवान दोनों दरवाजे पर गश्त लगाते मिलेंगे। विडंबना ये कि इतनी फोर्स होने के बावजूद राँची-गढ़वा रोड के बीच ट्रेन में हफ्ते में एक आध डकैतियाँ हो ही जाया करती हैं । इसलिए जिसे भी मज़बूरी में उस गाड़ी से सफ़र करना होता है वो सारे रास्ते राम-राम जपता जाता है। खैर प्रभु ने अपनी कृपा हम पर बनाई रखी और तीन दिनों में आना जाने के दौरान हम सुरक्षित वापस पहुँचे।
सोचा मैंने ये था कि एक दिन तो पूरा शादी में खपा देंगे और दूसरे दिन सुबह-सुबह अफलातून जी के यहाँ धमक लेंगे और फिर दो तीन घंटे की बात चीत के बाद घर होते हुए वापस हो लेंगे। पर अफ़लू जी का वो दिन अपने कुछ मेडिकल टेस्ट के लिए पहले से ही मुकर्रर हो चुका था सो वो ग्यारह बजे से पहले मिलने में असमर्थ रहे। अब हमारे पास समय था नौ से बारह का। तो समय काटने के लिए पहले बी. एच. यू. कैंपस का चक्कर लगाते हुए काशी विश्वनाथ मंदिर हो आए और वहीं से उनके घर की तरफ अपनी पूरी बटालियन के साथ धावा बोलने की योजना तैयार की गई। पर जोधपुर कॉलोनी में प्रवेश करने के बाद भी हमारे रिक्शे वाले उनका घर ढ़ूंढ़ने में विफल रहे। इसलिए ना चाहते हुए भी हमें अपने इस धावे की पूर्वसूचना अफ़लू जी को देनी पड़ी। पाँच मिनट के अंदर ही वे अपने स्कूटर के साथ अवतरित हुए और वहाँ से पथ प्रदर्शक का काम करते हुए वो हमें अपने घर पर ले गए।
भाभीजी तो पहले ही कॉलेज जा चुकीं थीं और हमारे ना ना कहने पर भी वो चाय बनाने किचन की तरफ चल पड़े। चोरी के भय से कैमरा ले कर चले नहीं थे वर्ना समाजवादी विचारों के प्रति उनकी कटिबद्धता के आलावा उनकी चाय बनाने की निपुणता की झलक आपको अवश्य दिखलाते।
अफ़लू जी अपना अधिकाधिक समय अपनी पार्टी के विचारों को आगे बढ़ाने में करते हैं। मुझे उनके पते से ये भ्रम था कि वो भी शिक्षक होंगे और अपने बचे-खुचे समय को राजनीतिक गतिविधियों में लगाते होंगे। पर बातचीत के दौरान पता चला कि वे अपना अधिकाधिक समय पार्टी के विचारों को आगे बढ़ाने और स्वतंत्र लेखन में व्यतीत करते हैं। अगले आधे घंटे में ज्यादातर बातें बी एच यू के पुराने दिनों, उनके स्वास्थ और वाराणसी के कुछ वैसे गंतव्य स्थलों के बारें में हुईं जहाँ टूरिस्ट जानकारी की कमी के आभाव में नहीं जा पाते। फिर अफलू जी का किचन गार्डन देखा गया। चलते-चलते उन्होंने मुझे अपने द्वारा संपादित एक पुस्तक "कोक पेप्सी की लूट और पानी की जंग" भेंट की । समयाभाव की वजह से अपने चिट्ठों के संदर्भ में कोई बात नहीं हो पाई और हम सब उनसे विदा ले के वहाँ से निकल गए।
वापस लौटने के दो तीन बाद ही मुंबई के लिए एक ट्रेनिंग पर निकलना था। यूनुस जी को अपने कार्यक्रम की जानकारी पहले ही दे चुका था ताकि वो सब को सूचित कर दें और उधर विकास को भी सूचना दे दी थी कि अगर मिलने जुलने की जगह आई. आई. टी. के बाहर तय हुई तो उसी की सहायता लूँगा। अनीता जी को भी एक मेल कर दिया था। २५ की सुबह मैं निकल पड़ा अपनी इस यात्रा पर। राँची से सीधी उड़ानों पर कोई जगह ना मिलने की वज़ह से दस बजे से पाँच बजे तक का समय कोलकाता एयरपोर्ट पर किसी तरह गुजारा।
रात्रि आठ बजे के लगभग टिमटिमाती दूधिया रोशनी से चमकती मुंबई महानगरी की अद्भुत झलक दिखाई दी। हवाई जहाज से इस दृश्य को क़ैद करने की कोशिश की पर विफल रहा। रात्रि के समय मुंबई की मेरीन ड्राइव पर पहले भी चहलकदमी करने का मौका मिलता रहा है पर आसमान से क्वीन्स नेकलेस का ये विहंगम दृश्य मन को रोमांचित कर देता है। आखिर मज़ाज ने व्यथित हृदय से ही सही, अपनी नज्म आवारा में इसका जिक्र कुछ यूँ किया है।
झिलमिलाते कुमकुमों की राह में, जंजीर सी
रात के हाथों में दिन की, मोहनी तसवीर सी
अगले दिन ही यूनुस को लंच के अवकाश के समय फोन पर पकड़ा। एक हैलो के बाद वही चिरपरिचित खनखनाती आवाज़ सुनाई दी और थोड़ी ही देर में विकास के फोन के आते ही २७ तारीख को पहले कार्यक्रम का खाका खिंचने लगा।
मुंबई में बिताए इन पाँच दिनों में सबसे ज्यादा मेरा वक़्त गुजरा विकास के साथ। तो IIT के इस होनहार छात्र के बारे में बात करते हैं इस ब्लॉगर पुराण की अगली किश्त में..
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
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आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
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6 माह पहले
7 टिप्पणियाँ:
मनीष तुम्हारे आने से एक बात तो हुई कि ठहरी ठहरी सी भागती भागती सी जिंदगी में थोड़ा सा अपनापन सा महसूस हुआ । मुंबई में होते हुए भी हम सभी ब्लॉगर साथी कहां मिल पाते हैं । महफिल जमी तो खूब आनंद आया । अपने छोटे शहर के वो दिन याद आ गये जब ऐसी महफिलें रोज की बात थीं , तुम अपना पुराण सुनाए जाओ हम प्रेम से इंतज़ार कर रहे हैं ।
हाँ हाँ! सुनाइये सुनाइये. लेकिन फोटो जरा ध्यान से ;)
आपके सुरीले चिट्ठे की कमी महसूस हुई……गप शप जारी रक्खें………
यह तो पढ़े लिए जी, अब अगली किशत का इंतज़ार है!!
अगली किश्त की प्रतीक्षा रहेगी
हम आपसे इन्हीं किस्सों का इंतजार कर रहे थे। अच्छा लगा। और लिखिए।
यूनुस भाई, ऍसी महफिलें जमती तो थीं पर इतनी अलग अलग विधा और व्यक्तित्व वाले लोगों के साथ इकट्ठा मिलना तो मेरे जीवन में पहली बार था।
विकास, कंचन, सृजन, पारुल, संजीत ये गपशप पूर हफ़्ते चलेगी। कोशिश रहेगी कि जो महसूस किया वो आप तक पहुँचे।
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