२७ तारीख की शाम के बारे में अभय और अनीता जी विस्तार से लिख चुके हैं इसलिए मेरे लिए समस्या विकट है कि नया क्या लिखूँ। पर ऍसा भी नहीं कि बिलकुल स्कोप नहीं है..और ना भी हो तो बनाना पड़ेगा :) तो हुजूर शाम के साढ़े छः बजे का वक्त तय था। विकास तयशुदा समय पर आ चुका था और बता रहा था कि कैसे वो यूनुस से फोन पर बात करते ही घबड़ा जाता है..आखिर मैं हुं स्टूडेंट और वो हैं इतनी बड़े सेलेब्रेटी। पर मेरी घबड़ाहट कुछ दूसरे तरह की थी... सोच रहा था कि लोग आएँगे तो चाय पानी का इंतजाम कैसे होगा? विकास ने कहा कि कहिये तो आप का नाम लेते हुए यूनुस भाई और बाकियों को कह दूँ कि जहाँ कहीं भी हों वहीं से कुछ लेते हुए चले आएँ। मैंने मन ही मन सोचा कि ऍसे धाँसू आइडिया अगर ये बालक कार्यान्वित कर दे तो इस ब्लॉगर मीट को ब्लॉगर रिट्रीट में तब्दील होने में ज्यादा वक़्त नहीं लगेगा। इसी बीच एक बुरी खबर ये भी आ चुकी थी कि कुछ दिनों पहले तक दिल्ली में पाए जाने वाले 'अज़दक' वाले प्रमोद सिंह भी आ रहे हैं :)।
सात बजे तक जब यूनुस जी का पता नहीं चला तो फोन घुमाया गया। पता चला बिलकुल IIT गेट के करीब हैं। विकास ने कहा कि नीचे चलिए, वहीं से सबको बटोर लेंगे। गेस्ट हाउस के गेट तक पहुँचे ही थे कि नारंगी कमीज और झोला लिये एक सज्जन की मोटरबाइक धड़धड़ाती हुई बगल में आ कर रुकी। प्रमोद जी को पहचानने में हम दोनों को ज़रा भी वक़्त नहीं लगा पर इससे पहले कि हम दोनों कुछ कहें..प्रमोद जी ने पहला गोला विकास की ओर दागा। कहने लगे "जान रहे हो कि इतने लोग आने वाले हैं तो तुम्हें गेट पर रहना चाहिए"। इससे पहले विकास हकलाते
हुए ...मैं...वो....नीचे ही.....कहता कि दूसरा गोला हाज़िर था.."अरे जब ये गेस्ट हाउस में ठहरे हैं तो सबको हॉस्टल में मिलने की बात क्यूँ कही गई"। विकास ने शीघ्र ही इस बाउंसर को डक करते हुए कहा कहीं मनीष जी ने ही तो यूनुस भाई को.........मुझे समझ आ गया कि ये सब किया कराया विविध भारती वालों का है। रात दिन इतनी जगहों का नाम पढ़ते रहते हैं कि कनफ्यूज होना स्वाभाविक है।
फिर प्रमोद जी ने मेरा हुलिया गौर से देखा। पूछा कहाँ से आते हो? पटना में घर होने की बात होते ही उद्विग्न हो उठे। कहने लगे कैसे रह लेते हो उस शहर में, जहाँ अभय सिंह जैसे लोग पत्रकारों की सरे आम पिटाई करते हों ?
अब भला इसका क्या उत्तर देते ? विकास ने कहा नहीं हालात अब पहले से अच्छे हैं, राज्य विकास के रास्ते पर हैं, रोड वोड बन रही हैं।
ये सुनते ही प्रमोद भाई बिफर उठे, कहने लगे तुम लोग रोड के बनने को विकास कहते हो यार! ये तो बहुत बेसिक सी चीज है... हमने समवेत स्वर में कहा - वहाँ तो वो भी बनते देखे एक अर्सा हो गया था तो अपेक्षाएँ काफी कम हो गईं हैं। हम दोनों की क्लॉस कुछ और देर चलती यदि ऐन वक़्त पर भगवन की असीम अनुकंपा से अनीता जी ना पधार गई होतीं। प्रमोद जी उनसे परिचय लेने में व्यस्त हुए और तभी अभय, यूनुस और विमल वर्मा भी आ पहुँचे।
प्रमोद जी की बातचीत की अदा निराली है। बड़े नपे तुले अंदाज में रुक-रुक कर बोलते हैं और वो भी धीमी संयत आवाज़ में। इसके बाद पूरी शाम वो ज्यादा नहीं बोले...सबकी सुनते रहे।
अब बैठक कमरे में जम चुकी थी और उसकी कमान यूनुस और अभय भाई ने सँभाल ली थी। अब आप सोच रहे होंगे कि कमान यूनुस के हाथ में हो तो माहौल में संगीत की स्वरलहरियाँ गूँज रही होंगी। नही भाई नहीं, बात हो रही थी क्रेडिट और डेबिट कार्ड से जुड़ी घपलेबाजियों की। अपनी बात के दौरान कार्डों की फेरहिस्त दिखलाते हुए युनूस ने ये साबित कर दिया कि उनके बटुए का वज़न, उनकी खनखनाती आवाज़ से कम नहीं है।
क्रेडिट कार्ड की बात खत्म हुई इतने में अभय जी का फोन आया तो बात अनीता कुमार जी की उस पोस्ट की ओर मुड़ गई जिसमें उन्होंने ठगों से जुड़ी किताब 'फिरंगी' की पुस्तक समीक्षा की थी। अनीता जी मनोविज्ञान की प्रोफेसर हैं। उन्होंने भी अपनी आरकुट से चिट्ठाजगत की यात्रा के बारे में विस्तार से बताया। 'आवारा बंजारा' वाले संजीत उनके चिट्ठा गुरु हैं। पचास की आयु को पार करने के बाद चिट्ठाकारिता में आने की वज़हों के बारे में उन्होंने कहा कि अब तक की जिंदगी उन्होंने कैरियर पर ध्यान रखकर जी, पर जब उसमें ठहराव आ गया तो उन्हें लगा कि अब कुछ वक्त उन्हें खुद के लिए भी निकालना चाहिए। अनीता जी ने पूरी मीट के दौरान 'Official Food Sponser 'का दायित्व बिना कहे उठाया और इसके लिए हम सब तहेदिल से उनके उदरमंद हैं।
इसी बीच अनिल रघुराज भी आ चुके थे। अनिल भाई का हेयर स्टाइल कमाल का है, चिट्ठे में अपनी तसवीर के मुकाबले ज्यादा युवा नज़र आते हैं। वैसे उनकी एक विशेषता है कि वो कम बोलने और ज्यादा सुनने में विश्वास रखते हैं।
अभय जी वापस आए तो उन्होंने गुमनाम और ना पहचाने जाने वाले IP address की तकनीकी तह तक जाना चाहा। विकास ने जवाब में अपने फंडे देने शुरु किए। अब आप विमल भाई, अनिल जी,अनीता जी और मेरी दशा समझ ही रहे होंगे। हमारे पास अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप विद्वान जनों की बातें सुनने के आलावा कोई चारा ना था। विकास के तकनीकी ज्ञान को देखते हुए हम सबने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। अभय जी ने जोर दे कर कहा कि अगर लोकप्रिय चिट्ठाकार बनना है तो तकनीक पर लिखो क्योंकि बाकी सब विषयों पर तो जिसको जो मन में आता है वो लिख देता है। खैर लोकप्रियता की बात आई तो अभय भाई के कानपुर प्रवास में क्रिकेट खेलने और "मोस्ट डैशिंग मैरिड ब्लॉगर" का खिताब अर्जित करने का जिक्र आया और माहौल ठहाकों से गूँज उठा।
डेढ़ घंटे बीतने जा रहे थे पर विमल और अनिल जी से कुछ खास बात तो क्या, ठीक से परिचय भी नहीं हो पाया था। सो बातों को रोकते हुए मैंने विमल जी को अपने बारे में कुछ बताने को कहा। पता चला विमल,अभय , प्रमोद और अनिल भाई सब इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पैदाइश हैं और एक समय ये चौकड़ी 'दस्ता' नामक समूह की सदस्य थी और उस दौर में ये घूम घूम कर नुक्कड़ नाटकों का मंचन किया करते थे। ये एक सुखद संयोग ही है कि छात्र जीवन के बाद सारे अलग अलग रास्तों से होते हुए मुंबई नगरिया में वापस लौटे हैं। विमल जी को चिट्ठाजगत में खींचने में प्रमोद जी का मुख्य हाथ है।
अभय जी टेलीविजन सीरियलों के लिए स्क्रिप्ट लिखते हैं और वो अपने को इस इंडस्ट्री का मजदूर कहते हैं। वैसे देखा जाए तो ये बात हम सब पर किसी ना किसी रूप में लागू होती है। अनिल और विमल जी स्टार और सहारा वन से जुड़े हैं। प्रमोद जी ने मीडिया के क्षेत्र में थोड़ा थोड़ा सब कुछ किया है फिर भी कहते हैं कि कुछ नहीं किया है अब इसके मायने आप चाहे जो निकाल लें।
अनीता जी को दूर जाना था सो करीब दस बजे सब लोगों ने उनसे विदा ली। गेट से निकलते निकलते मुझसे छठ का गीत सुनाने की पेशकश की गई। अब चिट्ठे पर जब उसे डाला था तो बोल सामने थे, यहाँ इतने धुरंधरों के बीच याददाश्त ने भी जवाब दे दिया था सो मैंने अपनी असमर्थता ज़ाहिर की। मेरी हिचक को देखते हुए खिंचाई और शुरु हुई पर अभय भाई ने मौके पर हमारा बचाव किया। फिर विमल, अभय और अनिल भाई का सम्मिलित गान हुआ। अनीता जी को फिर विदा देकर हम कैंटीन की ओर चल पड़े। कैंटीन में भी अभय जी का दिमाग उन पुराने गीतों में खोया रहा। पोवई लेक की बगल में थोड़ा टहलने के बाद जब सभा विसर्जित हुई तो सब को लग रहा था कि एक बार और महफ़िल जमनी चाहिए...
(अंतिम चित्र अभय जी के चिट्ठे सेः बाएँ से मैं, अनिल रघुराज, डंडे की ओट में यूनुस, विमल वर्मा, विकास, प्रमोद और बैठी हुईं अनीता कुमार)
तीस तारीख को हमारा फिर से मिलना मेरे लिए इस समूची यात्रा की सबसे यादगार कड़ी रहा...क्यूँ हुआ ऍसा ये जानते हैं इस श्रृंखला के अगले और अंतिम भाग में..
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
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आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
6 माह पहले
16 टिप्पणियाँ:
आप की पोस्ट ने उस शाम की यादों को फ़िर से ताजा कर दिया, बहुत खूब लिखा है। इसे इत्तेफ़ाक ही कहिए कि 9 को समीर जी बम्बई आ रहे हैं, इस बार महफ़िल हमारे घर ही जमाने की सोची है, कौन कौन आ पाता है पता नहीं भगवान करे वो मीट भी उतनी ही यादगार हो
इस मिलन समारोह की लाइव कमेंट्री इतनी जगहों पर पढ़ने को मिल रही है कि लगा मैं भी इसमें ही शामिल था. खुशी है कि आप सब को एक दूसरे से मिलने का अवसर मिला और अच्छा समय व्यतीत किया. बहुत शुक्रिया मनीष.
सबके कैरेक्टर ट्रेट्स बहुत सूक्ष्म तरीके से ऑबसर्व किया है । आनंद आया ।
बहुत बढ़िया विवरण दिया है आपने!!
अनीता जी की भलमनसाहत है जो वह हमें चिट्ठागुरु कहती हैं, जबकि हमें ही बहुत कुछ सीखना है उनसे, सीख भी रहें हैं!!
आपके द्वारा लिखे इस चिट्ठाकार मिलन को पढ़कर हम लोगों की भी ट्रीट हो गयी।
मनीष जी , मुलाकातों का इतना रोचक वर्णन,, मन चाहता है कि सब काम-धाम पीछे छोड़ कर हम भी जहाँ कहीं कोई मुलाकात हो बस वहीं पहुँच जाएँ...
सिलेमा की तरह पूरा दिरीश्य एक बार फिर आँखों के आगे आ गया.
बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर| जिस खूबसूरती से लिखा वह काबिले तारीफ़ है। अभय तिवारी मोस्ट डैसिंग ब्लागर हुये। हम जानकर प्रमुदित च किलकित हैं। प्रमोदजी बहुत आतंकित करते हैं भाई।
भई वाह.. बहुत खूब स्मृति पाई है आपने.. जहाँ बिलकुल स्कोप नहीं था वहाँ कितना स्कोप निकाल लिया.. क्या बात है..
इस प्रकार की मीट की रिपोर्ट पढ़ कर तो अफसोस होने लगता है कि हम वहाँ क्यों नही थे? अफली किश्त की प्रतीक्षा रहेगी!
bahut shukriya bhai, itni achi jankari di aur ache ache logon se taruf karvaya.
shuaib
शानदार रपट । दस्ता बनारस भी आता था।
इतने उत्तम दर्जे का वर्णन पढ़कर अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती
मजेदार. इससे बेहतर भी पोस्ट क्या होगी? हम जी लिए उन पलों को
अनीता जी समीर भाई को मेरा नमस्कार कहिएगा
आप सब का शुक्रिया कि आपने हमारी इस मुलाकात के पलों को पढ़ने का वक़्त निकाला।
तो भाई मनीषजी,रिपोतार्ज़ तो कमाल का लिखा है आपने, आपसे भी मिलना भी एक सुखद एहसास था, पर मुम्बई मीट की इतनी व्यवस्थित रिपोर्ट की उम्मीद नही थी, पर पढकर और सभी से मिलना अच्छा लगा. शुक्रिया
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