मंगलवार, दिसंबर 11, 2007

ये आलम शौक़ का देखा न जाए , वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए

अहमद फ़राज पाकिस्तान के मशहूर और मक़बूल शायरों में से एक हैं जिन्हें भारत में भी उतने ही चाव से पढ़ा जाता है। आज पेश है उनकी लिखी एक ग़ज़ल जिसे फ़राज ने खुद भी अपनी पसंदीदा माना है। इसे मैंने पहली बार १९८७ में सुना था और एक बार सुनकर ही इसकी खूबसूरती मन को भा गई थी। ऊपर से गुलाम अली की गायिकी और हर शेर के बाद की तबले की मधुर थाप पर मन वाह-वाह कर उठा था। पर जिस कैसेट में ये ग़ज़ल थी उसमें इसके कुल चार ही शेर थे। बहुत दिनों से पूरी ग़ज़ल की तलाश में था, वो आज भटकते भटकते इंटरनेट पर मिली। लीजिए अब आप भी इसका लुत्फ उठाइए।



ये आलम शौक़ का देखा न जाये
वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाये

ये किन नज़रों से तुमने आज देखा
कि तेरा देखना देखा न जाये


हमेशा के लिये मुझसे बिछड़ जा
ये मंज़र बारहा देखा न जाये


ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर
तुझे ऐ बा-वफ़ा देखा न जाये

यही तो आशनां बनते हैं आखिर
कोई ना आशनां देखा ना जाए

ये महरूमी नहीं पस-ए-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा न जाये

'फ़राज़' अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझसे जुदा देखा न जाये


वैसे गुलाम अली साहब के आलावा पाकिस्तानी गायिका ताहिरा सैयद ने भी इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी है जिसे अर्सा पहले एक पाक फीचर फिल्म में भी शामिल किया गया था। ये वही ताहिरा सैयद हैं जिनकी गाई एक बेहतरीन ग़ज़ल "बादबां खुलने के पहले का इशारा देखना" मैंने परवीन शाकिर वाली पोस्ट में पेश की थी।



इन दोनों रूपों में मुझे तो गुलाम अली वाला वर्सन हमेशा से ज्यादा रुचिकर लगा। अब आप बताएँ आपकी राय क्या है?

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गुलाम अली की गाई ग़ज़ल हमने हसरतों के दाग से संबंधित मेरी पिछली प्रविष्टि आप यहाँ देख सकते हैं।
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12 टिप्पणियाँ:

अमिताभ मीत on दिसंबर 11, 2007 ने कहा…

वाह मनीष भाई, मस्त कर दिया. कमाल की ग़ज़ल. मेरे ख़याल से मैं भी आप से सहमत हूँ. गुलाम अली वाला version ज्यादा पसंद आया मुझे भी.

कंचन सिंह चौहान on दिसंबर 11, 2007 ने कहा…

ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर
तुझे ऐ बा-वफ़ा देखा न जाये

वाह

हमेशा के लिये मुझसे बिछड़ जा
ये मंज़र बारहा देखा न जाये

पाक्तियाँ ये भी छूती हैं मन को लेकिन व्यवहारिकता में लाने को सोचो तो थोड़ा डरा देती हैं क्योंकि कुछ चीजें दुःख दे के भी सुखद होती हैँ। औड़ वहाँ यही सही लगता है कि

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ,
आ, फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ।

इरफ़ान on दिसंबर 11, 2007 ने कहा…

maneeshji, main samajhta hoon ki jis tarah hamein Ustaad Ameer Khaan saahab ko Ustaad Aaamir Khan naheen kahanaa chaahiye usee tarah Tahira kaa naam bhee theek se uchcharit karna chahiye.Vo Taahiraa Saiyyad bolee jaatee hain. Hindi support nheen hai abhee, varna main likhkar sujhataa.

Manish Kumar on दिसंबर 11, 2007 ने कहा…

मीत और कंचन इस ग़ज़ल को पसंद करने का शुक्रिया।

इरफ़ान भाई इस चिट्ठे पर पधारने का धन्यवाद. आपने मेरी जिस भूल की ओर ध्यान दिलाया है उसे आपके रोमन अनुवाद के हिसाब से दुरुस्त करने की कोशिश की है। अगर अभी भी गड़बड़ हो तो बताएँ।

इरफ़ान on दिसंबर 12, 2007 ने कहा…

जी बिल्कुल ठीक है. बुरा न मानियेगा.

Manish Kumar on दिसंबर 12, 2007 ने कहा…

अरे इसमें बुरा मानने वाली बात क्या है भाई...:)
अगर आप ना बताते तो यूँ ही लिखता रहता और मुझे पता ही ना चलता।

Yunus Khan on दिसंबर 12, 2007 ने कहा…

अरे वाह । क्‍या जमाना याद आ गया । वीनस ने गुलाम अली का एक डबल कैसेट अलबम निकाला था उसमें थी ये गजल । और हमने अपने जेबखर्च को फूंककर वो कैसेट खरीदी थी । वाह मनीष मजा आ गया ।

mamta on दिसंबर 12, 2007 ने कहा…

मनीष जी एक और अच्छी गजल सुनवाने के लिए धन्यवाद।

mamta on दिसंबर 12, 2007 ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
Manish Kumar on दिसंबर 17, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई मैंने तो इसे हाईस्कूल के जमाने में सुना था, सोच सकते हैं कितनी असरदार रही होगी उस वक्त :)

ममता जी ग़ज़ल पसंद करने का शुक्रिया !

Dawn on दिसंबर 20, 2007 ने कहा…

मशाल्लाह! क्या गज्हल सुनायी है कीस ज़माने की बात याद दीला दी ! सुनकर बहुत लुत्फ़ आया
शुक्रिया ...धन्यवाद

मीनाक्षी on दिसंबर 25, 2007 ने कहा…

बहुत खूब...यहाँ आते हैं और आनन्द लेकर चले जाते हैं... पहले भी सुनी थी और आज कई दिनों के बाद फिर आना हुआ तो दुबारा सुनी...ताहिरा जी की माँ जिनका नाम इस वक्त भूल रहे हैं... उनकी गज़ल...अभी तो मैं जवान हूँ.... बहुत पसन्द है.

 

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