'राही मासूम रज़ा' की लिखी ग़ज़लों , फिल्मी पटकथाओं से तो मेरा पूर्व परिचय था, पर एक उपन्यासकार के रूप में मैंने उन्हें पहले नहीं पढ़ा था। उनके निधन पर चिट्ठाजगत में उनके साहित्यिक जीवन की झांकी जरूर पढ़ने को मिली थी और ये भी पता चला था कि 'आधा गाँव' उनकी एक प्रसिद्ध रचना है। इसलिए अपने पुस्तकालय में मोटे-मोटे ग्रंथों के बीच दबी सहमी जब यह पुस्तक अपना असंतोष ज़ाहिर करती दिखी तो इसे पढ़ने की उत्सुकता हुई।
राही का ये उपन्यास अस्सी के दशक में मुंबई में हुए भीषण दंगो की पृष्ठभूमि में लिखा गया है। दंगों की भयावहता और उसके पीछे की छिछली राजनीति से व्यथित 'राही' बिना किसी लाग लपेट के धारदार भाषा में अपनी बात कहते हैं जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। महाराष्ट्र में आज जिस तरह की राजनीति हो रही है उसके बीज अस्सी के दशक में विभिन्न क्षेत्रीय दल पहले ही बो चुके थे। जिन प्रश्नों को राही मासूम रज़ा साहब ने अपनी इस किताब में उठाया था, उसका उत्तर पाने के लिए हम सभी आज भी जूझ रहे हैं। मिसाल के तौर पर राही के इन सवालों पर गौर करें..
"...श्री बाल ठाकरे "आमची मुंबई कहते हैं। परंतु 'आमची' की परिभाषा क्या है? उसकी सीमाएँ क्या हैं! और यदि बम्बई आमची' है तो हिंदुस्तान किसका है?
बम्बई श्री बाल ठाकरे की है। तमिलनाडु DMK या AIDMK का है । आन्ध्र NTR का है।....पंजाब भिण्डरवाले का है। बनारस भगवान शंकर का है। अजमेर ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती का है! UP एटा के डाकुओं का है और राजस्थान चंबल के डाकुओं का.....पर मुझे कोई सारे ज़हाँ से अच्छा जो हिंदुस्तान है उसकी पोस्टल एड्रेस नहीं बताता। यह नहीं बताता की हिदुस्तान का दाख़िल खारिज किसके नाम है?
ऐ लावारिस मुल्क तू मेरा है। ......."
दंगों के इतिहास में पुलिस की कार्यप्रणाली पर हमेशा प्रश्नचिन्ह उठते आए हैं। दंगों में पुलिस के व्यवहार, उसकी मानसिकता को खुले शब्दों में व्यक्त करते हुए वो कहते हैं
"...तुम मराठे इतना टची क्यूँ होते हो?" अब्बास ने पूछा। "अरे भैया UP में भी पुलिस मुसलमानों को मारती है। यहाँ पुलिस में मराठे ज्यादा है। जो कर्नाटक महाराष्ट्र की सीमा पर कर्नाटक के ब्राह्मणों और मराठों के बीच लड़ाई होगी तो वह कर्नाटक के ब्राह्मणों को भी मारेगी। उत्तर प्रदेश की PAC में कान्यकुब्ज ब्राह्मण ज्यादा हैं तो वह ठाकुरों, हरिजनों और मुसलमानों को मारती है। पुलिस में हमीं तुम होते हैं ना। हम अपने मुहल्लों, अपने गावों,अपने कस्बों के सारे डर, वहाँ की सारी नफ़रतें, सारे तनाव लेकर पुलिस क्वाटर्स में जाते हैं। पुलिस में मुसलमान ज्यादा होंगे तो पुलिस हिंदुओं को मारेगी।......."
एक सौ ग्यारह पन्ने की इस किताब में राही द्वारा रचित चरित्र उतने महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है तो इन चरित्रों का सामाजिक परिवेश और उनके इर्द गिर्द पनपती समस्याएँ। उपन्यास के पात्रों का प्रयोग राही मुंबई या एक तरह से कहें तो पूरे देश के सामाजिक ढांचे में फैली गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, सांप्रदायिकता और ओछी राजनीति के चक्रव्यूह का पर्दाफाश करने में करते हैं। अब यहीं देखिए मुंबई की स्लम में रहते और पनपते परिवारों की दशा दिशा का कितना जीवंत चित्रण किया है रज़ा साहब ने
".....खाते पीते गरीब वह है जो वास्तव में गरीब नहीं हैं। जब बम्बई आए तो वो अवश्य गरीब थे। कोठरी भी न ले सके तो कहीं सरकारी जमीन पर इलाके के दादा की इजाजत से झोपड़ी डाल के रहने लगे।
यह झोपड़ी प्रेमचंद की कहानियों सी झोपड़ी नहीं होती। इसे झोपड़ी इसलिए कहते हैं कि इसका नामाकरण नहीं किया जा सका है। यह तीन चार फीट ऊँची एक चीज होती है जिसकी दीवारें सड़े गले पैकिंग के बक्से की होती हैं। ऊपर फटी हुई तिरपाल या प्लास्टिक का टुकड़ा, न दरवाजा, ना खिड़की। लोग उनसे रेंगकर अंदर जाते हैं और रेंगकर बाहर जाते हैं।..यह ईमानदार कामगारों की झोपड़ियाँ हैं फिर इन्हीं झोपड़ियों में हरी लाल झंडियाँ लगा कर दुल्हन ले जायी जाती है। फिर इन्हीं झोपड़ियों में बच्चे होते हैं...फिर उन बच्चों में कोई जेबकतरा हो जाता है। कोई कच्ची दारु के धंधे में लग जाता है...कोई किसी दादा के साथ लगकर किसी तस्करी या MP, MLA की छत्र छाया में चला जाता है। फिर घर में थोड़ा पैसा आने लगता है। झोपड़ी का ज़रा क़द निकल आता है। दरवाजा लग जाता है। खिड़कियाँ बन जाती हैं। टीन की छत पड़ जाती है। फिर इधर उधर की जमीन जुड़ जाती है। कभी कभी एक मंजिल ओर चढ़ जाती है और छत टाइल की हो जाती है।..."
राही का मन अखंड भारत, अनेकता में एकता, धर्मनिरपेक्षता जैसे जुमलों को ज़मीनी हक़ीकत से बहुत दूर मानता है। उनके दिल की नाराज़गी इस क़दर है कि वो बड़े बड़े राजनेताओं को भी नहीं बख्शते..
"...लोग कहते हैं पंडित मोतीलाल की मुसलमान पत्नी थी..हाँ भई तो पत्नी थी ना !और प्रियदर्शनी ने जो फ़ीरोज गाँधी से शादी की...फ़ीरोज गाँधी पारसी थे जो वह मुसलमान होते तो गाँधीजी यह शादी कभी ना होने देते।...."
किताब सिर्फ राजनेताओं पर तंज़ नहीं कसती.. साथ ही अली सरदार जाफ़री और मजरूह सुलतानपूरी जैसे प्रगतिशील और दिमागी शायर रज़ा साहब की लेखनी की चपेट में आ जाते हैं।
पर जब वो कहते हैं कि इस देश में
"....धर्मनिरपेक्षता की ज़मीन बहुत कमजोर है। कुदाल फावड़े की जरूरत नहीं है, नाखून से जरा सा खुरचें तो धर्मनिरपेक्षता काग़ज़ की तरह फट जाती है और कोई शाही इमाम,, कोई देवरस, कोई भिंडरवाले, कोई बाल ठाकरे निकल आता है। सांप्रदायिकता का प्रेत हमारे अंदर दिलों कि किसी गली में छुप कर बैठा है और जब किसी तरह से रोशनी आने लगती है तो ये प्रेत उठकर दिल के दरवाजे खिड़कियाँ बंद कर देता है। ...."
तो मेरा दिल भी उनके ज़ज़्बातों की गवाही देता है। जैसा कि किताब के आरंभ में प्रकाशक के नोट में कहा गया है कि
"इस कृति की माँग है कि इन सवालों से जूझा और टकराया जाए। इसी समय इसके उत्तर तालाश किए जाएँ अन्यथा मनुष्य के अस्तित्व की कोई गारंटी नहीं रहेगी।"
पुस्तक के बारे में
नाम : असंतोष के दिन
लेखक: स्व.डा. राही मासूम रज़ा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
प्रथम संस्करण: १९८६
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5 वर्ष पहले
15 टिप्पणियाँ:
सही समय पर सही पुस्तक का परिचय दिया आपने, सही है, जरा सा बस कुरेदने की देर है, जाने कितने बाल ठाकरे बैठे हैं हम सब के दिल में
सही समय पर सही प्रस्तुति । ये पुस्तक अपन ने नहीं पढ़ी । आजकल टोपी शुक्ल को दोहरा रहे हैं ।
शुक्रिया, अपन ने भी नई पढ़ी यह!
मिलते ही पढ़ी जाएगी
अच्छा है मनीष। बाकी किताबों के लिंक पर भी जाना हुआ। वो भी बेहतरीन है।
पुस्तक समीक्षा पढ़ने से ही मन हो गया पुस्तक पढ़ने का.....और याद आ गया स्वदेश फिल्म का एक सीन जिसमें जब नायक से कोई प्रश्न करता है " सुना है वहाँ गैर मुल्क के लोगों से बड़ा गलत व्यवहार करते हैं" तो नायक का जवाब होता है " तो क्या हुआ यहयाँ तो एक ही मुल्क के लोग जाति के आधार पर जु़ल्म करते है..."
मोतीलाल नेहरू की पत्नी मुस्लिम थीं ये जानकरी मेरे लिये नई थी..और कभी किसी किताब में पढ़ने के आधार पर ये विचार बने थे कि " क्या हुआ कि फिरोज़ मुस्लिम नही थे...जातीय आधार पर इन्दिरा की शादी में बड़ी रुकावटें आई थीं..नेहरू जी से लेकर विजय लक्ष्मी तक सबका ये मानना था कि फिरोज़ से मित्रता रखो..घड़ के अंदर आना जाना रखो लेकिन विवाह का नाम मत दो...जैसा कि नेहरू और एडविना के बीच था..." खैर इस विषय में बहुत ज्यादा जानकारी नही है..और जितनी है वो भी सुनी सुनाई है...परंतु राही जी की लेखनी के हम फैन है...उर्दू और हिंदी, वो भी संस्कृत निष्ठ हिंदी पर उनका समान रूप से अधिकार है। अभी पिछले दिनो श्री के०पी० सक्सेना जी से हुई मुलाकात में पता चला कि वे लखनऊ विश्वविद्याय के छात्र थे और उसी समय से सक्सेना जी के अच्छे मित्रों में है।
हमसे समीक्षा बाँटने का शुक्रिया...!
अच्छी समीक्षा, मैं भी सप्ताहांत पे ये पुस्तक लाता हूँ. राही मासूम रजा साहब को हम तो महाभारत से ही जानते थे. कभी उनकी कोई किताब नहीं पढी.
समीक्षा पढ़कर पढने का मन हो गया है।
समीक्षा पढ़कर अच्छा लगा । आशा है आप ऐसे ही बहुत सी पुस्तकों की समीक्षाकर हमारा उनसे परिचय करवाते रहेंगे, विशेषकर नए लेखकों की पुस्तकों के लिए इसकी बहुत आवश्यकता है ।
घुघूती बासूती
राही मासूम रजा 'असंतोष के दिन 'पर आपकी पोस्ट बहुत उम्दा है.अन्य किताबों के बर्वे में भी पढा.अच्छा लगा .
बिल्कुल सही - किताब तो नहीं पढ़ी - ये सारे किस्से ज़रूर पढ़े देखे - ये भी ज़मीन है/ या विरासत ? मनीष
sahi!!! mujhe inke kitaab ki baat ab tak maloom nahi thi lekin kitaab dekhi to yaad aya ke ise meine padhi hai :)
Kayee baar hum kitaab padh to lete hein lekin yaad nahi rakh paate ke lekhak kaun tha :)
Shukriya isse yahan pesh karne ka aur link bhi dene ka
Cheers
when i was read your title asantos ke din then i was surprised bec itis absoultly fantastic
BHai Manishji apne accha blog shuru kiya hai. Is blog men Kanchanji ke bare me pad kar kafi accha laga tatha unke jeevan ke bare men jan kar bahut orabhavit hu Is blog ke liye badhai.
manishji, aap ke karya ke liye,dhanyawaad.aasha hai aap aisi hi sahitya hi samicsha karte rahenge.
बेहतरीन लेख मनीष जी।
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