बात सत्तर के दशक के उत्तरार्ध की है जब गर्मी की तपती दुपहरी में हमारा परिवार दो रिक्शों में सवार होकर पटना के 'वैशाली सिनेमा हाल' मे अमोल पालेकर और जरीना बहाव की फिल्म 'घरौंदा' देखने गया था। सभी को फिल्म बहुत पसंद आई थी। भला कौन सा मध्यमवर्गीय परिवार एक बड़े मकान का सपना नहीं देखता । इसलिए जब फिल्म में इन सपनों को बनते बनते टूटता दिखाया गया तो वो ठेस कलाकारों के माध्यम से सहज ही हम दर्शकों के दिल में उतर ही गई थी। उस वक्त जो गीत सिनेमा हाल के बाहर तक हमारे साथ आया वो था दो दीवाने शहर में...रात को और दोपहर में इक आबोदाना ढूंढते हैं.. गायक ने 'आबोदाना' की जगह मकान क्यों नहीं कहा, ये प्रश्न बहुत दिनों तक बालमन को मथता रहा था। अब आबोदाना यानी भोजन पानी का रहस्य तो बहुत बाद में जाकर उदघाटित हुआ।
दिन बीतते गए और जब कॉलेज के समय गीत सुनने की नई-नई लत लगी तो कैसेट्स की नियमित खरीददारी शुरु हुई। पहली बार तभी ध्यान गया कि अरे इस घरौंदा के कुछ गीत तो गुलज़ार ने लिखे हैं और ये भी पता चला कि १९७७ में दो दीवाने शहर में.... के लिए गुलज़ार फिल्मफेयर एवार्ड से सम्मानित हुए थे। सारे गीत बार बार सुने गए और इस बार जो गीत दिल में बैठ सा गया वो रूना लैला जी का गाया ये गीत था। पर इस गीत यानी 'तुम्हें हो ना हो....' को नक़्श लायलपुरी (Naqsh Lyallpuri) ने लिखा था। क्या कमाल के लफ़्ज दिये थे नक़्श साहब ने।
दिल और दिमाग की कशमकश को बिल्कुल सीधे बोलों से मन में उतार दिया था उन्होंने.. ....अब दिमाग अपने अहम का शिकार होकर लाख मना करता रहे कि वो प्रेम से कोसों दूर है पर बेचैन दिल की हरकतें खुद बा खुद गवाही दे जाती हैं।
इस गीत को संगीतबद्ध किया था जयदेव ने। गौर करें की इस गीत में धुन के रूप में सीटी का कितना सुंदर इस्तेमाल हुआ है। इस गीत की भावनाएँ, गीत में आते ठहरावों और फिर अनायास बढती तीव्रता से और मुखर हो कर सामने आती है। जहाँ ठहराव दिल में आते प्रश्नों को रेखांकित करते हैं वहीं गति दिल में प्रेम के उमड़ते प्रवाह का प्रतीक बन जाती है। इस गीत को फिल्म में एक बार पूरे और दूसरी बार आंशिक रूप में इस्तेमाल किया गया है। तो पहले सुनिए पूरा गीत
तुम्हें हो ना हो, मुझको तो, इतना यकीं है
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है
मगर मैंने ये राज अब तक ना जाना
कि क्यूँ, प्यारी लगती हैं, बातें तुम्हारीं
मैं क्यूँ तुमसे मिलने का ढूँढू बहाना
कभी मैंने चाहा, तुम्हे् छू के देखूँ
कभी मैंने चाहा तुम्हें पास लाना
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है
फिर भी जो तुम.. दूर.. रहते हो.. मुझसे
तो रहते हैं दिल पे उदासी के साये
कोई, ख्वाब ऊँचे, मकानों से झांके
कोई ख्वाब बैठा रहे सर झुकाए
कभी दिल की राहों.. में फैले अँधेरा..
कभी दूर तक रोशनी मुस्कुराए
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है
तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है
तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है
जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा कि रूना लैला का हिंदी फिल्मों में गाया ये मेरा सबसे प्रिय गीत है। रूना जी की आवाज गीत के उतार चढ़ाव को बड़ी खूबसूरती से प्रकट करती चलती है। जब नायक सपनों के टूटने से उपजी खीज से मोदी को सफलता (कहानी का एक पात्र) की सीढ़ी बनाने की बात करता है तो नायिका को लगने लगता है कि मैंने सच,ऍसे शख्स से प्रेम नहीं किया था और गीत के दूसरे रूप में यहीं भावना उभरती है। रूना जी की आवाज की गहराई यहाँ आँखों को नम कर देती है..
आप बताएँ ये गीत आपको कैसा लगता है?
13 टिप्पणियाँ:
गीत बहुत धीमे बज रहा है ।
अब यू ट्यूब की आडियो लिंक भी डाल दी है। लाइफलॉगर का सर्वर कभी कभी काफी परेशान करता है।
सही है..हमारी पसंद....यू ट्यूब पर जाकर सुना. आभार.
दो तीन रुमाल ले कर जाने वाली फ़िल्म - यू ट्यूब वाला ही देखा उसमें वो दूसरी बार टीस वाला / धीमा वाला नहीं था - तुम्हारी नहीं जानता बहरहाल मैं तो इस फ़िल्म के इन शब्दों से नहीं उबर पाया हूँ "इन उम्र से लम्बी सड़कों को मंजिल पे पहुँचते देखा नहीं, बस दौड़ती फिरती हैं कभी हमने तो ठहरते देखा नहीं"
मुझे भी यह गीत बहुत (बल्कि बहुत-बहुत-बहुत) पसंद है. पर जहाँ तक गीतकार की बात है आप एक बड़ी आम ग़लती कर रहे हैं - यह गीत गुलज़ार ने नहीं बल्कि नक़्श लायलपुरी ने लिखा था.
समीर जी शुक्रिया गीत पसंद करने के लिए
जोशिम बहुत सुंदर पंक्तियाँ quote की आपने, शायद ही कोई उनके प्रभाव से उबर सकता है। टीस वाला वर्जन लॉइफकॉगर के सर्वर की वज़ह से नहीं दिख रहा था, अभी मौजूद है।
विनय भाई बहुत बहुत शुक्रिया इस भूल सुधार का। म्यूजिक इंडिया आनलाईन से लेकर बहुत सारी साइट्स देखीं हर जगह इस गीत को गुलज़ार के नाम से ही पाया। पर जब आपने कहा तो फिर इसकी कैसेट ढूंढी जो ९४ में खरीदी थी, उसमें नक्श लायलपुरी का ही नाम था।
मनीश जी ये फ़िल्म और ये गीत हमारे भी मन पसंद है पर ये नहीं पता था कि ये रुना लैला ने गाया है। बताने के लिए धन्यवाद
मनीष जी ये एक ऐसा गीत है जो किशोरावस्था से अब तक मुझे समान रूप से अच्छा लगता है...सच कहा आपने कि दिल और दिमाग की कश्मकश...जो होना चाहिये और जो हो जाता है...और जब हो जाता है तो फिर होने के बावज़ूद स्वीकार ना कर पाने का मानवीय मनोविग्यान बहुत खूब तरीके से उकेरा गया है इस गीत में..!
manishji..apne inke behad lokapriya gazal farazsaab ki lih=khi "ranjish hi sahi" ka zikr nahi kiya..hum khafa hue...mujhe behad pasand hai woh!!
smita
अनीता जी गीत पसंद करने का शुक्रिया !
जी बिलकुल मेरी भी यही राय है कंचन
स्मिता... राजिश ही सही का जब भी जिक्र होता है, तो अहमद फ़राज के बाद जो पहली शक्ल ज़ेहन में उभरती है वो महदी हसन साहब की होती है, जिन्होंने उस ग़ज़ल को अमरत्व प्रदान किया। रूना जी ने भी उसे अच्छा निभाया है पर आज भी आम जनता में उनकी पहचान बनाने वाला गीत दमादम मस्त कलंदर ही है।
hmmm..sahi kaha apne faraz aur hassan = ranjish hi sahi...lekin runaji ka version sunne ke baad laga unhone achcha nibhaya hai...
मेरे पसंदीदा गानों में से एक :)
मैं बहुत छोटी थी जब ये पहली बार सुना था.. इसकी शुरू की दो लाइन तो जहन से कभी नहीं उतरी... हाँ इसका दूसरा अंतरा समझने में मुझे काफी वक्त लगा था..
एक बहुत ही ख़ास नगमा जो मेरे दिल के बहुत करीब है...
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