कल्पना ने भोजपुरी फिल्म जगत में अपनी गायिकी के जरिए एक अलग पहचान छोड़ी है और आजकल हिंदी फिल्म जगत में अपना उचित मुकाम हासिल करने के लिए संघर्षरत हैं। मज़े की बात ये है बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में बोली जाने वाली भोजपुरी में जब कल्पना गाती हैं तो कोई कह ही नहीं सकता कि वो असम से ताल्लुक रखती हैं। पिछले दो तीन हफ्तों से NDTV Imagine के शो 'जुनूँ कुछ कर दिखाने का' में, मैं उन्हें लगातार सुन रहा हूँ।
वे कार्यक्रम में 'माटी के लाल' समूह की सदस्या हैं। ये समूह इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न भागों के लोकगीतों को पेश कर रहा है। कल्पना की गायिकी की सबसे बड़ी विशेषता उनकी लोकगीतों के भावों की उम्दा पकड़ है। किस पंक्ति को उसके भाव के हिसाब से कितना खींचना है, कहाँ रुक कर श्रोताओं को संगीत की ताल से रिझाना है , किस शब्द को शरारती लहजे में उच्चारित करना है ये अगर गायक या गायिका समझ जाए तो वो भोजपुरी का सफल लोक गायक अवश्य बन सकता है। और इसके लिए जरूरी है उस संस्कृति को समझना जहाँ से ये लोकगीत जन्मे हैं। कल्पना ना केवल एक संगीत सीखी हुई गायिका हैं पर उनकी गायिकी से ये भी साफ ज़ाहिर होता है कि वो भोजपुरी लोकगीतों के परिवेश को भी अच्छी तरह समझती हैं।
अब जो लोग भोजपुरी भाषा से परिचित ना हों उनके लिए मैं इस गीत के भाव को बता देता हूँ।
"नायिका के पति परदेश में हैं। पिया बिना उसका मन लग ही नहीं रहा। उनकी अनुपस्थिति में वो कभी श्रृंगार करती है, वर्षा ॠतु में पपीहे की बोली सुन उद्विग्न हो जाती है तो कभी सास से झगड़ा कर बैठती है। कई रातें सवेरे में बदल जाती हैं पर मन की उलझन है कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती। "
भोजपुरी गीतों में संगीत की भी एक अहम भूमिका होती है। हारमोनियम, झाल, मजीरे और ढोलक की थाप के बिना मस्ती का आलम आना मुश्किल है। अब इस गीत को सुनिए और संगीत के साथ कल्पना की लाजवाब गायिकी का आनंद लीजिए...
हाथ में मेंहदी मांग सिंदुरवा
बर्बाद कजरवा हो गइले
बाहरे बलम बिना नींद ना आवे
बाहरे बलम बिना नींद ना आवे
उलझन में सवेरवा हो गइले
बिजुरी चमके देवा गर्जे घनघोर बदरवा हो गइले
पापी पपीहा बोलियाँ बोले पापी पपीहा बोलियाँ बोले
दिल धड़के सुवेरवा हो गइले
बाहरे बलम बिन नींद न आवे
उलझन में सुवेरवा हो गइले
आ...................................
अरे पहिले पहिले जब अइलीं गवनवा
सासू से झगड़ा हो गइले
बाकें बलम पर...अहा अहा
बांके बलम परदेसवा विराजें
उलझन में सुवेरवा हो गइले
हाथ में मेंहदी मांग सिंदुरवा
बर्बाद कजरवा हो गइले
लोकगीतों की मस्ती कुछ ऐसी होती है कि ये भाषा और सरहदों की दीवार को यूँ तोड देती है जैसे वहाँ कोई अड़चन ही नहीं थी। अब इस वीडिओ में ही देखिए कल्पना की गायिकी का मज़ा आम जनता तो ले ही रही है, पड़ोस से आए सूफी के सुल्तान राहत फतेह अली खाँ भी कितने आनंदित होकर झूम रहे हैं।
पर कल्पना की गायिकी का बस यही एक रूप नहीं हैं। उनके कुछ और लोकगीतों की चर्चा 'एक शाम मेरे नाम' पर जारी रहेगी.....
16 टिप्पणियाँ:
अश्लीलता की पराकाष्ठा भी इसी आवाज की उपज है.
मैं तो ठहरा ठेठ भोजपुरी बोलने वाला... तो समझ में तो पूरा आया... हाँ लोकगीतों से लगाव न के बराबर ही रहा है... कारण शायद अजित जी वाली बात ही है...
एक रोचक बात बता दूँ आपको... हमारे हॉस्टल में मनोज तिवारी और कल्पना के गाने (विडियो) बहुत चलाये जाते थे... मस्ती के लिए ही सही :-)
समस्या कहे या असलियत ये है कि रेस्टोरेंट वो परोस रहे हैं जो हम खाना चाह रहे हैं.... अब समझ में नही आ रहा कि बाज़ारवाद के इस युग में गलती उपभोक्ता को दे या दुकानदार को ! भोजपुरी लोकगीतों को वही श्रोता सुन रहे हैं जो, बिलकुल नीचे तबके के हैं,..! पूरे दिन मेहनत कर के अनुराग जी के शब्दों मे जब वो अपनी सारी मेहनत का पसीना एक गिलास शराब बना कर पी जाता है, तब उसे जगजीत सिंह की गज़ल नही, ये कल्पना और गुड्दू रंगीला जैसे लोगो के गाने ही सुनने होते हैं जो उसकी झोपड़ी के २५० रु० के लोकल वाकमैन पर २५ रु के कैसेट से मनोरंजन करा देता है..! और जब कल्पना जैसे लोगो को सुनने वाला वही सुनना चाह रहा है तो वो, मजबूरी है उनकी कि वही सुनाए..!
भोजपुरी लोकगीतों को इस स्थिति में लाने का श्रेय हम जैसे लोगो को ही है, जिन्हे अंग्रेजी के गीत ना समझ के भी समझ में आ जाते हैं, लेकिन अपनी गँवई भाषा समझ में आने पर भी नही समझ में आती।
बहरहाल जुनून के द्वारा पहली बार अवधी और भोजपुरी को एक बड़ा मंच मिला है, कल्पना और मालिनी के गीत यहाँ स्तरीय ही सुनने को मिलेंगे। अभी पिछली बार मालिनी अवस्थी जी द्वारा गाया गया गीत " नन्ही नन्ही बुँदिया रे, सावन का मेरा झूलना" के विषय में क्या आप विश्वास कर पाएंगे मनीष जी कि मेरी माँ की शादी आज ही के दिन ३ जुलाई को १९५३ मे हुई थी और वो बताती हैं कि वे उन दिनों यही गीत गा के बहुत रोती थी...! और शायद उन्होने भी ये गीत अपनी माँ से ही सुना होगा,तो कहने का आशय ये है कि बड़ी पुरानी धरोहरे हैं ये कही हम अपने आगे बढ़ने की होड़ मे इन्हें खो न दे...!
पोस्ट तो बढ़िया रही आपकी, साथ ही कंचन जी की टिप्पणी हमे बड़ी रास आई.. आपको और उन्हे, दोनो को बधाई
कभी सुना नही किसी भोजपुरी गीत को....बस कंचन जी ने जो कहा उसे पढ़ा ......कुछ ओर कहने की आवश्यकता नही है..मेहंदी हसन का जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते है ...कभी सुनवाईये ........
गजब!!! आनन्द आ गया. सीधे गाना सुन लिया...नाचने का मन हो आया. बहुत झुमवाये भाई. आभार.
हमेँ भी बहुत आनँद आया मनीष भाई ..सुबह आपका ब्लोग खुला ही नहीँ - तो दुबारा आये ..कँचनजी कह रहीँ हैँ वो गीत भी सुनवा देँ तो आभार दुगना कहे देती हूँ -
- लावण्या
Manishbhai
Heard something new and enjoyed too.
Thanx.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
कल्पना ने इसे कब गाया मालूम नहीं लेकिन ९२ के चुनाव में रोहतास जिले के दिनारा क्षेत्र से हमारे प्रत्याशी शिवपूजन जी के पक्ष में गाया गीत -'हाथ में बलटी ,दिल में शिवपूजन,बल्टी छाप निशनवा पा गईने' याद आ गया ।
सुनवाने के लिए धन्यवाद।
लोक-संगीत से गुरेज़ करने वाले कुछ दुष्ट आलोचक कहेंगे ये भी कोई तरीक़ा है ? इससे लोक-संगीत की पवित्रता भंग हो जाएगी.ऐसा कह कह कर ही हमने लोक-संगीत को कमज़ोर किया है.इस मामले में पंजाब को देखिये ...आज पूरी इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पर हुक़ुमत कर रहा है. कल्पना जैसा कलेवर हर प्रांत के लोक-संगीत को मिल गया तो समझिये ...छा जाएंगे हमारी मिट्टी के ये रंग.
अब तो हुकूमत करनी ही है.भोजपुरी गायकी के आज के ये महान धुरंधर इसीलिए तो हैं ही.
Bahut khoob.
Is sundar geet ko suwane ka shukriya.
इस गीत को पसंद करने के लिए आप सबका धन्यवाद।
इंदौरनामा और कंचन जी सहमत हूँ आप दोनों के विचारों से।
i love this song. ali abbas sung it beautifully. i always listen this song on my laptop.
अफलातून जी का "हाथ में बल्टी" वाला गाना शायद मैंने भी सुना है...हों सकें तो अजित कुमार अकेला (हमारे पटना के) की गाई पुरवी सुनाये..."ननदी के बोलिया ना सोहाय पिया ले के अलगे रहब्"....amrish2jan@gmail.com
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