अमूमन जब कवि कोई कविता लिखता है तो कोई घटना, कोई प्रसंग या फिर किसी व्यक्तित्व का ताना बाना जरूर उसके मानस पटल पर उभरता है। ये ताना बाना जरूरी नहीं कि हाल फिलहाल का हो। अतीत के अनुभव और आस पास होती घटनाएँ कई बार नए पुराने तारों को जोड़ जाती हैं और एक भावना प्रकट होती है जो एक कविता की शक्ल ले लेती है। पर कभी भूत में लिखी आपकी रचना, आप ही के भविष्य की राहों को भी बदल दे तो ? हो सकता है आप के साथ भी कुछ ऐसा हुआ हों।
आज जिस प्रसंग का उल्लेख करने जा रहा हूँ वो एक बार फिर हरिवंश राय बच्चन जी के जीवन की उस संध्या से जुड़ा हुआ है जब श्यामा जी के देहांत के बाद वे एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे और अपने एक मित्र प्रकाश के यहाँ बरेली पहुंचे थे। वहीं उनकी पहली मुलाकात मिस तेजी सूरी से हुई थी। अपनी आत्मकथा में मुलाकात की रात का जिक्र करते हुए बच्चन कहते हैं
"........उस दिन ३१ दिसंबर की रात थी। रात में सबने ये इच्छा ज़ाहिर कि नया वर्ष मेरे काव्य पाठ से आरंभ हो। आधी रात बीत चुकी थी, मैंने केवल एक दो कविताएं सुनाने का वादा किया था। सबने क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी वाला गीत सुनना चाहा, जिसे मैं सुबह सुना चुका था. यह कविता मैंने बड़े सिनिकल मूड में लिखी थी। मैंने सुनाना आरंभ किया। एक पलंग पर मैं बैठा था, मेरे सामने प्रकाश बैठे थे और मिस तेजी सूरी उनके पीछे खड़ीं थीं कि गीत खत्म हो और वह अपने कमरे में चली जाएँ। गीत सुनाते सुनाते ना जाने मेरे स्वर में कहाँ से वेदना भर आई। जैसे ही मैंने उस नयन से बह सकी कब इस नयन की अश्रु-धारा पंक्ति पढ़ी कि देखता हूँ कि मिस सूरी की आँखें डबडबाती हैं और टप टप उनके आँसू की बूंदे प्रकाश के कंधे पर गिर रही हैं। यह देककर मेरा कंठ भर आता है। मेरा गला रुँध जाता है। मेरे भी आँसू नहीं रुक रहे हैं। और जब मिस सूरी की आँखों से गंगा जमुना बह चली है और मेरे आँखों से जैसे सरस्वती। कुछ पता नहीं कब प्रकाश का परिवार कमरे से निकल गया और हम दोनों एक दूसरे से लिपटकर रोते रहे। आँसुओं से कितने कूल-किनारे टूट गिर गए, कितने बाँध ढह-बह गए, हम दोनों के कितने शाप-ताप धुल गए, कितना हम बरस-बरस कर हलके हुए हैं, कितना भींग-भींग कर भारी? कोई प्रेमी ही इस विरोध को समझेगा। कितना हमने एक दूसरे को पा लिया, कितना हम एक दूसरे में खो गए। हम क्या थे और आंसुओं के चश्मे में नहा कर क्या हो गए। हम पहले से बिलकुल बदल गए हैं पर पहले से एक दूसरे को ज्यादा पहचान रहे हैं। चौबीस घंटे पहले हमने इस कमरे में अजनबी की तरह प्रवेश किया और चौबीस घंटे बाद हम उसी कमरे से जीवन साथी पति पत्नी नहीं बनकर निकल रहे हैं. यह नव वर्ष का नव प्रभात है जिसका स्वागत करने को हम बाहर आए हैं। यह अचानक एक दूसरे के प्रति आकर्षित, एक दूसरे पर निछावर अथवा एक दूसरे के प्रति समर्पित होना आज भी विश्लेषित नहीं हो सका है। ......"
तो देखा आपने कविता के चंद शब्द दो अजनबी मानवों को कितने पास ला सकते हैं। भावनाओं के सैलाब को उमड़ाने की ताकत रखते हैं वे। तो आइए देखें क्या थी वो पूरी कविता
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?क्या करूँ?
कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बंटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्या करूँ?
मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?क्या करूँ?
कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बंटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्या ये सच नहीं जब अपने दुख से हम खुद ही निबटने की असफल कोशिश कर रहे हों तो संवेदनाओं के शब्द, दिल को सुकून पहुँचाने के बजाए मात्र खोखले शब्द से महसूस होते हैं। हर्ष की बात इतनी जरूर है कि बच्चन की ये दुखी करती कविता खुद उनके जीवन में एक नई रोशनी का संचार कर गई।
वैसे ये बताएँ कि क्या आपके द्वारा लिखी कोई कविता ऍसी भी है जिसने आपके जीवन के मार्ग को एकदम से मोड़ दिया हो?
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21 टिप्पणियाँ:
आभार इस कविता और उसके साथ दी गई जानकारी के लिए !
आभार इस कविता और उसके साथ दी गई जानकारी के लिए !
जब हरिवंश राय जी की आत्मकथा पढ़ी थी तब यह प्रसंग भी पढ़ा था आज यहाँ इसको पढ़ कर बहुत अच्छा लगा शुक्रिया इसको यहाँ देने के लिए ...कई लेखन सच में जिंदगी बदल देतें हैं ..
मनीष जी यह जानकारी और इतनी प्यारी रचना पढवाने के लिए आपका शुक्रिया।
बच्हन जी आत्मकथा क्या भूलू क्या याद करूँ में भी इसका जिक्र है....पर ये कविता भूली सी थी .....इसे यहाँ बांटने के लिए शुक्रिया.....
अनुराग भाई ये अंश उनकी आत्मकथा के दूसरे भाग 'नीड़ का निर्माण फिर से' लिया गया है।
बहुत अच्छी कविता की फिर याद दीलवाने के लिये आपका शुक्रिया मनीश भाई ...
- लावण्या
Once again, a superb post. And must I say "Kavita bahut acchhii hai?"
Thanks anyways ... This one for the day.
थैंक्स मनीष, बहुत अच्छा लगा पढ़कर। अच्छी जानकारी के साथ पोस्ट। टाइटल एक दो बार आंख में टकराया फिर सोचा कि चलो पढ़ता हूं। धन्यवाद फिर से।
अच्छी जानकारी दी आपने... पढ़कर, जानकर अच्छा लगा
सच कहा आपने मनीष भाई, सच तो ये है की हर कविता जिंदगी को एक नई दिशा देती है.
मन को छूने वाली सुंदर
भाव पूर्ण प्रस्तुति.
सधा हुआ अलहदा चयन.
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बधाई
डा.चन्द्रकुमार जैन
अच्छी जानकारी और प्यारी रचना के लिए धन्यवाद
varsha 2002 me jab Kya Bhulu.n Kya yaad karu.n hath me aai to khud ko is ke aage ke sare bhag padhane se rokana bahut mushkil tha...to Last part, "Dashdwar se Sopan tak" to nahi padh paai, lekin 3 part padhe, library ki book se note kee gai ye kavita ab bhi mere paas padi hai. haal me Teji ji ke nidhan ke samay sab kuchh jaise taza ho gaya tha, tab socha tha ki ye bhi kavita dalu.ngi kabhi apne blog par aur bahut kuchh aise hi context ka layout banaya tha dimag me jaisa aap ki post par hai.
Bachchhan ji ki ek aur sanvedanshil kavita ba.ntane ka dhanyavad
bahut pahle padhi thi bachchan ji ki aatmkatha. aaj aapne yaad dilaya to sara drashy jeevant ho utha....shukriya,
हां ये प्रसंग मुझे भी याद है, अरे मेरी यादाश्त बराबर काम कर रही है तो तेजी जी प्रकाश जी की पत्नी के कॉलेज में प्रोफ़ेसर थीं , है न? और खास बच्चन जी से मिलाने के लिए ही उस दिन उनको प्रकाश जी की पत्नी ने आमंत्रित किया था
is kavita aur us se jude kisse ko pesh karne ke liye shukriya
आप सब को ये कविता पसंद आई जान कर बेहद खुशी हुई।
बहुत ही मार्मिक क्षण...हाँ... इन पलों को दो प्रेम में डूबे मन ही महसूस कर सकते हैं...धन्यवाद इस पोस्ट के लिए ......
आखिरी पंक्ति ने मुझे उस देहरी पर ले जाकर खड़ा कर दिया जहाँ से मैंने अपने जीवन साथी को पाया था ,एक औपचारिक मुलाकात और मेरी लिखी कविता सुनने का अनुरोध ....
आज दिल ने चाहा बहुत अपना भी हमसफ़र होता
जिससे कहते एहसास दिलके जिसके काँधे पर अपना सर होता ....
कविता ख़त्म होते होते साहब क्लीन बोर्ड हो चुके थे
Bhehtreen
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