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किसने जाना था कि एक छोटे से शहर 'खंडवा' मे पैदाइश लेने वाला 'आभास कुमार गाँगुली' नाम का बालक भारतीय संगीत के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ जाएगा। १९४८ में खेमचंद्र प्रकाश की संगीत निर्देशित फिल्म जिद्दी में अपना पहला गीत 'मरने की दुआएँ क्यूँ मागूँ' से लेकर अक्टूबर १९८७ में 'वक़्त की आवाज़' में आशा जी के साथ गाए गीत 'गुरु ओ गुरु..' तक अपने चालीस साल के संगीत सफ़र में किशोर दा ने संगीत प्रेमी करोड़ों भारतीयों का दिल जीता और आज भी जीत रहे हैं। किशोर कुमार को जब उनके बड़े भाई अशोक कुमार एक अभिनेता बनाने के लिए मुंबई लाए तो किशोर दा, मन ही मन कोई ख़ास उत्साहित नहीं थे। उनका तो सपना अपने उस वक़्त के प्रेरणास्रोत के एल सहगल से मिलने का था जो दुर्भाग्यवश पूरा नहीं हो पाया क्योंकि इनके मुंबई आगमन के कुछ ही दिन पश्चात सहगल चल बसे।
अपने शुरुआती दिनों में के एल सहगल के अंदाज का अनुकरण करने वाले किशोर दा की गायिकी में एक ख़ूबसूरत मोड़ तब आया जब उनकी मुलाकात एस डी बर्मन साहब से हुई। ये भी एक संयोग ही था कि बर्मन सीनियर, अशोक कुमार जी के घर पहुँचे और किशोर को बाथरूम में गुनगुनाते सुन कर ठिठक गए और उनसे मिल कर जाने का ही निश्चय किया। उन्होंने ही किशोर को गायन की अपनी शैली विकसित करने के लिए प्रेरित किया। किशोर दा की जिस आवाज़ के हम सब क़ायल हैं, वो पचास के उत्तरार्ध में एस डी बर्मन के सानिध्य का ही परिणाम रहा है।
अग़र बाकी गायकों की अपेक्षा किशोर दा के योगदान पर विचार करूँ तो यही पाता हूँ कि जहाँ रफी ने गायिकी में अपनी विविधता से सबका मन जीता, वहीं किशोर दा ने हिंदी फिल्म संगीत की गायिकी को आम जनता के होठों तक पहुँचाया। उनकी गायिकी का तरीका ऍसा था कि जिसे गुनगुनाना एक आम संगीत प्रेमी के लिए अपेक्षाकृत अधिक सहज है। दरअसल किशोर, मुकेश और हेमंत दा सरीखे गायकों ने अपनी आवाज़ के बलबूते पर ही संगीतप्रेमी जनमानस को अपना दीवाना बना लिया। मोहम्मद रफी और मन्ना डे जैसे गायक दिलकश आवाज़ के मालिक तो थे ही, पर साथ-साथ वे शास्त्रीय संगीत में महारत हासिल करने के बाद हिंदी फिल्मों में पार्श्व संगीत देने आए थे। किशोर दा के पास ऍसी काबिलियत नहीं थी फिर भी इसकी कमी उन्होंने महसूस नहीं होने दी और अपने मधुर गीतों को हमें गुनगुनाने पर मज़बूर करते रहे।
पचास का दशक किशोर के लिए बतौर गायक काफी मुश्किल वाला समय रहा। इस दौरान उन्होंने कई फिल्में की जिनमें 'नौकरी', 'मिस माला', 'बाप रे बाप', 'आशा', 'दिल्ली का ठग' और 'चलती का नाम गाड़ी' चर्चित रहीं। नौकरी फिल्म में एक गीत था 'छोटा सा घर होगा...' जिसे संगीतकार सलिल चौधरी, हेमंत दा से गवाना चाहते थे। किशोर दा ने जब इसे खुद गाने की पेशकश की तो सलिल दा का सीधा सा जवाब था ...
"जब मैंने तुम्हें कभी सुना ही नहीं तो ये गीत तुमसे कैसे गवा लूँ। "
बड़े मान-मुनौवल के बाद सलिल दा राजी हुए। ये वाक़या इस बात को स्पष्ट करता है कि वो समय ऍसा था जब ज्यादातर संगीत निर्देशक किशोर की आवाज़ को गंभीरता से नहीं लेते थे।
बतौर नायक किशोर कुमार का ये समय ज्यादा बेहतर रहा। १९५६ में जे के नंदा की फिल्म 'ढ़ाके का मलमल' में पहली बार वो और मधुबाला साथ साथ देखे गए। शायद इसी वक़्त उनके प्रेम की शुरुआत हुई। १९५८ में फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' इस जोड़ी की सबसे सफल फिल्म रही। इस जोड़ी पर फिल्माए गीत 'इक लड़की भीगी भागी सी...' और 'पाँच रुपैया बारह आना....' इसी फिल्म से थे। १९६१ में अपनी पहली पत्नी रूमा गुहा के रहते हुए किशोर ने मधुबाला से शादी की और इसके लिए मुस्लिम धर्म को अपनाते हुए अपना नाम अब्दुल करीम रख लिया। ज़ाहिर है ये सारी क़वायद दूसरी शादी करने में कानूनी पचड़ों से बचने के लिए की गई थी।
वापस बढ़ते हैं किशोर दा के संगीत के सफ़र पर। संगीतकार एस. डी. बर्मन पहले ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने ये समझा कि किस तरह के गानों के लिए किशोर की आवाज सबसे ज्यादा उपयुक्त है। उन्हीं की वज़ह से साठ के दशक में किशोर, देव आनंद की आवाज़ बने। बरमन सीनियर द्वारा संगीत निर्देशित 'गाइड' और 'जेवल थीफ' में उनके गाए गीतों ने उनके यश को फैलने में मदद की।
पर किशोर की गायिकी के लिए मील का पत्थर साबित हुई १९६९ में बनी फिल्म 'अराधना'।
एस डी बर्मन साहब इस फिल्म के गीत रफी साहब से गवाने का मन बना चुके थे। पर धुनें बना चुकने के बाद वो बीमार पड़ गए और इसके संगीत को पूरा करने की जिम्मेवारी पंचम दा पर आन पड़ी। उन्होने इन धुनों को गाने के लिए किशोर दा को चुना और उसके बाद जो रच कर बाहर निकला वो इतिहास बन गया। इस फिल्म के गीत 'रूप तेरा मस्ताना...' के लिए किशोर दा को पहली बार फिल्मफेयर एवार्ड से नवाज़ा गया।
सत्तर के दशक की शुरुआत किशोर दा के लिए जबरदस्त रही। एस. डी. बर्मन के संगीत निर्देशन में 'शर्मीली' और 'प्रेम पुजारी' के गीत चर्चित हुए। वहीं 'अराधना', 'कटी पतंग' और 'अमर प्रेम' की अपार सफलता के बाद किशोर दा पर्दे पर राजेश खन्ना की स्थायी आवाज़ बन गए।
सत्तर का दशक किशोर कुमार की गायिकी के लिए स्वर्णिम काल था। इस दशक में गाए हुए गीतों में से कुछ को छांटना बेहद दुष्कर कार्य है। कटी पतंग (1970), अमर प्रेम (1971),बुढ्ढा मिल गया(1971), मेरे जीवन साथी (1972), परिचय (1972), अभिमान(1973), कोरा कागज़(1974), मिली(1975), आँधी(1975), खुशबू(1975) में गाए किशोर के गीत मुझे खास तौर से प्रिय हैं।
पहले देव आनंद और फिर राजेश खन्ना को अपनी आवाज़ देने के बाद इस दशक में वो अमिताभ को भी अपनी आवाज़ देते नज़र आए। किशोर हर अभिनेता की आवाज़ के हिसाब से अपनी वॉयस माडुलेट करते थे। इस दौर में किशोर ने बड़े संगीतकारों में बर्मन सीनियर, पंचम, कल्याण जी-आनंद जी और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ काम करते हुए फिल्म जगत को कई अनमोल गीत दिए।
चाहे वो 'बुढ्ढा मिल गया 'का रूमानी गीत 'रात कली इक ख़्वाब में...' हो या यूडलिंग में उनकी महारत दिखाता 'मेरे जीवन साथी ' का 'चला जाता हूँ किसी की धुन में...' या फिर दर्द में डूबा 'मिली' में गाया हुआ 'बड़ी सूनी सूनी है..... ' या 'आए तुम याद मुझे, गाने लगी हर धड़कन....' सब के सब किशोर दा की गायन प्रतिभा में विद्यमान हर रंग की उपस्थिति को दर्ज कराते हैं।
किशोर दा के सबसे सुरीले गीत एस. डी. बर्मन और पंचम दा के साथ हैं। पंचम को जब भी अपनी किसी फिल्म के लिए किशोर दा से गाना गवाना पड़ता था तो उसके दो दिन पहले उस गीत की धुन का टेप वो उनके यहाँ भिजवा देते थे। वे कहते थे कि इससे किशोर को गीत को महसूस करते हुए जज़्ब करने में सहूलियत होती थी और वास्तविक रिकार्डिंग का परिणाम बेहतरीन आता था।
फिल्म उद्योग में ये बात आम है कि किशोर का व्यवहार या मैनरिज्म अपने मिलने वाले लोगों से बहुधा अज़ीब तरह का होता था। ऍसा वो कई बार जानबूझ कर करते थे पर कहीं न कहीं उनका दिल, शरारती बच्चे की तरह था जो उनके दिमाग में नए-नए खुराफातों को जन्म देता था। अक्सर उनके इस नटखटपन का शिकार, उनके क़रीबी हुआ करते थे। आइए रूबरू होते हैं उनके ऍसे ही कुछ कारनामों से..
एक बार की बात है, किशोर के घर एक इंटीरियर डेकोरेटर पधारा। वो सज्जन तपती गर्मी में भी थ्री पीस सूट में आए, और आते ही अपने अमेरिकी लहजे के साथ शुरु हो गए किशोर को फंडे देने कि उनके घर की आंतरिक साज सज्जा किस तरह की होनी चाहिए। किशोर ने किसी तरह आधे घंटे उन्हें झेला और फिर अपनी आवश्यकता उन्हें बताने लगे।
अब गौर करें किशोर दा ने उन से क्या कहा....
"मुझे अपने कमरे में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। बस चारों तरफ कुछ फीट गहरा पानी हो और सोफे की जगह छोटी-छोटी संतुलित नावें, जिसे हम चप्पू से चला कर इधर-उधर ले जा सकें। चाय रखने के लिए ऊपर से टेबुल को धीरे धीरे नीचे किया जा सके ताकि हम मज़े में वहाँ से कप उठा चाय की चुस्कियाँ ले सकें।...."
इंटीरियर डेकोरेटर के चेहरे पर अब तक घबड़ाहट की रेखाएँ उभर आईं थीं पर किशोर कहते रहे...
"....आप तो जानते ही हैं कि मैं एक प्रकृति प्रेमी हूँ, इसलिए अपने कमरे की दीवार की सजावट के लिए मैं चाहता हूँ कि उन पर पेंटिंग्स की बजाए लटकते हुए जीवित कौए हों और पंखे की जगह हवा छोड़ते बंदर... "
किशोर का कहना था कि ये सुनकर वो व्यक्ति बिल्कुल भयभीत हो गया और तेज कदमों से कमरे से बाहर निकला और फिर बाहर निकलकर एकदम से गेट की तरफ़, विद्युत इंजन से भी तेज रफ़्तार से दौड़ पड़ा।
ये बात किशोर दा ने प्रीतीश नंदी को १९८५ में दिए गए साक्षात्कार में बताई थी। प्रीतीश नंदी ने जब पूछा कि क्या ये उनका पागलपन नहीं था? तो किशोर का जवाब था कि अगर वो शख्स उस गर्म दुपहरी में वूलेन थ्री पीस पहनने का पागलपन कर सकता हे तो मैं अपने कमरे में जिंदा काँव-काँव करते कौओं को लटकाने का विचार क्यूँ नहीं ला सकता ? ऐसे ही कुछ और किस्से आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
आखिर क्या सोचते थे किशोर, अपने समकालीनों के बारे में ?
लड़कपन से ही किशोर के. एल. सहगल के दीवाने थे। बचपन मे वे अपनी पॉकेटमनी से सहगल साहब के रिकार्ड खरीदा करते थे। सही मायने में वो उनको अपना गुरु मानते थे।जब उन्होंने खुद बतौर गायक काफी ख्याति अर्जित कर ली तो एक संगीत कंपनी ने उनके सामने सहगल के गीतों को गाने का प्रस्ताव रखा। किशोर ने साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था....
" मैं उनके गीतों को और बेहतर गाने की कोशिश क्यूँ करूँ ? कृपया उन्हें हमारी यादों में बने रहने दें। उनके गाये गीत, उनके ही रहने दें। मुझे ये किसी एक शख्स से भी नहीं सुनना कि किशोर ने सहगल से भी अच्छा इस गीत को गाया। "
सहगल का विशाल छायाचित्र हमेशा उनके घर के पोर्टिको की शोभा बढ़ाता रहा। और उसी तसवीर के बगल में रफी साहब की तसवीर भी लगी रहती थी। किशोर, रफी की काबिलियत को समझते थे और उसका सम्मान करते थे। सत्तर के दशक में जब किशोर दा की तूती बोल रही थी, तो उनके एक प्रशंसक ने कह दिया....
"किशोर दा , आपने तो रफी की छुट्टी कर दी।..."
उस व्यक्ति को प्रत्त्युत्तर एक चाँटे के रूप में मिला। किशोर और रफी के फैन आपस में एक दूसरे की कितनी खिंचाई कर लें, वास्तविक जिंदगी में कभी इन महान गायकों के बीच आपसी सद्भाव की दीवार नहीं टूटी।
किशोर और लता जी के युगल गीत काफी चर्चित रहे हैं। इतने सालों के बाद आज भी 'आँधी', 'घर', 'हीरा पन्ना', 'सिलसिला' और 'देवता' जैसी फिल्मों के गीत को सुनने वालों की तादाद में कमी नहीं आई है।
किशोर, लता को अपना सीनियर मानते थे और इसीलिए किसी गीत के लिए उन्हें जितना पैसा मिलता वो उससे एक रुपया कम लेते।
और लता जी, साथ शो करतीं तो तारीफ़ों के पुल बाँध देतीं। हमेशा किशोर को किशोर दा कह कर संबोधित करतीं। ये अलग बात थी कि उम्र में किशोर लता से मात्र एक महिना चौबीस दिन ही बड़े थे।
किशोर और आशा जी को पंचम की धुनों में सुनने का आनंद ही अलग है। अपने एक साक्षात्कार में आशा जी ने कहा था कि
"किशोर एक जन्मजात गायक थे जो गाते समय आवाज़ में नित नई विविधता लाने में माहिर थे। इसीलिए उनके साथ युगल गीत गाने में मुझे और सजग होना पड़ता था, गायिकी में उनकी हरकतों को पकड़ने के लिए।"
किशोर दा भी मानते थे कि उनके चुलबुले अंदाज को कोई मिला सकता है तो वो थीं आशा। इसीलिए कहा करते
"She is my match at mike. "
किशोर कुमार की निजी जिंदगी
किशोर कुमार की पारिवारिक जिंदगी, उनकी शख्सियत जितनी ही पेचीदा रही।
बात १९५१ की है। उस वक्त किशोर मुंबई फिल्म उद्योग में एक अदाकार के तौर पर पाँव जमाने की कोशिश कर रहे थे। इसी साल उन्होंने रूमा गुहा ठाकुरता से शादी की। १९५२ में अमित कुमार जी की पैदाइश हुई। ये संबंध १९५८ तक चला। रूमा जी का अपना एक आकर्षक व्यक्तित्व था। एक बहुआयामी कलाकार के रूप में बंगाली कला जगत में उन्होंने बतौर अभिनेत्री, गायिका, नृत्यांगना और कोरियोग्राफर के रुप में अपनी पहचान बनाई। पर उनका अपने कैरियर के प्रति यही अनुराग किशोर को रास नहीं आया। किशोर ने खुद कहा है कि
"...वो एक बेहद गुणी कलाकार थीं। पर हमारा जिंदगी को देखने का नज़रिया अलग था। वो अपना कैरियर बनाना चाहती थीं और मैं उन्हें एक घर को बनाने वाली के रूप में देखना चाहता था। अब इन दोनों में मेल रख पाना तो बेहद कठिन है। कैरियर बनाना और घर चलाना दो अलग अलग कार्य हैं। इसीलि॓ए हम साथ नहीं रह पाए और अलग हो गए।..."
१९५८ में ये संबंध टूट गया। इससे पहले १९५६ में मधुबाला, किशोर की जिंदगी में आ चुकी थीं। पाँच साल बाद दोनों विवाह सूत्र में बँध तो गए पर किशोर दा के माता-पिता इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं पाए। बहुतेरे फिल्म समीक्षक इस विवाह को 'Marriage of Convenience' बताते हैं। दिलीप कुमार से संबंध टूटने की वजह से मधुबाला एक भावनात्मक सहारे की तालाश में थीं और किशोर अपनी वित्तीय परेशानियों से निकलने का मार्ग ढ़ूंढ़ रहे थे।
पर इस रिश्ते में प्यार बिलकुल नहीं था ये कहना गलत होगा। गौर करने की बात है कि मधुबाला ने नर्गिस की सलाह ना मानते हुए, भारत भूषण और प्रदीप के प्रस्तावों को ठुकरा कर किशोर दा से शादी की। तो दूसरी ओर किशोर ने ये जानते हु॓ए भी कि उनकी होने वाली पत्नी, एक लाइलाज रोग (हृदय में छेद) से ग्रसित हैं, उनसे निकाह रचाया। पर शुरुआती प्यार अगले ९ सालों में मद्धम ही पड़ता गया।
किशोर ने Illustrated Weekly को दिए अपने साक्षात्कार में कहा था...
"...मैंने उन्हें अपनी आँखों के सामने मरते देखा। इतनी खूबसूरत महिला की ऍसी दर्दभरी मौत....! वो अपनी असहाय स्थिति को देख झल्लाती, बड़बड़ाती और चीखती थीं। कल्पना करें इतना क्रियाशील व्यक्तित्व रखने वाली महिला को नौ सालों तक चारदीवारी के अंदर एक पलंग पर अपनी जिंदगी बितानी पड़े तो उसे कैसा लगेगा? मैं उनके चेहरे पर मुस्कुराहट लाने का अंतिम समय तक प्रयास करता रहा। मैं उनके साथ हँसता और उनके साथ रोता रहा। ..."
पर मधुबाला की जीवनी लिखने वाले फिल्म पत्रकार 'मोहन दीप' अपनी पुस्तक में उनके इस विवाह से खास खुशी ना मिलने का जिक्र करते हैं। सच तो अब मधुबाला की डॉयरी के साथ उनकी कब्र में दफ़न हो गया, पर ये भी सच हे कि किशोर उनकी अंतिम यात्रा तक उनके साथ रहे और जिंदगी के अगले सात साल उन्होंने एकांतवास में काटे। अगर गौर करें तो उनके लोकप्रिय उदासी भरे नग्मे इसी काल खंड की उपज हैं।
१९७६ में उन्होंने योगिता बाली से शादी की पर ये साथ कुछ महिनों का रहा। किशोर का इस असफल विवाह के बारे में कहना था....
"...ये शादी एक मज़ाक था। वो इस शादी के प्रति ज़रा भी गंभीर नहीं थी। वो तो बस अपनी माँ के कहे पर चलती थी। अच्छा हुआ, हम जल्दी अलग हो गए।..."
वैसे योगिता कहा करती थीं कि किशोर ऍसे आदमी थे जो सारी रात जग कर नोट गिना करते थे। ये बात किशोर ने कभी नहीं मानी और जब योगिता बाली ने मिथुन से शादी की, किशोर ने मिथुन के लिए गाना छोड़ दिया। इस बात का अप्रत्यक्ष फ़ायदा बप्पी दा को मिला और मिथुन के कई गानों में उन्होंने अपनी आवाज़ दी।
१९८० में किशोर ने चौथी शादी लीना चंद्रावरकर से की जो उनके बेटे अमित से मात्र दो वर्ष बड़ी थीं। पर किशोर, लीना के साथ सबसे ज्यादा खुश रहे। उनका कहना था..
'...मैंने जब लीना से शादी की तब मैंने नहीं सोचा था कि मैं दुबारा पिता बनूँगा। आखिर मेरी उम्र उस वक़्त पचास से ज्यादा थी। पर सुमित का आना मेरे लिए खुशियों का सबब बन गया। मैंने हमेशा से एक खुशहाल परिवार का सपना देखा था। लीना ने वो सपना पूरा किया।...
... वो एक अलग तरह की इंसान है । उसने दुख देखा है..आखिर अपने पति की आँख के सामने हत्या हो जाना कम दुख की बात नहीं है। वो जीवन के मूल्य और छोटी-छोटी खुशियों को समझती है। इसीलिए उसके साथ मैं बेहद खुश हूँ। ..."
किशोर को मुंबई की फिल्मी दुनिया और उसके लोग कभी रास नहीं आए। १९८५ में संन्यास का मन बना चुकने के बाद उन्होंने कहा था...
"......कौन रह सकता है इस चालबाज, मित्रविहीन दुनिया में, जहाँ हर पल लोग आपका दोहन करने में लगे हों। क्या यहाँ किसी पर विश्वास किया जा सकता है? क्या कोई भरोसे का दोस्त मिल सकता है यहाँ? मैं इस बेकार की प्रतिस्पर्धा से निकलना चाहता हूँ। कम से कम अपने पुरखों की ज़मीन खंडवा में तो वैसे ही जी सकूँगा जैसा मैं हमेशा चाहता था। कौन इस गंदे शहर में मरना चाहेगा ?......."
दरअसल इस कथन का मर्म जानने के लिए फिर थोड़ा पीछे जाना होगा। किशोर की ये कड़वाहट उनके फिल्म जगत में बिताए शुरु के दिनों की देन है। वे कभी अभिनेता नहीं बनना चाहते थे। चाहते थे तो सिर्फ गाना पर बड़े भाई दादा मुनि का कहना टाल भी नहीं पाए। अभिनय में गए तो सफलता भी हाथ लगी पर गायक के रूप में ज्यादातर संगीत निर्देशकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। खुद किशोर ने अपनी लाचारी और अपने अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में ये सफाई पेश की है...
"...मैं सिर्फ गाना चाहता था। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि मुझे अभिनय की दुनिया में आना पड़ा। मुझे अभिनय में बिताया अपना का हर एक पल नागवार गुजरा। मैंने कौन-कौन से तरीके नहीं अपनाए इस दुनिया से पीछा छुड़ाने के लिए...अपने संवाद की पंक्तियाँ गलत बोलीं, पागलपन का नाटक किया, बाल मुंडवाए, गंभीर दृश्यों के बीच यूडलिंग शुरु कर दी। मीना कुमारी के सामने वो संवाद बोले, जो किसी दूसरी फिल्म में बीना रॉय को बोलने थे..........पर फिर भी उन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और आखिरकार एक सफल नायक बना ही दिया।...."
किशोर ने यहाँ कोई अतिश्योक्ति नहीं की थी। उनके अज़ीबोगरीब हरकतों के कुछ किस्से तो पहले भी यहाँ लिखे जा चुके हैं, अब कुछ की बानगी और लें...
भाई-भाई की शूट में निर्देशक रमन के द्वारा अपने ५००० रुपए देने के लिए अड़ गए। अशोक कुमार के समझाने पर अनिच्छा पूर्वक वो दृश्य करने को तैयार हुए। छोटे से शाँट में उन्हें सिर्फ बड़बड़ाना था और थोड़ी चहलकदमी करनी थी।
तो किशोर ने क्या किया, कुछ दूर चलते ..कलाबाजी खाते और जोर से कहते पाँच हजार रुपया। ऐसी कलाबाजियाँ खाते-खाते वो कमरे के दूसरी तरफ पहुँचे जहाँ एक पहिया गाड़ी खड़ी थी. किशोर उस पर होते हुए सीधे बाहर पहुँचे और एक छलाँग मार कर अपनी गाड़ी पर सवार होकर चलते बने । बाद में रमन ने स्वीकार किया कि वो किशोर को पैसा चुका पाने की हालत में नहीं थे।
एक निर्माता को तो उन्होंने इतना परेशान किया कि वो उनके खिलाफ़ कोर्ट से सम्मन ले आए कि किशोर उनके आदेशानुसार ही काम करेंगे।
नतीजा ये हुआ कि सेट पर अपनी कार से उतरने के पहले भी वो निर्माता का आदेश मिलने के बाद ही उतरते। एक बार वो शूटिंग के दौरान गाड़ी को लेते हुए खंडाला चले गए, तुर्रा ये कि डॉयरेक्टर ने शॉट के बाद 'कट' नहीं बोला तो मैं क्या करता...
पर ये सब उन्होंने सिर्फ फिल्मी दुनिया से निकलने के लिए किया ऐसा भी नहीं था। कुछ बचपना कह लें और कुछ उनके खुराफाती दिमाग का फ़ितूर, अपनी निजी जिंदगी में उन्होंने अपनी इमेज को ऍसा ही बनाए रखा।
उनसे जुड़ी कहानियाँ खत्म होने का नाम नहीं लेतीं। शयनकक्ष में खोपड़ी की आँखों से निकलती लाल रोशनी, ड्राइंग रूम में उल्टी पड़ी कुर्सियाँ, मेहमानों पर उनके इशारों पर भौंकते कुत्ते, गौरीकुंज के अपने आवास के बाहर लगा बोर्ड,
Beware of Kishore Kumar !
उनके मिज़ाज की गवाही देता है।
पर इतना सब जानते हुए भी उनके करीबी उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। साथी कलाकार महमूद का कहना था
"....वो ना तो सनकी थे ना ही कंजूस, जैसा कि कई लोग सोचते हैं। वास्तव में वो एक जीनियस थे। वो राज कपूर के बड़बोले रुप थे, एक हरफनमौला जिसे सिनेमा के हर पहलू की जानकारी थी और जिसे हो हल्ला मचाकर लोगों की नज़रों में बने रहने का शौक था।....."
वहीं अभिनेत्री तनुजा का मानना था
"......मुझे समझ नहीं आता कि वो पागलपन का मुखौटा क्यूँ लगाए रहते थे?
शायद, एक आम इंसान की तरह वो दुनिया से अपने अक़्स का कुछ हिस्सा छुपाना चाहते थे। जब वो अच्छे मूड में रहते तो अपने चुटकुलों से हँसा-हँसा कर लोट पोट कर देते थे। ...."
संगीत निर्देशक कल्याण का कहना था
"....किशोर मूडी इंसान थे, पर मैं समझता हूँ कि किसी कलाकार को ये छूट तो आपको देनी ही होगी। उनसे कुछ करवाने के लिए मुझे बच्चों जैसा व्यवहार करना पड़ता था। सो मैं जो उनसे चाहता ठीक उसका उलटा बोलता।...."
किशोर के जीवन वृत को पत्रकार कुलदीप धीमन ने एक अच्छा सार दिया है। कुलदीप कहते हैं...
".....शुरुआती दौर में अपनी बतौर गायक पहचान बनाने के क्रम में मिली दुत्कार ने उनके दिल में वो ज़ख्म किए जो वक़्त के साथ भर ना पाए और जिन्होंने उन्हें एकाकी बना डाला। पर उनके अंदर का खुराफ़ाती बच्चा कभी नहीं मरा। यही वज़ह रही कि प्रशंसक और दोस्तों को उनकी कोई स्पष्ट छवि बनाने में दुविधा हुई। सामान्यतः हम जीवन में श्वेत श्याम किरदार देखने के आदि हैं पर किशोर की जिंदगी में स्याह रंग की कई परते थीं जिन्होंने उनके चरित्र को जटिल बना दिया था.... "
१९८७ में हृदयगति रुक जाने की वजह से उनकी मृत्यु हो गई।
वैसे तो इस श्रृंखला के दौरान मैंने आपको किशोर के अपने दस पसंदीदा उदासी भरे नग्मे सुनाए थे। आज उनमें से एक गीत है १९६५ की फिल्म "श्रीमान फंटूश" का जिसके बोल लिखे आनंद बख्शी ने और धुन बनाई लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी ने।
ये दर्द भरा अफ़साना, सुन ले अनजान ज़माना ज़माना
मैं हूँ एक पागल प्रेमी, मेरा दर्द न कोई जाना
मुझे ये गाना बेहद पसंद है और इसका मुखड़ा तो कुछ-कुछ किशोर दा के जीवन की कहानी कह देता है। क्या गायिकी थी और कितनी मीठी धुन कि वर्षों पहले सुने इस गीत को गाते वक्त मन खुद-बा-खुद उदास हो जाता है।
किशोर दा की आवाज़ में आप इस मधुर गीत को यहाँ सुन सकते हैं।
इस श्रृंखला को छोटी छोटी प्रविष्टियों में आप यहाँ पढ़ सकते हैं....
- यादें किशोर दा कीः जिन्होंने मुझे गुनगुनाना सिखाया..दुनिया ओ दुनिया
- यादें किशोर दा कीः पचास और सत्तर के बीच का वो कठिन दौर... कुछ तो लोग कहेंगे
- यादें किशोर दा कीः सत्तर का मधुर संगीत. ...मेरा जीवन कोरा कागज़
- यादें किशोर दा की: कुछ दिलचस्प किस्से उनकी अजीबोगरीब शख्सियत के !.. एक चतुर नार बड़ी होशियार
- यादें किशोर दा कीः पंचम, गुलज़ार और किशोर क्या बात है ! लगता है 'फिर वही रात है'
- यादें किशोर दा की : किशोर के सहगायक और उनके युगल गीत...कभी कभी सपना लगता है
- यादें किशोर दा की : ये दर्द भरा अफ़साना, सुन ले अनजान ज़माना
- यादें किशोर दा की : क्या था उनका असली रूप साथियों एवम् पत्नी लीना चंद्रावरकर की नज़र में
- यादें किशोर दा की: वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी करीब हैं ..समापन किश्त
34 टिप्पणियाँ:
मनीष भाई,
आपने तो गागर में सागर को समेट दिया.
किशोर दा की जिंदगी के इतने सारे रंग और ढंग भी, देख कर दिल खुश हो गया.हाँ,गाने तो रात में ही सुनूंगा.
पोस्ट के लिये धन्यवाद.
किशोर कुमार के बारे में इतनी अच्छी रोचक जानकारी देने के लिए शुक्रिया ...बहुत कुछ पता चला इस पोस्ट से उनके बारे में ..बहुत विस्तृत जानकारी दी है आपने ..गाने तो उनके हमेशा याद गार हैं ही ..सुन रहे हैं ..धन्यवाद
यूँ तो किशोर दा के जीवन के बारे में आहा जिंदगी ओर एक बार सहारा समय में काफ़ी पढ़ा था ....पर सच में आप जितनी मेहनत एक पोस्ट में करते है काबिले तारीफ है ..गुलज़ार ओर आर डी का मै बहुत बड़ा फेन हूँ ओर इसमे किशोर न आये ऐसा हो नही सकता .....फिल्म देखने का बहुत शौकीन हूँ ओर आत्मकथा पढने का भी इसलिए अशोक कुमार के बारे में भी काफी पढ़ा है ,उन्होंने एक बार किस्सा बयाँ किया था की एक फ़िल्म में किशोर को एक एक्स्ट्रा का रोल दिया गया ओर जब सीन शूट होकर एडिटिंग टेबल पर आया तो देखा किशोर उसमे गाली दे रहे थे ....किशोर मनमौजी आदमी थे ,आदमी थे इसलिए उनमे कमिया भी थी ...पर वाकई आपने गागर में सागर समेट दिया है ...ढेरो साधुवाद आपको...
मनीषजी, आपका ब्लॉग़ सच में गागर मे सागर है..हर गायक और गीत को आपने बहुत सुन्दर विस्तार दिया है...बहुत बहुत शुक्रिया
मनीष सही मायनों में दीवानगी झलक रही है । किशोर दा के प्रति दीवानगी । संगीत के प्रति दीवानगी । ये तुम्हारी कुछ सुपरहिट पोस्टों में से एक है । तुम्हारी मेहनत को हम यहां से झुककर सलाम करते हैं भाई ।
This is deffintely a condensed version of a BOOK like POST !!
BRAVO Manish bhai.
Kishoda The Great Genius
ko Salaam ...
:-)
किशोर दा के जन्म दिन पर इतना बेहतरीन जानकारीपूर्ण आलेख जबरदस्त रहा. आनन्द आ गया इतना कुछ जानकर.आभार आपका.
(पहले टुकड़े टुकड़े में पढ़ा था मगर इसकी बात ही कुछ और है.)
Great boss. What a post. Just too good.
Manishbhai
Hats off to you.
Kitni mehnat lagai hai aapne is blog me.
Very informative and interesting
write up.
Thanks.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
hum Yunus aur Meet ji se sahamat..Manish ji kamaal kar diya aap ne is post mein,
मनीषजी,
इस पोस्ट को बुकमार्क करने के बाद आज फ़ुरसत में पढने का मौका मिला । मौका क्या मिला पूरी पोस्ट यादों की एक पोटली है । प्रीटिश नन्दी वाला इंटरव्यू पहले भी पढ चुका हूँ लेकिन इसके कुछ अंशों को हिन्दी में पेश करने के लिये आभार ।
रफ़ी और किशोर के फ़ैन आपस में बिल्लियों की तरह लडते हैं, काश वो समझ पायें कि दो महान कलाकारों की तुलना से कुछ हासिल नहीं होता ।
बहुत मेहनत की है आपने इस लेख को लिखने में ।
Jitna mehanat se aap ne ye post likhi hai utni hi mehanat se padha hamne.... poore 30 min lage padhne me to samajh sakti hu.n ki likhne ke liye kitni lagan ki zarurat padi hogi.... really a work which should be soluted.
किशोरदा पर इतने बढ़िया और जानकारी पूर्ण लेख पर आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
किशोरदा एक जीनियस गायक थे पर शायद बहुत कम संगीतकार उनका सही उपयोग कर पाये।
आप सब को मेरा ये प्रयास पसंद आया जानकर प्रसन्नता हुई।
इतना गहन अध्ययन उसी के द्वारा मुमकिन है जो अभक्त न हो । गजब । आनन्दम ।
बेहद ही रोचक और संपूर्ण पोस्ट.
रफ़ी साहब के लिये किशोर दा के मन में जो भावना थी वह उस दिन देखने को मिली, जब उनसे मिलने पहुंचे होटेल पर तो वहां टेप पर वे रफ़ी जी का गीत सुन रहे थे.
हां , एक प्यार भरी तकरा उनमें ज़रूर होती थीम कि रफ़ी जी किशोर ड को किशोर दादा कह कर पुकारते थे, जो इन्हे अच्छा नहीं लगता था.(क्योकि किशोर दा रफ़ी जी से छोटे थे उम्र में) एक दिन जब आपने सामने हुए तो कह डाला.रफ़ी साहब ने जब कारण बताया तो हंसते हंसते दोनो लोट पोट होगये,
रफ़ी जी नें कहा, आप बंगाली हैं इसलिये मैं आपको दादा बोलता था!!!
mitr,
kishore kumar mere manpasand singer hai . aapne itni rochak jaankari di hai ki main kya kahun , naman hai aapki lekhni ko .. main to yahan aakar dhany ho gaya ji .
aabhar
vijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
kishore da ke bare me itni sari jankaari upalabdha karane ke liye dhanyavad . aapki mehnat safal rahi........post bahut badhiya hai
Kishore Da ke jeewan vrat ko bahut hi saargarbhit dhang se puri imandaari aur lagan se prastut karne ke liye bahut bahut aabhar..
bahut hi achha laga..
धन्यवाद इस जानकारी के लिये
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार ।
मनीषजी,
आपका यह लेख पढके बहुत अच्छा लगा|
संदीप.
किशोर दा को नमन!
Hi Manish,
Pehle to main tumhen koti-koti dhanyavad kahna chahta hoon.Bhagwan ka aashirwad evam meri shubh kaamanayen hameshaa tumhare saath rahengi.Bahut hi parishram se tumne ye sankalan kar lipibadhha kiya hoga.ek bar padhna shuru kar jab tak samaapt nahin kiya,beech mein anya aawashyak karyon ke liye bhi nahin uth saka.waakai bahut hi rochak evam anjaani baaton ki jaankari mili.You R Great.Great Kishor daa ke saath sunder prastuti ke liye tumhe bhi mera naman...Y Nath...
Kishor da ka ek geet muze bahot bhata hai. Mera manna hai ke shayad wo kishor da jeevan sanchay hai.
AA chal ke tuze mai le ke chalu ek aise gagan ke tale
jahan gam bhi na ho aansu bhi na ho bas pyar hi pyar pale
aksar tanahaiyo me prakash dikhlata hai. kabhi soch ke dekho.
kishor da ke bare me likhne ke liye dhanyawad.
padh kar mann prasann ho gaya..
Kishore da aamar rahe
mere sabse priya singer kishore da ke baare me itni dher saari jankari dene ke liye aapka anek anek dhanyawad..such kahun to kishore da ke liye main pagal hun..is ek post me to aapne gagar me sagar bhar diya hai. kishore da ke janam din par ise share karne ke liye ek baar phir se dhanyawad..
Bahut achha laga aapaka post...
Fine
The whole life of Kishore Kumar was full of imagination and dedication for the happiness to all not only in those days it's even today and in the future as well.
Great contribution...
Manish ji apki post ko pahdke bahut achha laga
मनीष जी आपने किशोर दा की जिंदगी के हर पहलू की बखूबी जानकारी दी आपको धन्यवाद
आप के लेखन का बहुत बहुत धन्यवाद। मेरे किशोर दा के प्रति इतनी सारी जानकारियां और एक ही जगह वो आपके अथक प्रयास और किशोर कुमार के प्रति प्रेम को दर्शाता है।
इनके गानों को गाने के फलस्वरूप ही मेरा मेरे दोस्तों के बीच किशोर पड़ा। वो मुझे आज भी किशोर ही कहते है और मेरे नाम के बाद मुझे मेरा ये दूसरा नाम बहुत पसंद है। क्योंकि पहला नाम तो माता पिता ने दिया और उस लायक बनाया की किशोर दा को जान सकू।
एक बार " ये दर्द भरा अफसाना, सुन ले " गाने पर 100 रुपया फूफा जी दिए और आज भी वो 100 रुपया अपने गुरु के आशीर्वाद के रूप में रखे है।
किशोर दा की आवाज में वो जादू था कि 100 गायको के बीच उनकी गायकी अलग होती थी और पहचान में आ जाती थी। तुम बिन जाऊं कहाँ... किशोर दा और रफी साहब दोनों ने ही गाया है पर प्रसिद्ध आज भी किशोर दा का ही है। ऐसे अनेको गाने आपको मिल जाएंगे।
उनको अगर मैं गुरु मानता हूं तो मैं गलत तो नही हूं न दोस्तो। आपके प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
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