हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक युग ‘छायावाद’ के नाम से जाना जाता है, जिसके चार बड़े महारथी थे - प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी। सातवीं से लेकर दसवीं तक मैं इन छायावादी कवियों की कविताओं से बिल्कुल घबरा जाया करता था। शिक्षक चाहे कितना भी समझा लें, इन कवियों की लिखी पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या करने और भावार्थ लिखने में हमारे पसीने छूट जाते थे। जयशंकर प्रसाद की पहली कविता जो ध्यान में आती है वो थी बीती विभावरी जाग री.... जो कुछ यूँ शुरु होती थी
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।
शिक्षक बड़े मनोयोग से रात्रि के बीत जाने और सुबह होने पर नायिका के जागने के आग्रह को तमाम रूपकों से विश्लेषित करते हुए समझाते, पर मन ये मानने को तैयार ना होता कि सामान्य सी बात रात के जाने और प्रातः काल की बेला के आने के लिए इतना कुछ घुमा फिरा कर लिखने की जरूरत है। वैसे भी घर पर सुबह ना उठ पाने के लिए पिताजी की रोज़ की उलाहना सुनने के बाद कवि के विचारों से मन का कहाँ साम्य स्थापित हो पाता ? वक़्त बीता, समझ बदली। और आज जब इस कविता को किसी के मुख से सुनता हूँ तो खुद मन गुनगुना उठता है
खग कुल-कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये, अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली, आँखों में भरे विहाग री।
बीती विभावरी जाग री!
ऍसी मोहक पंक्तियाँ लिखने वाले जयशंकर प्रसाद जी की पृष्ठभूमि क्या रही ये जानने को आपका मन भी उत्सुक होगा। जयशंकर जी के काव्य संकलन पर एक किताब साहित्य अकादमी ने छापी थी। उसके प्राक्कथन में विख्यात साहित्य समीक्षक विष्णु प्रभाकर जी ने लिखा है
"..........जयशंकर जी का जन्म मात शुल्क दशमी संवत् 1946 (सन् 1889) के दिन काशी के एक सम्पन्न और यशस्वी घराने में हुआ था। जब पिता का देहावसान हुआ, उस समय प्रसाद की अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े भाई भी परलोक सिधार गये और सोलह वर्षीय कवि पर समस्याओं का पहाड़ आ टूटा। आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह जर्जर हो चुकी एक संस्कारी कुल परिवार के लुप्त गौरव के पुनरुद्धार की चुनौती तो मुँह बाये सामने खड़ी ही थी, जिस परिवार पर अन्तहीन मुक़दमेबाज़ी, भारी क़र्ज़ का बोझ, स्वार्थी और अकारणद्रोही स्वजन, तथाकथित शुभचिन्तकों की खोखली सहानुभूति का व्यंग्य...सबकुछ विपरीत ही विपरीत था। कोई और होता तो अपनी सारी प्रतिभा को लेकर इस बोझ के नीचे चकनाचूर हो गया होता। किंतु इस प्रतिकूल परिस्थिति से जूझते हुए प्रसाद जी ने न केवल कुछ वर्षों के भीतर अपने कुटुम्ब की आर्थिक अवस्था सृदृढ़ कर ली, बल्कि अपनी बौद्धिक-मानसिक सम्पत्ति को भी इस वात्याचक्र से अक्षत उबार लिया।
स्वयम् जयशंकर जी ने लिखा है
ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन रात हैं
कुविचार कुरों के कठिन कैसे कुटिल आघात हैं
हे नाथ मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरुद्ध में।
यही हुआ भी। जिस गहरे मनोविज्ञान यथार्थवाद की नींव पर प्रसाद के जीवन कृतित्व की पूरी इमारत खड़ी है, वह उनकी व्यक्तिगत जीवनी की भी बुनियाद है। घर-परिवार व्यवस्थित कर लेने के बाद हमारे कवि ने अपने अन्तर्जीवन की व्यवस्था भी उतनी ही दृढ़ता से सम्हाली और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के निरन्तर और अचूक विकास क्रम से उन्होंने साहित्य जगत को विस्मय में डाल दिया।
धीरे-धीरे, लगभग नामालूम ढंग से उनकी रचनाएँ साहित्य जगत में गहरे भिदती गईं और क्या कविता, क्या कहानी, क्या नाटक, क्या-चिंतन हर क्षेत्र में खमीर की तरह रूपान्तरित सिद्ध होती चली गई। किसी ने उनके बारे में लिखा है कि प्रसाद का जो आन्तरित व्यक्तित्व था, वह लीलापुरुष कृष्ण के दर्शन से प्रेरणा पाता था, और उनका जो सामाजिक व्यक्तित्व था, वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपना आदर्श मानता था। निश्चित ही प्रसाद जी के काव्य के पीछे जो जीवन और व्यक्तित्व है, उसमें धैर्य और निस्संगता की विपुल क्षमता रही होनी चाहिए।
प्रसाद का वैशिष्ट्य करुणा और आनन्द के अतिरिक्त जिन दो तत्वों से प्रेरित है, वे है उनका इतिहास-बोध और आत्म-बोध। पहली दृष्टि में परस्पर विरोधी लगते हुए भी ये दोनों चीज़ें उनके कृतित्व में इतने अविच्छेद्य रूप में जुड़ी हुई हैं कि लगता है, दोनों का विकास दो लगातार पास आती हुई और अंत में एक बिन्दु पर मिल जाने वाली रेखाओं की तरह हुआ। यह बिन्दु निश्चय ही ‘कामायनी’ है।............"
कुविचार कुरों के कठिन कैसे कुटिल आघात हैं
हे नाथ मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरुद्ध में।
यही हुआ भी। जिस गहरे मनोविज्ञान यथार्थवाद की नींव पर प्रसाद के जीवन कृतित्व की पूरी इमारत खड़ी है, वह उनकी व्यक्तिगत जीवनी की भी बुनियाद है। घर-परिवार व्यवस्थित कर लेने के बाद हमारे कवि ने अपने अन्तर्जीवन की व्यवस्था भी उतनी ही दृढ़ता से सम्हाली और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के निरन्तर और अचूक विकास क्रम से उन्होंने साहित्य जगत को विस्मय में डाल दिया।
धीरे-धीरे, लगभग नामालूम ढंग से उनकी रचनाएँ साहित्य जगत में गहरे भिदती गईं और क्या कविता, क्या कहानी, क्या नाटक, क्या-चिंतन हर क्षेत्र में खमीर की तरह रूपान्तरित सिद्ध होती चली गई। किसी ने उनके बारे में लिखा है कि प्रसाद का जो आन्तरित व्यक्तित्व था, वह लीलापुरुष कृष्ण के दर्शन से प्रेरणा पाता था, और उनका जो सामाजिक व्यक्तित्व था, वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपना आदर्श मानता था। निश्चित ही प्रसाद जी के काव्य के पीछे जो जीवन और व्यक्तित्व है, उसमें धैर्य और निस्संगता की विपुल क्षमता रही होनी चाहिए।
प्रसाद का वैशिष्ट्य करुणा और आनन्द के अतिरिक्त जिन दो तत्वों से प्रेरित है, वे है उनका इतिहास-बोध और आत्म-बोध। पहली दृष्टि में परस्पर विरोधी लगते हुए भी ये दोनों चीज़ें उनके कृतित्व में इतने अविच्छेद्य रूप में जुड़ी हुई हैं कि लगता है, दोनों का विकास दो लगातार पास आती हुई और अंत में एक बिन्दु पर मिल जाने वाली रेखाओं की तरह हुआ। यह बिन्दु निश्चय ही ‘कामायनी’ है।............"
उसी 'कामायनी' से लिए गए इस अंश को आशा जी ने बेहद सुरीले अंदाज़ में गाया है। संगीत जयदेव का है। ये गीत आशा जयदेव के एलबम An Unforgettable Treat से लिया गया है जो सारेगामा पर उपलब्ध है। इसी एलबम में महादेवी जी का लिखा कैसे उनको पाऊँ आली भी है ।
मेरे ख्याल से किसी हिंदी कवि की कविता को इतने अद्भुत रूप में कभी स्वरबद्ध नहीं किया गया है। बस लगता यही है कि प्रसाद के शब्दों में आशा जयदेव की जोड़ी ने प्राण फूँक दिए हों। आशा है आप को भी इस मधुर गीत को सुनने में उतना ही आनंद आएगा जितना मुझे आता रहा है...
तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन
विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की बात रे मन
चिर-विषाद-विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर-वन की
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित प्रात रे मन
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-दिन की
मैं कुसुम-ॠतु-रात रे मन
चिर निराशा नीरधर से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन"
34 टिप्पणियाँ:
Aaj kaa din aap ke naam Manish. 500 saal se khoj rahaa huuN is geet ko ..... ghazab, kamaal Manish ... Bas kamaal ...Aah .. No Thanks Manish .... I'm overwhelmed.
क्या बात है ! दिन बन गया । सुन्दर आलेख । लगता है ,जयदेव-आशा भोंसले का संग्रह भी मनीषजी के हाथ लग गया है । कार्य-स्थल के तनाव से पत्नी का मूड खिन्न था, सुनते ही गदगद हो गयीं।
आपने न सिर्फ़ एक मधुर गीत सुनवाया बल्कि मुझे मेरा बचपन भी याद दिया दिया, मैंने इस एल्बम को बहुत खोजा पर दिल्ली में कहीं नही मिला, कहीं से उपलब्ध करवाईये मित्रवर, क्या कही नेट पर भी है ये मौजूद ?
is sey bhali subah kya hogi bhalaa...na jaaney kahan kahan guhaar lagayi is geet ke liye...bachpan me suna fir yunus ji ke blog per.....fir esnips se bhi gum gaya ye geet.....bahut shukriyaa MANISH...AABHAAR KE LIYE SHABD NAHI....album bataney ke liye...aflatuun ji ne jo geet post kiya thaa vo bhi adhbhut thaa....lekh bhi bahut acchha likha hai aapney.....
बीती विभावरी जाग री!
ये तो हमारे भी पाठ्यक्रम में था. जयशंकर प्रसाद, निराला... पसंद में सबसे ऊपर !
वाह जी वाह ।
आनंद । परम आनंद ।
आठ सितंबर को आशा भोसले का जन्मदिन है ।
समझ लीजिये आज से ही शुरू हो गया ।
बहुत अच्छी पोस्ट !
मैंने तो पहली बार यह गीत सुना ..बहुत अच्छा लगा इसको पढ़ कर ...जयशंकर प्रसाद को पढ़ना एक सुखद अनुभूति देता है ..आप सही में बहुत मेहनत करते हैं मनीष ..एक और अच्छी पोस्ट है यह आपके द्वारा लिखित
सातवीं से लेकर दसवीं तक मैं इन छायावादी कवियों की कविताओं से बिल्कुल घबरा जाया करता था। शिक्षक चाहे कितना भी समझा लें, इन कवियों की लिखी पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या करने और भावार्थ लिखने में हमारे पसीने छूट जाते थे।
सही कहा मनीष जी..... आप तब की कह रहे हैं , यहाँ कामायनी के कुछ सर्ग पढ़ने में आज भी पसीने छूट जाते हैं।
ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन रात हैं
कुविचार कुरों के कठिन कैसे कुटिल आघात हैं
हे नाथ मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरुद्ध में।
पहली बार पढ़ी गई ये पंक्तियाँ बहुत भली लगीं
और आशा जयदेव सम्मिश्रण सबकी तरह हम भी अभिभूत हैं :)
जरा पता कीजिए 'कलय' अथवा 'कलह' ?
@Afloo Bhai कविता में कलह ही है आशा जी ने उसे कलय गाया है..
बहुत सुन्दर । आपने एक अद्भुत कविता परोसी है और उसपर लता जी की सुमधुर आवाज़। वाह आनन्द आगया।
हृदय से बधाई।
एक बहुत ही उम्दा पोस्ट. गजब कमाल है. सुनने में भी बहुत आनन्द आया.पहली बार यह गीत सुना.आनन्द आ गया.
शब्द और सुर का दिलकश संगम...आभार
मनीष जी,
तुमुल कोलाहल के स्थान पर तुम कोलाहल कर लें। आपके ब्लाग का लिंक अपने ब्लाग पर इस आशा से डाला है कि दुर्लभ साहित्य सुनने को मिलेगा। सस्नेह
शोभा जी मेरे चिट्ठे पर आने और सराहने का शुक्रिया। मैंने हर जगह तुमुल कोलाहल ही पढ़ा है इसीलिए वैसा लिखा है। मेरा चिट्ठा साहित्य और संगीत से जुड़ा हुआ है। कविता और पुस्तकों से संबंधित आलेख आप साइडबार में कविता और पुस्तक चर्चा टैग पर क्लिक कर पढ़ सकती हैं।
बहुत सुंदर आलेख है, मनीष जी। जयशंकर प्रसाद हमारे भी प्रिय कवि व नाटककार हैं। स्कूल-कॉलेज में इनकी कई रचनाएं पढ़ता रहा हूं। आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
मनीष भाई,
जयदेव,जयशंकरप्रसाद और आशाजी ...वाह वाह क्या कम्पोज़िशन है यह. विविध भारती के रंगतरंग कार्यक्रम में न जाने कितनी बार बजती थी. हमारे महान हिन्दी कवियों को जन जन में पहुँचाने के लिये आशाजी,लताजी जैसे धाकड़ गायिकाओं का बहुत कम सार्थक उपयोग हुआ है..और ज़माने की रौ में सुगम संगीत गायन विधा भी कुल मिला कर ग़ज़ल तक सिमट कर रह गई है. हिन्दी कवियो को गवाने और स्मरण करने का जो काम आकाशवाणी के रीजनल स्टेशन किया करते थे वह भी अर्थाभाव में बंद हो गया है.बड़ा अहसान आपका गुज़रे दौर का सुरीलापन याद दिलाने के लिये.
पढ़-सुन कर आनंद आ गया मनिष भाई।
अद्भुत. हिन्दी कविताओं की आपने सुंदर शुरुआत की है.
गजब है मनीष जी...
आपकी इस श्रेष्ठ प्रस्तुति को नमन..
i have heard it first time here only...i have heard it 100 times may be!! and make so many people to listen to this..thanks a lot
शुक्रिया आप सब का इस मधुर कविता को दिल से पसंद करने का !
Good Literature and Classic creations can never die until enthusiastic people like Manish Bhai and and lovers of such work like us are alive.
I had written down this song in my diary after several attemts while listening from radio, that story is about 20 years ago when I was a college student.
Keep it up.
Shireesh Welankar
Bahut bahut Dhanyavad manish jise yah geet pasand nahi use na tau kavita aur na hi sangeet se pyar hai ya kavita aur sangeet ki samaz nahi hai.
This was an ecstatic experience to hear this in such a marvelous fashion.
India is great, to have poets / rishis like Jay ji....
Sanjay
Yun hi Bhatkte huye aaj aapki is duniya me aa gai...laga mujhe manjil mil gai....kya amulya khazana aapne yahan saja rakha hai...jindgi beet jaye pr khajana khatam na ho...shukriya shabd bahut chota hai...fir bhi....sweekar karen
Manish, i am indebted to you , was looking for "Tumul Kolahal" lyrics since eternity.
May god bless you !
- From Devashish
my favorite geet...
lekin sun nahin saki....
kya karan hai....
gana yahan par available hi nahin hai....!
aapne kahan se download kiya tha..?
manish can you get it for me....plz ho sake to....!!
My fav kavita..What is the meaning of last stanza,pl?
सुवर्णा आपने अंतिम अनुच्छेद का अर्थ पूछा है। जयशंकर प्रसाद की कविताओं के भावार्थ से तो हम स्कूल के दिनों से ही घबड़ाते आए हैं। फिर भी मेरी समझ से इसका अर्थ है...
"दूर दूर तक फैले इन निराशा के बादलों से प्रतिबिंबित आँसुओं के इस सरोवर में मैं इसी जल में जन्मी हुई एक खिलती कली हूँ, जिसके रस पे भौंरे गुंजायमान हैं।"
Manishji,
Thanks a lot for the prompt reply. I listen to this kavita everyday,its like prayer and inspires me. Abhar,Bless you.
Vaah vaah vaah
I liked this song from my childhood days. I was not able to find the lyrics of the song. Thank you Manish ji for providing to us not only the lyrics but also the knowledge about Prasad ji who has written. What a composition. This song has become immortal with the music of Jaidev ji and voice of Asha ji.
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