सोमवार, सितंबर 22, 2008

रुड़की से दिल्ली की वो बस यात्रा और मिलना उस 'भूत' से....

मुझे बस से यात्रा करना कभी पसंद नहीं रहा। अगर खिड़की ना मिली हो तो ये यात्राएँ और अखर जाती थीं क्योंकि पहले पहल तो ऍसा होने पर मुझे चक्कर ही आ जाया करते थे। कॉलेज में जब मेसरा में दाखिला लिया तो पटना से राँची आते जाते बस की सवारी के भी अभ्यस्त हो गए। उसके बाद बस से यात्राएँ तो खूब कीं पर एक यात्रा में हुए तरह-तरह के अनुभवों की याद आते ही मन सिहर भी उठता है और हँसी भी आती है। आखिर भावनाओं में ऍसा विरोधाभास क्यूँ ? तो जनाब जब तक आप ये किस्सा नहीं सुनेंगे तब तक आपको मेरी मनःस्थिति का भेद नहीं समझ आएगा।

बात १९९६ की है। तब मैं रुड़की विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग में स्नात्कोत्तर की पढ़ाई कर रहा था। उन दिनों प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठने हेतु अक्सर दिल्ली आना जाना लगा रहता था। ऍसी ही एक परीक्षा में भाग लेने के लिए जाड़े की गुनगुनाती धूप में हम रुड़की के बस अड्डे के सामने खड़े थे। हरिद्वार और देहरादून से आने वाली बसें, रुड़की से खतौली, मोदीनगर, मेरठ होते हुए दिल्ली जा पहुँचती थी। चूंकि हरियाणा, दिल्ली, यूपी, हिमाचल और राजस्थान परिवहन की बसें इस रूट में चलती हैं इसलिए हर १५-२० मिनट में कोई बस दिल्ली की ओर जाती मिल जाती है। मैं और मेरे एक मित्र ने ये फैसला किया था कि चढ़ेंगे तो किसी साफ सुथरी और खाली खाली बस में, भले ही इसके लिए कुछ ज्यादा इंतजार क्यूँ ना करना पड़े। तीन चार बसों को छोड़ देने के बाद हमें अपने मापदंडों के अनुसार ही राजस्थान परिवहन की एक बस आती दिखाई दी।

बस अपन खुशी-खुशी चढ़ लिए। अंदर पीछे की तरफ खिड़की भी मिल गई। पर बस बाहर से जितनी चमकदार थी अंदर के यात्री ठीक उससे उलट। बस में बहुतायत जोधपुर जाने वाले यात्रियों की थी। अंदर अजीब सा वातावरण था। जोधपुरी पगड़ी और चमरौधे जूतों के बीच कोई बीड़ी सुलगा रहा था तो कोई महिला रह रह कर कै कर रही थे और बच्चे खान पान की चीजें बस में ही इधर-उधर बिखरा रहे थे। ऊपर से तथाकथित ठंड के मारे बड़े बुजुर्ग खिड़कियाँ भी नहीं खोलने दे रहे थे। बड़ी मुश्किल से मैं अपनी साझे की खिड़की को थोड़ा सरका पाया था। मेरी सीट के ठीक आगे एक कम उम्र की स्त्री पूरा घूँघट काढ़े बैठी थी। उसके ठीक बगल में एक अधेड़ उम्र का शख़्स बैठा था ।

हमारी बस रुड़की से करीब तीस चालिस किमी आगे आ चुकी थी। बस के अंदर के घुटन भरे माहौल में मेरा सर भारी हो रहा था, सो मैंने अनमने भाव से अपनी आँखें बंद कर रखीं थीं। अचानक ही अगली सीट से एक मर्दाना चीत्कार सुनाई दी...


"उउउउउ उउउउउउउउउ मैं मरा नही हूँ पिताजी मुझे मारा.... गया है। ......."

मैं और मेरा मित्र एकबारगी समझ ही नहीं पाए कि ये आवाज़ आ कहाँ से रही है? क्योंकि सामने बैठा अधेड़ पुरुष तो कुछ देर पहले बीड़ी सुलगा रहा था। वस्तुस्थिति समझ आई तो भय की लहर भीतर तक दौड़ गई। दरअसल भारी पुरुष स्वर में आने वाली चीख उस कम उम्र की महिला के मुँह से आ रही थी...

"..मैं मरा नही हूँ पिताजी मुझे मारा गया है। मुझे साजिश से मारा गया है। मेरे हत्यारों से बदला लेना पिताजी। जानकी बहुत अच्छी है । इसका ख्याल रखना पिताजी।..."

चार चार लोग उस महिला को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे थे पर कुछ देर पहले घूँघट काढ़ी उस युवती में ना जाने कहाँ से इतनी ताकत आ गई थी कि वो तीन चार लोग जिसमें मेरा मित्र भी था के काबू में नहीं आ रही थी। उसका शरीर एक ओर से दूसरी ओर उछल रहा था। आँचल एक ओर गिरा पड़ता था पर इसका उसे होश कहाँ था। मर्दानी चीख अब बड़े भारी स्वर के रुदन और विलाप में बदल चुकी थी ....

शायद उसके अंदर कोई आत्मा प्रवेश कर गई थी। भूत रो रहा था पर क्या ऐसा संभव था ?
और आप सोच सकते हैं कि इस सारे दृश्य को ठीक पीछे से देखते हुए मेरी क्या हालत हो रही होगी।

सबसे पहले मेरे मन में यही विचार आया कि अगर ये सचमुच का सो कॉल्ड भूत इस महिला के शरीर में घुसा है तो कहीं ऍसा ना हो की तफरीह करते हुए वो वहाँ से पीछे आकर मेरे शरीर में घुस जाए। जैसे ही ये विचार मेरे मन में कौंधा मेरे हाथ बगल की खिड़की की ओर लपके। आनन-फानन में खिड़की खोलकर मैंने राहत की साँस ली अब अगर भूत महोदय को निकलना ही हुआ तो ये मेरे कृशकाय शरीर की बजाए बाहर की हर भरी स्चच्छ आबोहवा में विचरना अवश्य पसंद करेंगे।

मेरी सिहरन का रहस्य तो अब तक आप पर विदित हो ही गया होगा। आगे की गाथा मन को बोझिल कर गई थी पर बस में उपस्थित एक दूसरे किरदार ने गमज़दा माहौल को बदल कर रख दिया था। वो प्रकरण इस कड़ी के दूसरे हिस्से में...
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12 टिप्पणियाँ:

travel30 on सितंबर 22, 2008 ने कहा…

ha ha.. mazedar aur romanchit karne wala kissa.... bahut maza aaya

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I don’t want to love you… but I do....

रंजू भाटिया on सितंबर 22, 2008 ने कहा…

गुमनाम है कोई ...:) कौन थी वो ..:) किस्सा अच्छा है ..पर जल्दी से बताओ आगे की दास्तान

डॉ .अनुराग on सितंबर 22, 2008 ने कहा…

यार मनीष इसलिए मुझे लगता है जो आदमी दुनिया घूमा हो उसके पास दुनिया भर के किस्से होगे..ये भी एक दिलचस्प किस्सा है...जारी रखना

Abhishek Ojha on सितंबर 22, 2008 ने कहा…

हम्म... बस में यात्रा करने वाला अनुभव तो आपसे मिला... पर भुत से कभी मुलाकात नहीं हो पायी...! अगली कड़ी में शायद कुछ भेद खुले .

Udan Tashtari on सितंबर 22, 2008 ने कहा…

डरा रहे हो कि कहानी सुना रहे हो?? बहुत रोचक चल रही है..आगे इन्तजार है...कोई भूतहा गाना भी जोड़ देते. बीस साल बाद वाला..:)

जितेन्द़ भगत on सितंबर 22, 2008 ने कहा…

mujhey to bhul-bhullaiya ke scene yaad aa gaye, पर बस में होने के कारण यह और भी अधि‍क खौफनाक लग रही है। रात काफी हो गई है, मैं इसपर ज्‍यादा नहीं सोचना चाहता। गुड नाइट।

PD on सितंबर 23, 2008 ने कहा…

मेरे भैया भी रूड़की से एम.टेक किये हुये हैं.. उनके पास भी उनका अपना तो नहीं मगर उनके दोस्तों का ढेर सारा भूतों का किस्सा है..

PD on सितंबर 23, 2008 ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Pawan on सितंबर 23, 2008 ने कहा…

ha ha ha main bhi Roorkee mein chaar saal raha lekin itna mast hadsa kabhi nahin hua :) ....anyways main hamesha Roorkee se train se aata jaata tha par uske bhi bahut mast kisse hain.

कंचन सिंह चौहान on सितंबर 23, 2008 ने कहा…

kahaani poori kar lijiye fir kuchh kahu.n... bahut kuchh yaad dila diya aap ne

pallavi trivedi on सितंबर 23, 2008 ने कहा…

अरे ये तो एकदम अलग सा किस्सा निकला...बस में भूत!भागो रे भागो.....

SahityaShilpi on सितंबर 24, 2008 ने कहा…

मनीष जी! इतने दिनों बाद तो ब्लाग की ओर आने का मौका मिला और आप हैं कि डरा रहें हैं :)
वैसे अच्छा किस्सा है, अगली कड़ी का इंतज़ार करना पड़ेगा!

 

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