मंगलवार, सितंबर 30, 2008

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल : सुनिए हुसैन बंधुओं की आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल

शास्त्रीय संगीत में जुगलबंदी का अपना ही मजा होता है। वैसा ही कुछ अहसास तब होता है जब हुसैन बंधु एक साथ मिलकर ग़ज़ल के तार छेड़ते हैं। जी हाँ मैं उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की बात कर रहा हूँ। हुसैन बंधुओं को संगीत का फ़न विरासत में ही मिला था। इनके पिता उस्ताद अफज़ल हुसैन जयपुरी खुद एक चर्चित ठुमरी और ग़ज़ल गायक रह चुके हैं।

हुसैन बंधुओं की गायिकी से पहला परिचय अस्सी के दशक में म्यूजिक इंडिया नाम की कंपनी की कैसेट के तहत हुआ था। पर इनकी ज्यादातर ग़ज़लों को सुनना और पसंद करना संभव हुआ विविध भारती के कार्यक्रम रंग तरंग की वजह से। जाने क्या मोहब्बत थी विविध भारती वालों की इनसे कि हर दूसरे दिन इनकी ग़ज़लें सुनने को मिल ही जाया करती थीं। एक ग़ज़ल जो बार-बार बजा करती थी और जो मुझे उन दिनों पूरी याद हो गई थी, वो थी

दो जवाँ दिलों का गम दूरियाँ समझती हैं
कौन याद करता है हिचकियाँ समझती है...

जिसने कर लिया दिल में पहली बार घर 'दानिश'
उसको मेरी आँखों की पुतलियाँ समझती हैं


पर जिस ग़जल की बात आज मैं कर रहा हूँ उसकी तासीर ही दिल पर कुछ अलग सी होती है। ये उन ग़ज़लों मे से है जो जिंदगी के हर पड़ाव पर मेरे साथ रही है एक हौसला देती हुई सी। जब भी मन परेशान हो और अपना लक्ष्य धुँधला सा हो तो ये ग़ज़ल रास्ता दिखलाती सी महसूस हुई। 'राग यमन' पर आधारित इस ग़ज़ल को लिखा था, हुसैन बंधुओ के चहेते, मशहूर गीतकार हसरत जयपुरी साहब ने।

कुछ महिनों पहले डा. अजित कुमार ने भी इस ग़जल की चर्चा करते हुए इसे अपना पसंदीदा माना था। तो आइए सुनते हैं हुसैन बंधुओं की दिलकश आवाज़ में ये ग़ज़ल



चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल

हम वहाँ जाएँ जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल

अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई भी दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत पे ग़ज़ल, चल

पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल



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13 टिप्पणियाँ:

Arvind Mishra on सितंबर 30, 2008 ने कहा…

सुनते हुए बहुत सकूं भरा अहसास ! शुक्रिया !

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्छी आवाज़ सुनाई, धन्यवाद आपका।

mamta on सितंबर 30, 2008 ने कहा…

मनीष जी आपने तो हमारी शाम बेहद खूबसूरत बना दी इस खूबसूरत सी गजल को सुनवा कर ।
एक बार सुनकर तो मन ही नही भरा । इसलिए एक बार और सुन रहे है ।

रंजू भाटिया on सितंबर 30, 2008 ने कहा…

शाम सुहानी कर दी आपने तो ..बेहद पसंद आई यह .

डॉ .अनुराग on सितंबर 30, 2008 ने कहा…

शुक्रिया !इन आवाजो के लिए .....

पारुल "पुखराज" on सितंबर 30, 2008 ने कहा…

khuub pasand ki cheez ..shukriya

एस. बी. सिंह on सितंबर 30, 2008 ने कहा…

हम वहाँ जाएँ जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें

puraani aur pasandeedaa gazal sunavaane kaa shukriyaa.

Udan Tashtari on अक्टूबर 01, 2008 ने कहा…

मेरी प्रिय गज़ल. वाह!! बहुत आभार!!

कंचन सिंह चौहान on अक्टूबर 01, 2008 ने कहा…

क्या बात है मनीष जी...मजा आ गया ...यूँ पहली बार ही सुनी ये गज़ल लेकिन एक वाक़या बाँटने का मन हो आया
आप से फोन पर चर्चा में एक बार मैने जिक्र किया था कि असलम साबरी की कव्वाली तू किसी और की जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल, लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल मेरे साथ मेरे दोनो भईया की भी बड़ी प्रिय कव्वाली है..अभी कुछ दिन पहले एक प्रिय भांजे की शादी की तैयारियों के साथ गाना बजाना चल रहा था और मैं यही कव्वाली गा रही थी तभी दूसरे भतीजे ने कमेंट किया कि हाँ सही कह रह हो अब इनके लिये यही गाना भी चाहिये और तुरंत मैने शब्द बदल कर गाना शुरू कर दिया कि तू किसी और की जागीर नही जान-ए-गज़ल, लोग तूफान उठाते रहें तू साथ ही चल

अरे पता होता कि ऐसा कोई गीत है तो इतनी रचनात्मकता काहें waiste करते...

योगेन्द्र मौदगिल on अक्टूबर 01, 2008 ने कहा…

क्या बात है भाई..
क्या प्रस्तुित है..
मज़ा आ गया..

बेनामी ने कहा…

dil ko chhu le woh alfaz aur us par gayki ka almast andaz,wah wah

vk misra
pantnagar

रोहित ठाकुर ने कहा…

मैं शायद सातवीं जमात में रहा हूँगा तब। सर्दियो की धुप सेकने के लिए अपने एक दोस्त क साथ किताबें ले कर म्यूजिक रूम की बहार वाली दीवार पर टेक लगाकर बैठ गए। संगीत के नए नए अध्यापक एक नया स्पीकर लाए थे और उसपर पहला गीत यही चला दिया।
बस एक वो दिन था और एक आज का दिन है। इस ग़ज़ल को हज़ारों दफ़ा सुन चूका हूँ मगर जी नहीँ भरता कभी। क्या खूब लिखा है हसरत साहब ने और बखूबी निभाया है हुसैन बंधुओं ने।
साझा करने के लिए शुक्रिया :)

Shakeel Shaikh on जुलाई 04, 2015 ने कहा…

शानदार गज़ल

 

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