गुरुवार, अक्टूबर 02, 2008

गाँधी जयन्ती : सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी

आज गाँधी जयन्ती तो है ही साथ साथ शास्त्री जी के जन्मदिन का खुशनुमा मौका भी है।

आज इस पवित्र दिन अखबार उठाता हूँ और अगरतला में बम कांड से घायल महिला और उड़ीसा के कांधमाल में जले हुए घरों की तसवीरें देखता हूँ तो कैलाश गौतम की ये कविता जो पिछले साल आजादी की साठवीं वर्षगाँठ पर आप सबके साथ बाँटी थी, पुनः याद आ जाती है।


सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी


इसलिए ये समय विचार करने का है, कि हम इतने असहिष्णु, इतने जल्लाद , इतने संवेदनाशून्य क्यूँ होते जा रहे हैं? कैसे हम समझ लेते हैं कि ऐसी जलील हरकतों को करने से हमारा भगवान, हमारा परवरदिगार हमारी पीठ ठोंकेगा?

देश के इन हालातों में कैलाश जी की ये कविता कितनी सार्थक है ये इसे पढ़ कर आप महसूस कर सकते हैं। और जैसा अविनाश जी ने अपनी पिछली टिप्पणी में कहा था

"...60 साल की आज़ादी का सार है ये कविता। बार-बार पढ़ें, पढ़ाएं इसे। अपनी हक़ीक़त का पता चलता है। "



सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी

बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्‍ही जी
तोहरे घर क' रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्‍ही जी

हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै


का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्‍ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्‍ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्‍ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्‍ही जी

जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्‍बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्‍को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला

नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्‍ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्‍ही जी
झगरा क' जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्‍ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्‍ही जी

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्‍बौ हौ
कब्‍बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्‍बौ हौ
दूसर के कब्‍जा में आपन पानी दाना अब्‍बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्‍बौ हौ


कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्‍ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्‍ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्‍ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्‍ही जी

घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्‍कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्‍बौ बहिन मतारी वाले

तोहरै नाम बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्‍ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्‍ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्‍ही जी


जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै

अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्‍ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्‍ही जी
करिया अच्‍छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्‍ही जी
एक समय क' बागड़ बिल्‍ला आज भगत हौ गान्‍ही जी
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29 टिप्पणियाँ:

Kali Hawa on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

bohat khoob!

परमजीत सिहँ बाली on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

बहुत बढिया रचना है।बहुत खूब!!


आप सभी को गाँधी जी, शास्त्री जी की जयंति व ईद की बहुत बहुत बधाई।

यूनुस on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

अदभुत अनिवार्य कविता । मन रोमांचित हो गया । कैलाश गौतम का मंच पर काव्‍य पाठ याद आ गया ।

अमिताभ मीत on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

Bahut sundar Manish .... bahut hi badhiya post.

BrijmohanShrivastava on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

एक गजल पर आपकी कमेन्ट देख कर आपके दर्शनों को चला आया -यहाँ तो कुछ और ही नज़ारा देखने को मिला क्या सचित्र विवरण किया है दुर्दशा का / देश दुर्दशा का दयनीय द्रश्य देखकर बोले दूसरी तरह का मानचित्र चाहिए /जैसे दुर्गन्ध मेंटने की असमर्थता में झेंप मेटने को मित्र कहे इत्र चाहिए /

Mumukshh Ki Rachanain on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

भाई मनीष जी,
गांधी के अहिंसक भारत में हिंसा का साम्राज्य???????????????????
शायद स्वंतंत्र भारत के रणनीतकारों के ऐसे फैसलों का ही प्रतिफल है जो गांधी जी के विचारों से मेल नही खाते थे, पर पाश्चात्य देशो की म्रग्मारीचक प्रगति के हवालों को देकर बने गई थी.
इसी का प्रतिफल है कि संस्कार, मानवीय मूल्यों से "अर्थ" अधिक प्रभावशाली हो गया है और अब उसी का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है, तो झेलना तो पड़ेगा ही.

चन्द्र मोहन गुप्त

डॉ .अनुराग on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

धर्म ओर राजनीती के घिनोने गठबंधन को तोड़कर अपने अपने पूर्वाग्रहों को त्यागना होगा तभी ये देश बच पायेगा वरना अफगानिस्तान ओर पकिस्तान की तरह इसे भी टूटने से कोई नही बचा पायेगा

siddheshwar singh on अक्टूबर 02, 2008 ने कहा…

बहुत ही प्रासंगिक कविता !

Udan Tashtari on अक्टूबर 03, 2008 ने कहा…

कैलाश गौतम जी की इस रचना का तो क्या कहना!! जबरदस्त!!

शुभ दिवस की बधाई एवं शुभकामनाऐं.

Arvind Mishra on अक्टूबर 03, 2008 ने कहा…

वाह भाई कैलाश गौतम की इस कालजयी रचना को सुना कर आपने आज का दिन धन्य कर दिया .अपने गाव गिराव की बोली बाँई में कितनी बड़ी बात कह जाती थे कैलाश जी ! वह कवि परम्परा क्या विलुप्त हो जायेगी ?

अजित वडनेरकर on अक्टूबर 03, 2008 ने कहा…

शुक्रिया मनीष भाई इस अद्भुत रचना को पढ़वाने के लिए....सचमुच हकीकत यही है...

कंचन सिंह चौहान on अक्टूबर 03, 2008 ने कहा…

हर तरफ ज़ुल्म है बेकसी है,
सहम सहमा सा हर आदमी है।
पाप का बोझ बढ़ता ही जाये,
जाने कैसे ये धरती थमी है।

क्या कहूँ मनीष जी बस बहुत दुखी हूँ आज कल के हालात से, अखबार उठाते डर लगता है..पता नही कौन सी जगह कौन सी घटना हुई हो, उन चीथड़ों मे किसकी दुनिया लुट गई हो कौन जानता है.हाल ही में देखी गई फिल्म वेड्नसडे के अंत मे कही गई आम आदमी की बात बस अपने ऊपर सही लगती है कि हम चैनेल चेंज कर के मैसेज और फो कर के तसल्ली कर लेते हैं कि मरने वालों मे कोई मेरा नही था।

Unknown on अक्टूबर 03, 2008 ने कहा…

बेहतरीन रचना है।
पढ़वाने के लिए आपका शुक्रिया।

P.N. Subramanian on अक्टूबर 04, 2008 ने कहा…

निर्विवाद रूप से एक बेहतरीन रचना. बधाइयाँ.

Unknown on अक्टूबर 04, 2008 ने कहा…

Manishji,
Apka blog to bahut dinon se padh raha hoon.....lekin aaj comment likhane se khud ko na rok saka...kailsah gautam ji ke kavi sammelan sunane ka saubhagya kaye bar mujhe mila hai allahabad aur delhi mein....un dinon unke swar se yeh kavita kaye bar suni hai...wo ek kavita aur bahur sunate the...nandkishor....poori to yad nahin hai....ek line yad aa rahe hai....doodh duhen, balta bharen, chalein shahar ke oor.....aur amvasa ka mela bhi wo khoob sunate the, kafe lambi kvita hai, lekin thoda bahut wo jarror sunate the.....agar ho sake to amvsa ka mela bhi prastut karein....mere allahabad ke dinon ko yad dilane ke liye dhanyabad !!! aise he likhte rahiye......

एस. बी. सिंह on अक्टूबर 04, 2008 ने कहा…

ठीक लिखल भईया

banzara on अक्टूबर 04, 2008 ने कहा…

पहली बार पढ़ी यह कविता. क्या मोती ढूँढ निकाला आपने. इसे क्या नागार्जुन की 'इंदिराजी' और 'आओ रानी' से कम कहें?

योगेन्द्र मौदगिल on अक्टूबर 05, 2008 ने कहा…

कैलाश जी की यादों में व्यवस्थित हैं..
उन्हें भुलाया भी नहीं जा सकता...
आपकी बेहतरीन प्रस्तुति प्रणम्य है....

Dawn on अक्टूबर 06, 2008 ने कहा…

Bahut hee bura laga ye parhkar Manish....Gandhi Jayanti aur ahinsa osi din...? Ye kaise jayanti hai....kam z kam oonke naam ki izzat hee rakh lete ...kher dehashat phelane walon ki kya izzat aur kya ehamiyat.
My condolenses to the people and the family who suffered the injury
ameen

Manish Kumar on अक्टूबर 06, 2008 ने कहा…

देश के आज के हालातों को काफी समय पहले लिखी ये कविता बड़ी विकलता से चित्रित करती है। आप सब ने कैलाश जी की इस कृति को सराहा और दिल से महसूस किया इसके लिए आभार।

मंजुल जी आप ने जिन कविताओं के नाम लिये हैं वो मैंने नहीं पढ़ी हैं। अगर मौका लगा तो जरूड़ आप सब के साथ बाटूँगा।

Abhishek Ojha on अक्टूबर 13, 2008 ने कहा…

सच में बड़ी अच्छी कविता है !

सुशील छौक्कर on अक्टूबर 02, 2010 ने कहा…

कैलाश जी की कविता बहुत पसंद आई। हमें व्यक्ति नही उसके विचारों को अपनाना होगा। आज के पेपर उठा के देख लिजिए चारों तरफ गाँधी जी की फोटो से भरे पडे है। ब्स एक दिन ही याद करके रह जाते है। और बाकी दिन........।

Amar Kumar on अक्टूबर 07, 2010 ने कहा…

वाह, क्या बात है ?
अपुन को जमता है, भाई !
बरोबर बोलता तुम, उहै जमाना अब्बौ हौ !

Gautam Rajrishi on अक्टूबर 07, 2010 ने कहा…

जबरदस्त है मनीष जी...जबरदस्त..."अब्बौ हौ" का रदीफ़ तो..उफ़्फ़्फ़ जानलेवा है। आपके खास ठनक के साथ इसको सुनने की तमन्ना है

Lavanya Shah on अक्टूबर 07, 2010 ने कहा…

kya khoob likha hai Gaanhee ji ! ( i mean Kailash Gautam ji ne )

बेनामी ने कहा…

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